सामाजिक विवेक की शिक्षा
राजेंद्र बोड़ा
मैं अपनी बात इसी किताब के एक अंश से
करूंगा : “हम कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं या कोई अच्छी फिल्म देखते हैं या किसी दवा का
चमत्कारिक प्रभाव अनुभव करते हैं तो हमारा मन करता है कि जो मिले उससे कहें।” सच कहूं तो यही हाल उस पाठक का होता है जो यह
पुस्तक पढ़ता है। मेरा यह हाल है, शारदा जी का भी यही हाल है। इस किताब के
बारे में दूसरे को बताने की हमारी इसी व्यग्रता का नतीजा यह ‘संवाद’ है।
शिक्षा की दीक्षा-प्रशिक्षा की रूढ़ि पर शिक्षाविद शिवरतन थानवी हमेशा सवाल खड़े करते रहे हैं।
उनकी किताब ‘सामाजिक विवेक की शिक्षा’ ऐसे समय में आई है जब बाजारवाद के दौर
में शिक्षा कारोबार बनती जा रही है। पुस्तक थानवी जी के उन लेखों का संकलन है जो
समय-समय पर देश के विभिन्न
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपे हैं। संकलन के लेख भले ही विगत के वर्षों में लिखे गए और प्रकाशित हुए मगर वे आज भी
प्रासंगिक हैं क्योंकि जिन मुद्दों पर उन्होंने बातें की हैं वे आज और अधिक विकरालता के साथ हमारे
सामने उपस्थित हैं।
आज के माहौल में जब शिक्षा पूरी तरह
कारोबार का रूप ले चुकी है यह किताब शिक्षक प्रशिक्षण पर जबर्दस्त हमला
करती हुई कहती है : “प्रशिक्षण बिना कोई भी शिक्षक सही शिक्षक नहीं हो सकता, इस मिथ्या धारणा को अब दूर करने का वक़्त आ गया है।...एक समय में मुफ्त
दिया जाने वाला शिक्षक प्रशिक्षण आज भारी उद्योग बन गया है।...ये (बी एड) कॉलेज अनियमितताओं
व भ्रष्टाचार के गढ़ बन चुके हैं।...प्रतिवर्ष अस्सी हज़ार लोग अध्यापक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और नियुक्ति नहीं मिलती आठ हज़ार को भी। वर्ष दर वर्ष हताशा
की बेतहाशा वृद्धि होती है।”
‘सामाजिक विवेक की शिक्षा’ वाले आलेख में वे याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के
संवाद की याद दिलाते हुए कहते हैं “या तो पश्चिम में प्लेटो द्वारा बताए गए सुकरात के संवाद प्रसिद्ध हैं या भारत
में उपनिषदों के संवाद प्रसिद्ध हैं”। उनका कहना है “संवाद-प्रियता न हो तो सही शिक्षा और
आजीवन शिक्षा संभव ही नहीं है। संवादप्रिय बनना सीखना भी शिक्षा का और आत्म शिक्षण का एक अत्यंत
महत्वपूर्ण चरण है। संवाद करना एक कसरत है और कला भी है”। थानवी जी के इसी
कथन को आज इस संवाद के जरिये हम जीवंत कर रहे हैं।
पुस्तक के लगभग सभी अध्यायों में शिक्षा के विभिन्न आयामों पर बात
की गई है परंतु एक धागा जो लगभग सभी लेखों में मौजूद है वह है शिक्षक। शिक्षक अपने
जीवन में, अपने व्यवहार में और अपने
कौशल में कैसा हो इसका सरोकार किताब में हर कहीं साफ तौर पर झलकता है। वर्तमान के सरकारी ढांचे वाले
शिक्षक जो बाबू की तरह व्यवहार करते हैं और अपने काम वैसे ही आलस्य के साथ अंजाम
देते हैं उनसे लेखक राजी नहीं है। वे यह तर्क स्वीकार नहीं करते कि सरकारी ढांचे
में शिक्षक कुछ नहीं कर सकता। वे कहते हैं “शिक्षा तत्व का पूरा ध्यान
देने वाले कोई शिक्षक होंगे तो उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वे पढ़ाने का रास्ता
भी बना लेंगे और सरकारों को भी झुका देंगे। वे अपने विद्यार्थियों में सामाजिक
आर्थिक यथार्थ की आलोचनात्मक समझ भी पैदा करेंगे और भेदभाव तथा अन्याय के खिलाफ खड़ा
होने की समझ व रास्ते पैदा करेंगे”।
शिक्षकों को उनकी सीख है : “शिक्षक का धर्म शिक्षा है। धार्मिक पाठ नित्यकर्म की तरह भले हो, स्वाध्याय उससे आगे है।
गीता-पुराण-कुरान आदि धार्मिक ग्रंथ भी स्वाध्याय का अंग हो सकते हैं बशर्ते आपका
दिल-दिमाग परिपक्व हो गया हो, अन्यान्य ग्रन्थों का अनवरत अध्ययन करते रहना आपके स्वभाव में आ गया हो। धार्मिक ग्रन्थों को साहित्य की तरह आप पढ़ते हैं और ज्ञान की दृष्टि से
विवेचना करते हैं तो मूढ़मति नहीं बनेंगे। अंधविश्वासी कदापि न बनें। शिक्षक हैं तो
आगे बढ़ें, आगे बढने की दृष्टि से चिंतनशील पाठक बनें। प्रगतिशील शिक्षक बनें।”
किताब का लेखक खुद उसी भूमिका में है
जिसमें वह एक शिक्षक के होने की अपेक्षा करता है : “शिक्षक का दूसरा नाम व्याख्याता है। व्याख्याता शब्द क्यों आया ? क्योंकि वह पाठ की व्याख्या करता
है। अर्थ खोल कर बताता है। पाठ के मर्म के भीतर एक विद्यार्थी को पहुंचाता है।” यही काम शिवरतन थानवी
अपनी इस पुस्तक में करते हैं।
उनका किसी से नकार भी नहीं है। कोई रिजेक्सन नहीं है। इसलिए कई जगह वे
धारा के विरुद्ध जम कर अपनी बात कहते हैं। वे पूछते हैं : कुंजियों और पासबुक में
बुराई क्या है? मैं तो समझता हूं कोचिंग
कक्षाओं की बजाय, या कोई कैसी भी
प्राइवेट ट्यूशन लेने की बजाय, कक्षा में शिक्षक को ध्यान से सुनना, समझना और पूछना, तथा घर पर आकर कुंजी, पासबुक या रिफ्रेशर कोर्स
की किताब के माध्यम से दोहराना, पक्का करना, अधिक अच्छा है।... परीक्षाओं में प्रश्नों का जो रूप होता है उसके अनुसार विधिपूर्वक ये सहायक
पुस्तकें तैयार की जाती है, जिन्हें हम कुंजियाँ और पासबुकें कहते हैं, जो पाठ्य पुस्तकों की पूरक पुस्तकों का काम करती हैं। क्या बुराई है इनमें, सोचिए ज़रा आप?”
यह किताब शिक्षा के प्रति हमें एक समग्र
समझ देती है। शिक्षा की समस्याओं का जिक्र करते हुए लेखक कहता है: “यह भी एक समस्या है शिक्षा की। (अब तक) न हम सहिष्णु हुए, न उदार हुए और न ही हम समझदार हुए”।
बार-बार उठने वाली नैतिक शिक्षा की मांग पर किताब हमें सावचेत करती है: “हर आदमी का अपना अतीत होता
है, अपना अध्ययन, दृष्टि और विश्वास होता है।
जो सावधान न रह तो तो पूर्वाग्रह भी बन जाता है। ये जो मांगें उठीं या अपेक्षाएँ
की गईं वे सब अपनी-अपनी दृष्टियों की उत्पत्ति थीं। मूल्यों की शिक्षा को तो
एनसीईआरटी ने भी हवा दी, बिना यह सोचे कि जहां
शिक्षा है वहां मूल्य तो होंगे ही। अलग से उनकी बात करना या तो धार्मिक शिक्षा की
तरफदारी की ओर बढ़ना है या शिक्षा प्रक्रिया की समूची प्रणाली को को ही कमजोर बनाना है”।
किताब में लगता है कोई ऋषि बोल रहा है जो
जटिल से जटिल बात सरल तरीके से आपके सामने रख रहा है।
वर्तमान शिक्षा की बीमार हालत पर
उनकी टिप्पणी देखिये : समाज पहले
बीमार है, शिक्षा बाद में बीमार है।
इसलिए शिक्षा बदल देने से समाज नहीं बदल जाएगा। समाज बदलेगा तब शिक्षा भी बदलेगी।
बड़े-छोटे का भाव ही बुरा है। यह भाव पैदा करने वाली समाज प्रणाली तथा शिक्षा
प्रणाली ही बुरी है। और इसी भाव के विद्यमान रहने के कारण समाज भी बीमार है और
शिक्षा भी बीमार है।
यह ऋषि एक क्रांतिकारी के रूप में भी इस
किताब में उपस्थित है। वह कहता है “शिक्षा यदि समाज के विकास का अंग है तो वह राजनीति से तटस्थ नहीं रह सकती।...
राजनीति को समझना भी जागना है जैसे अर्थतन्त्र को समझना, मौसम या मनोविज्ञान को समझना। राजनीति के मन और मौसम की जानकारी हुए बिना
समाज में परिवर्तन कैसे आयेगा? विकास कैसे होगा? शिक्षा का अर्थ ही यही है कि पूरा समाज जागरूक रहे जिसमें व्यक्ति भी शामिल
है, नागरिक भी शामिल है और शासक भी”।
सत्ता के केंद्र के इर्द-गिर्द बना रहने
वाला सुविधा सम्पन्न वर्ग अभी जिस तरह व्यवहार करता है उसकी तरफ इशारा करते हुए
लेखक पब्लिक स्कूलों के अस्तित्व और प्रमाणपत्रों के वर्चस्व पर जबर्दस्त चोट करता
है। वह कहता है : “सुविधासंपन्न वर्ग को प्रमाण पत्रों से ज्यादा लाभ है क्योंकि समान अवसर का
ढिंढोरा पीटता-पीटता वह वर्ग समाज के कमजोर लोगों के बच्चों को वांछित स्तर के अंक व डिवीजन न होने के कारण, लगातार पीछे धकेलता रहता
है। विकास की कुंजी पर उसी वर्ग का कब्जा बना रहता है।...यह बीमारी सारे समाज की
बीमारी है क्योंकि उस पर कब्जा उनका है जो कोई फेर-बदल नहीं चाहते। समाज पर
कब्जे की बात कक्षाओं में न सिखाने का उपदेश हमारे शिक्षा शास्त्री सत्ता की चाकरी
के वशीभूत होकर बार-बार देते रहते हैं। सत्ताधीश भी विद्यार्थियों से कहते हैं‘राजनीति से दूर रहो’, यह नहीं कहते कि‘जागते रहो।’राजनीति को समझना भी जागना है जैसे सुनीति और
दुर्नीति को समझना जागना है।”
यह क्रांतिकारी ऋषि यहीं नहीं रुक जाता।
वह कहता है “सत्ता में आते ही बुद्धि का रंग बदलने लगता है। पैसे की सत्ता से भी, पद की सत्ता से भी, उम्र की सत्ता से भी, सम्बन्धों की
सत्ता से भी और सबसे ऊपर राज की सत्ता से भी। इसलिए नागरिक को पहला काम यही करना चाहिए कि वह‘अराजकतावादी’बने। अर्थात पद, पैसे, उम्र, संबंध और राज की सत्ता को
कहीं भी जमने नहीं दे। किसी को किसी पर राज न करने दे। सत्ता पाकर राज करने की भावना शोषण और दमन को जन्म देती है। इसलिए कोई
किसी पर राज करे इस सिद्धान्त का ही वह मूल रूप से विरोधी हो। आजीवन विरोधी
रहे।...‘अराजकतावादी’ का भाव जिसके अन्तःकरण
में होगा वह अनुशासन भंग करने वाले की पीड़ा का कारण भी जल्दी समझेगा। हो सकता है
जब अधिक लोग पीड़ा समझने वाले हों तब‘उछृंखल अराजकतावादी’होने की चाह कम हो जाएगी।”
थानवी जी कहते हैं सच्ची शिक्षा प्रणाली
में कच्चा-पक्का नहीं देखा जाता। अच्छा और सच्चा देखा जाता है...सच्ची शिक्षा ऊंची
डिग्री से नहीं आती। सच्ची मनुष्यता उजले कपड़ों से नहीं आती। सच्चा बड़प्पन डराने में
नहीं होता। सच्ची पंडिताई मंत्रों में नहीं होती। सच्चा इन्सान भाग्य और भगवान का
मुहताज कभी नहीं रहता। वे बड़े मजेदार तरीके से हमारी आँख खोलते हैं। वे कहते हैं :
“हमको हर आदमी डराता है। माता पिता डराते
हैं। गुरुजी डराते हैं। सेठ-साहूकार डराते हैं। पंडित-पुजारी, मुल्ला-मौलवी, साधु, फ़क़ीर भी डराते हैं। पंडित के हुक्म से ग्रह-नक्षत्र भी डराते हैं। देवी-देवता
भी डराते हैं। ओझे, सयाने और भोपे भी डराते है। हमने क्या बिगाड़ा है इनका ? ये लोग कदम-कदम पर हमें क्यों डराते हैं। असल में यह सब अधूरी पढ़ाई के कारण
होता है। अधूरी शिक्षा के कारण होता है... ये सब अधूरे विश्वास हैं।
किताब सहज-सरल भाषा में पाठक को बेहतरी के लिए – बेहतर इंसान बनाने के लिए उकसाती
है। जैसे हम अपने चेहरे को दर्पण में देखते हैं।
उससे कभी-कभी तो व्यक्तित्व में जैसे निखार आ सकता है वैसे ही अपने आचरण, धंधे और समाज के प्रति अपने कर्तव्य को
भी कभी दर्पण दिखा दिया करें तो समाज को ऊंचा उठते कोई देर नहीं लगेगी। हम नागरिक
हैं तो नागरिक का कर्तव्य भी हमें निभाना चाहिए। नागरिक का मतलब है सभ्य। नागरिक
का मतलब है सामाजिक।
पुस्तक में शुरू से आखिर तक में कोई कथा
धारा नहीं है। किताब उठाइये उसका कोई भी अध्याय खोल लीजिये और पढ़ना शुरू कर दीजिये। हर बार एक नई समझ
बनेगी, आँख खुलेगी और लगेगा लेखक जो कह रहा है वह असंभव नहीं है। उसे निभाया जा सकता
है और हमारा परिष्कार करने वाली शिक्षा दी जा सकती है।
मैं तो कहूँगा हम में से हर एक को - हर एक शिक्षक, विद्यार्थी, माता-पिता – को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी
चाहिए तथा हर घर, हर विद्यालय और हर वाचनालय में यह
पुस्तक अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
(राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति और संधान ने मिल कर जो संवाद आयोजित
किया उसमें दिया गया शुरुआती वक्तव्य)
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