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गाँधी और नेहरू : कितने दूर कितने पास

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राजेंद्र बोड़ा भारतीय राजनीति के आधुनिक इतिहास पर सबसे अधिक छाया जिन दो व्यक्तित्वों की रही वे थे महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू. बीसवीं सदी में देश के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने में इन दो व्यक्तित्वों की जो भूमिका रही वह अनूठी है. महात्मा गाँधी का नेहरू के प्रति जैसा लाड और आत्मीय प्रेम था उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी. गाँधी ने जो आखरी ख़त नेहरू को लिखा उसमे उनका वात्सल्य भाव उमड़ पड़ता है. 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे की गोली का शिकार होकर चिर निद्रा में लीन होने से ठीक 12 दिन पहले 18 जनवरी 1948 लिखे इस पत्र की अन्तिम पंक्तियाँ हैं : "बहुत वर्ष जीयो और हिंद के जवाहर बने रहो. बापू का आशीर्वाद." और गाँधी के महाप्रयाण की सूचना आकाशवाणी प्रसारण पर सारे देश को देते हुए रुंधे गले से नेहरू ने कहा : "हमारे जीवन से रोशनी चली गयी है." मगर यह भी सच है कि देश की आज़ादी की जंग के इन दो योद्धाओं में जितनी अधिक आत्मीय निकटता थी उतनी ही उनके विचारों में जबरदस्त दूरियां भी थीं. देखा जाए तो इन दो महान व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध हमेशां अजीब से विरोधाभास लिए हुए रहे एक तरह

गाँधी और नेहरू के मतभेद उजागर करता एक ख़त

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(आजाद भारत का नक्शा कैसा होगा इस पर गाँधी और नेहरू के बीच गहरे मतभेद को गाँधी का 5 अक्टूबर 1945 को लिखा पत्र स्पष्ट रूप से इंगित करता है. गाँधी इस पत्र में अपने 'हिंद स्वराज' के विचारों का खुलासा करते हैं. ख़त का प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है जो आज भी उतना ही मौजूं है.) चि. जवाहर लाल, तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ. अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में, वह भी मेरे सामने सवाल था. आखर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया. पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है, उसकी है. अगर ये भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए, क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रुकता है. मैंने कहा कि 'हिंद स्वराज' में मैंने लिखा है, उस राज्य-पद्धति पर मैं बिल्कुल कायम हूँ. यह सिर्फ़ कहने की बात नही है. लेकिन जो चीज मैंने 1908 के साल में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है. आख़िर में मैं एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, उसका मुझको जरा भी दुःख नहीं होगा, क्योंकि मैं जैसा सत्य पाता हूँ, उसका मैं