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Showing posts from July, 2015

दिलीप कुमार : सच्चाई और परछाई

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राजेंद्र बोड़ा  दिलीप कुमार राज कपूर और देव आनंद तीन ऐसे कलाकार हुए हैं जो उस काल में शीर्ष पर थे जिसे हिन्दुस्तानी फिल्मों का स्वर्ण युग के रूप में याद किया जाता है। तीनों समकालीन थे और तीनों ही के अपने - अपने शिखर थे। तीनों की सिने पर्दे पर अपनी छवि थी और अपना अंदाज़ था। तीनों ऐसे कलाकार रहे हैं जिनके नाम आज भी लोगों में उत्सुकता जगाते हैं। तीनों के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि लगता है अब उनके बारे में जानने को और क्या बचा हो सकता है। मगर फिर भी उनके बारे में कोई लेख या किताब आती है तो लोग बड़ी उत्सुकता से उसे पढ़ते हैं। लोगों की यह अतीत की ललक भी हो सकती है। दिलीप कुमार पर , उनके अभिनय पर उनके जीवन पर पहले भी किताबें लिखी जा चुकी हैं। मगर इस अभिनेता की आत्मकथा ‘ Dilip Kumar : The Substance and The Shadow’ की प्रतीक्षा इसलिए थी कि यह दिलीप साहब पहली बार अपनी आत्मकथा लिख वा र हे थे । भले ही किताब को आत्मकथा के रूप में स्थापित किया जा रहा है मगर वह दिलीप साहब की लेखनी से नहीं निकली है। यह किताब है As narrated to Udaytara Nayar ( जैसा कि उन्होंने उदयतारा

बीते युग की अंतिम आवाज़ भी चुप हो गई

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  राजेंद्र बोड़ा संगीत के बीते सुनहरे दौर के गायक विद्यानाथ सेठ नहीं रहे।   शतायु में चल रहे सेठ के निधन के बाद उस दौर के गायकों में से अब हमारे बीच कोई भी नहीं रहा है।   बीते दिनों दिल्ली में बिना किसी को कोई तकलीफ दिए या खुद तकलीफ पाये उन्हों ने यकायक जीवन से विदा ले ली।    लाहौर में जन्मे और बड़े हुए विद्यानाथ सेठ का नाम आज की पीढ़ी के लिए शायद अजनबी हो मगर पिछली सदी के छठे दशक तक उनकी आवाज़ रेडियो और ग्रामोफोन रिकार्डों के जरिये घर - घर में गूंजती थी।   खासकर उनके गाये भजन तो पुरानी पीढ़ी के लोगों की जुबान पर आज भी हैं। " मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे ", " सुन लीजो प्रभु मोरी " , " मैं गिरधर के गुण गाऊं "   या ‘ चदरिया झीनी रे झीनी ’ जैसे भजन उनकी आवाज़ में जब कभी सुनने में आते हैं तो उस पीढ़ी के लोग साथ में गुनगुनाते हुए यादों के गलियारों में खो जाते हैं।    रेडियो और ग्रामोफोन रिकार्डों के उ