बीते युग की अंतिम आवाज़ भी चुप हो गई
राजेंद्र बोड़ा
संगीत के बीते सुनहरे दौर के गायक विद्यानाथ सेठ नहीं रहे। शतायु में चल रहे सेठ के निधन के बाद उस दौर के गायकों में से अब हमारे बीच कोई भी नहीं रहा है। बीते दिनों दिल्ली में बिना किसी को कोई तकलीफ दिए या खुद तकलीफ पाये उन्हों ने यकायक जीवन से विदा ले ली।
लाहौर में जन्मे और बड़े हुए विद्यानाथ सेठ का नाम आज की पीढ़ी के लिए शायद अजनबी हो मगर पिछली सदी के छठे दशक तक उनकी आवाज़ रेडियो और ग्रामोफोन रिकार्डों के जरिये घर-घर में गूंजती थी। खासकर उनके गाये भजन तो पुरानी पीढ़ी के लोगों की जुबान पर आज भी हैं। "मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे", "सुन लीजो प्रभु मोरी" ,
"मैं गिरधर के गुण गाऊं" या ‘चदरिया झीनी रे झीनी’जैसे भजन उनकी आवाज़ में जब कभी सुनने में आते हैं तो उस पीढ़ी के लोग साथ में गुनगुनाते हुए यादों के गलियारों में खो जाते हैं।
रेडियो और ग्रामोफोन रिकार्डों के उस सुनहरी दौर के इस सहज और सरल गायक ने अपने गायन को कभी व्यावसाय नहीं बनाया भले ही वे रेडियो पर गाते रहे, एचएमवी के लिए गाते रहे और संगीत सभाओं में गाने के लिए भी जाते रहे। फिल्मों में गाने के लिए भी
उनको खूब बुलावे आये मगर परिवार को छोड़ कर मुम्बई या कोलकाता जाने का कभी मन नहीं हुआ।
तब के प्रमुख
संगीतकार पंडित गोबिन्द राम ने खुद उन्हें बुलावे भेजे मगर वे बंबई नहीं गए। सिर्फ एक फिल्म 'रूप रेखा' (1948) में उन्होंने पांच गाने गाये। फिल्म के संगीतकार उनके साथी रवि रॉय चौधरी थे जिनका आग्रह वे नहीं टाल सके। वास्तवमें इस फिल्म के लिए
अपने गाने
उन्होंने खुद ही कंपोज़ किये और गाये थे। उनके पांच में से तीन एकल गाने थे, एक में उनकी सह गायिका थी मुनव्वर सुल्ताना और एक अन्य में उनके साथ मुनव्वर
सुल्ताना और सुरिंदर कौर ने आवाज़ दी।
गैर फ़िल्मी गानों में वे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ बने रहे। उनके गायन में एक विशेष प्रकार की सरलता थी अपने गायन में उन्होंने कभी कोई तिकड़म या उस्तादी दिखा कर चौकाने की कोशिश नहीं की। जब वे 98वें वर्ष में चल रहे थे तब जयपुर के संगीत रसिकों के एक समूह 'सुर यात्रा' के हमराहियों के साथ हम उनका इस्तेकबाल करने उनके घर दिल्ली गए थे जहां हमने उनकी ऐसी सरलता, सादगी और प्रफुल्लता देखी जो उनकी उम्र
के लोगों आम तौर पर नहीं मिलती। उन्होंने लोकप्रियता की बुलंदियां छुई मगर अहंकार को अपने पास फटकने नहीं दिया। पूरी ज़िन्दगी वे बालक की तरह सरल बने रहे। सरल, सादे और प्रफुल्लित जीवन से सरोबार विद्यानाथ सेठ एक नेक इंसान थे। इसीलिये उनकी गायकी सुनने वालों को सच्ची लगती थी। गायकी में भावों
की अभिव्यक्ति पर उनका
खास ज़ोर रहता था जिससे उनके गीत, ग़ज़ल व भजन सुनने वालों के दिलों में सीधे उतर जाते थे।
गैर फिल्मी गानों के लिए उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है
कि एचएमवी कंपनी ने अपने श्रेष्ठ गायकों के पोस्टरों की शृंखला में
विद्यानाथ सेठ को भी शामिल किया था। पुराने एचएमवी डीलरों के व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की दीवारों पर उनके पोस्टर फ्रेम में जड़े हुए लटके आज भी दिख जाते हैं।
प्रसिद्ध भजन गायक स्वर्गीय हरिओम शरण ने एक इंटरव्यू में स्वतंत्र पत्रकार संजय पटेल को बताया था कि उनके मन में जिस आवाज़ को सुन कर भजन गाने की प्रीति लगी वह विद्यानाथ सेठ की आवाज़ थी।
सेठ को बचपन से ही गाने का शौक था। स्कूल में वे प्रार्थना का नेतृत्व करते थे। कॉलेज पूर्व की अंतिम स्कूली क्लास के दौरान स्कूल के हैंड मास्टर साहब ने उन्हें सुझाया कि वे लाहौर में चल रहे गन्धर्व महाविद्यालय में भी भर्ती हो जाएं।
वहां संगीत की अकादमिक समझ हुई मगर किसी उस्ताद से कभी दीक्षित नहीं हुए। बक़ौल सेठ : “जो कुछ सीखा बड़े उस्तादों को सुन कर और उनकी सोहबत से ही सीखा”। जिन उस्तादों को बार-बार सुन कर सीखा उनमें पंडित ओंकार नाथ ठाकुर और फ़ैयाज़ खान प्रमुख थे। ठाकुर ग्वालियर घराने के विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्य थे और लाहौर गंधर्व
महाविद्यालय के प्रिंसिपल रहे जिन्होंने बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में
संगीत विभाग की स्थापना की। बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव गायकवाड के दरबार के गायक
फ़ैयाज़ खान जिन्हें‘ज्ञान रत्न’की उपाधि प्राप्त थी ‘महफिल के बादशाह’ कहलाते थे। “शास्त्रीय संगीत के ये दो दिग्गज गाते हुए बोलों को जिस तरह काटते थे वह मुझे बहुत भाती थी। मैंने
भी उनकी
इस शैली का उपयोग अपने गानों में किया”।
प्रसिद्ध संगीतकार फिरोज़ निज़ामी जो तब लाहौर रेडियो स्टेशन में काम करते थे ने उन्हें कुछ
सभाओं में सुना तो उनसे बोले “रेडियो पर क्यों नहीं गाते?”वे बोले रेडियो पर तो मैं किसी को नहीं जानता।
निज़ामी कहले लगे “मैं जो हूं”। इस प्रकार 1938 में सेठ का रेडियो पर पदार्पण हुआ। पहली बार रेडियो पर गाने पर
जो थ्रिल उन्हें हुआ होगा वह तब भी बरकरार था जब हम उनसे मिले। “उस जमाने में रेडियो पर एक गाने के पांच से सात रुपये मिलते थे। मुझे निज़ामी साहब ने 15 रुपये दिलाये। उन दिनों यह बहुत बड़ी रकम होती थी।
अमूमन हर हफ्ते एक गाना रेडियो पर गा लेता था। इस प्रकार महीने में चार गाने हो
जाते और मेरी जेब में 60 रुपये आ जाते। अपनी तो रईसी हो गई”।
लाहौर रेडियो स्टेशन पर उनकी ऐसी ख्याति हुई कि अन्य रेडियो स्टेशनों से
उन्हें बुलावे आने लगे। तब टेप रिकॉर्डिंग का युग नहीं आया था। दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, लखनऊ और जोधपुर जैसे स्टेशनों की तरंगों पर सवार हो
कर उनकी आवाज़ दूर दूर तक पहुंची। इसी बीच
उनके एक परिचित ने उन्हें बुलाया और इंश्योरेंस कंपनी में नौकरी दे दी। “बिना कोई एप्लीकेशन दिये मुझे नौकरी मिल गई”। बाद में यही कंपनी लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया कहलायी। उनकी पत्नी दिल्ली
में चिकित्सक थी और यह दंपती यहीं के हो कर रह गए।
ग्रामोफोन कंपनी के लिए उनकी पहली रिकॉर्डिंग भी उसी जमाने में 1938-39 में हुई। रिकॉर्ड पर मेरा पहला गाना था‘आवत मोरी गलियन में गिरधारी’। इस गाने के संगीतकार थे गुलाम अहमद चिश्ती जिन्हें
अब चिश्ती बाबा के नाम से पाकिस्तानी फिल्म संगीत के पितामह के रूप में जाना जाता
है। चिश्ती बाबा संगीतकार ख़ैयाम के भी गुरु रहे।
लाहौर के गंधर्व महाविद्यालय में उनके कुछ साथी शास्त्रीय संगीत
के बड़े उस्ताद बने जिनमें डी. वी. पलुस्कर। “वो मुझे अपना बड़ा भाई ही मानता था। नेक आदमी था। कमाल का गाता था”। बिहार और अमृतसर जैसी कईं जागहों पर हमने साथ-साथ गाया।
तब के और आज के संगीत में वे क्या फर्क महसूस करते हैं के जवाब में उनका कहना
था “तब सभी गाने रागों में होते थे। आज जैसे इधर-उधर का
धूम-धड़ाका नहीं होता था”।
अपने जमाने की कुछ यादें साझा करते हुए वे गायक के. एल. सैगल को याद करना नहीं भूलते। “हमारे शहर में सैगल की फिल्म‘माई सिस्टर’लगी। उसमें सैगल का जबर्दस्त मशहूर हुआ गाना था‘ऐ क़ातिबे तक़दीर मुझे इतना बता दे’था। जब पर्दे पर यह गाना फिल्म में आया तब हाल में दर्शकों ने खड़े हो कर तालियां बजाई मानो सैगल खुद सामने स्टेज पर हो। ऐसा किसी सिनेमा हाल में फिर कभी किसी के लिए नहीं हुआ”।
अपनी लंबी उम्र के अंतिम पड़ाव में भी किस भांति वे प्रसन्नचित्त और स्वस्थ रह
सके इसका राज़ उन्हों ने अपना एक कवित्त कह कर यों बताया: “कड़वी बात कभी न
करना/ मेरी बात पे ध्यान तुम धरना/ कोई नहीं सुनेगा, कोई सहेगा/ दुखी
रहोगे प्यारे”। इस कवित्त के अंत में उन्होंने कहा “दुख-दर्द और गम/इस
उम्र में न होंगे कम/ये जान ले मेरे प्यारे/ हिम्मत रख, दिल ना तोड़/ चलता चल भगवान सहारे/ वरना बूढ़ा होकर, घर में सो कर वचन सुनोगे खारे”।
इसी जीवन दर्शन से वे आखरी सांस तक जीवंत बने रहे किसी से कभी कोई शिकायत नहीं की। जो भी जीवन में होता गया उसे वे सहज रूप से लेते गए। आज
की पीढ़ी उनके नाम से नावाकिफ है इसका भी उन्हें कोई शिकवा नहीं रहा।
(यह आलेख दिनांक 14 जुलाई 2015 की जनसत्ता के रविवारी परिशिष्ठ के अंतिम पृष्ट की लीड के रूप में छपा)
Comments