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शमशाद बेगम: जिनके साथ ही एक ज़माना गुजर गया

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राजेंद्र बोड़ा  राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल शमशाद बेगम को पद्मश्री अलंकरण प्रदान करती हुई गायिका शमशाद बेगम   वह  कड़ी थी जो  गुजरे ज़माने के साथ  हमें  जोड़े रखे  हुई थीं।  उनके  चुपके से इस दुनिया से विदा होने के साथ ही यह कड़ी टूट गई है।  हिन्दुस्तानी  फिल्मों को उसकी अलग पहचान  उसके  संगीत ने  दी।  और  हिंदुस्तानी  फिल्म संगीत को जिन आवाज़ों ने बुलंदियां  दीं  उनमें एक प्रमुख नाम रहा शमशाद बेगम का  जिनकी खनकदार  आवाज़ के जादू  का प्रभाव    समय  की दूरियाँ भी नहीं मिटा सकी हैं। वर्ष 1931  में  ‘ आलम आरा ’   से  हिंदुस्तानी फिल्मों को आवाज़ मिली। मूक से सवाक् फिल्म के बदलाव का सफर  गानों  के साथ शुरू हुआ जो आज भी जारी है। 1930 के दशक की फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर में वजनदार आवाज़ों का ज़ोर था।  रोशनआरा  बेगम ,  कज्जन  बाई ,   वहीदन ,  हमीदा  बानो  आदि के साथ अमीरबाई कर्णाटकी ,  ज़ोह रा बाई अंबा ला वाली ,   कानन देवी  और  सुरैया  अपनी धाक जमा रहीं थीं तभी दो बुलंद आवाज़ें आते ही सब पर छा गईं वे थीं –  नूरजहाँ और  शमशाद बेगम की। हिंदुस्तानी फिल्मों का शुरुआती दौ

पत्रकारिता का दायित्व और अभिव्यक्ति की आज़ादी

राजेंद्र बोड़ा  अभिव्यक्ति की आज़ादी भले ही हमें कानूनी रूप से अपने संविधान से मिली है मगर वास्तव में यह हमारा मानवीय अधिकार है। लोकतन्त्र में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। लोकतन्त्र  की सफलता  अहिंसक समाज में ही संभव हो सक ती  है। ऐसे समाज में जहां फैसले शारीरिक या आयुध की ताकत से नहीं बल्कि तर्क से ,  बहस से और विमत के अधिकार की रक्षा करते हुए  न्यायसंगत  आम सहमति से होते हों। लोकतंत्र की मर्यादा तभी बनी रह सकती है जब पत्रकारिता स्वतंत्र हो और वह अपना दायित्व पूरी मर्यादा से निबाहे। इसीलिए लोकतान्त्रिक समाज पत्रका रों  से  अपेक्षा रखता है कि  वे  एक   तर्कवान संवाद स्थापित करने  के वाहक  बनेंगे।       पत्रकारिता का पहला दायित्व सच्ची सूचना देना  होता  है। सूचना किसी एक पक्ष की नहीं – सब की। यही उसकी मर्यादा है। वह सूचना खुद पैदा नहीं करता। सूचना उसे कहीं न कहीं  से  मिलती है। यह उसका दायित्व है कि वह उन स्रोतों की विश्वसनीयता की पड़ताल करे जहां से उसे सूचनाएं मिलती हैं। पत्रका रों  का  यह भी  दायित्व है कि वह सूचना  के  स्रोतों के हाथों में न खेल जाये।  पत्रकार