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Showing posts from 2020

लता श्रुति संवाद: सिने संगीत के स्वर्णयुग में फिर लौटना

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  राजेंद्र बोड़ा लता मंगेशकर हिंदुस्तानी फिल्म संगीत की वे एक ऐसी गायिका है किनके कंठ में वीणावादिनी निवास करती है। उन्होंने अपने जीवन में कड़ी तपस्या से एक ऐसा मुकाम हासिल किया है जिसकी बराबरी शायद ही कोई कभी कर पाएगा। उनकी दोषरहित गायकी पर कभी कोई उंगली नहीं उठा सका। उन्होंने धन, यश और देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न जैसा मान सभी कुछ पाया। स्वर साम्राज्ञी के रूप में पूज्यनीय लता मंगेशकर पर अनेकों पुस्तकें लिखी जा चुकी है और पत्र-पत्रिकाओं में उन पर सदा ही कुछ न कुछ छपता ही रहता है। ऐसे में उनके बारे में कोई नई किताब लिखे तो स्वाभाविक रूप से पूछा जा सकता है कि इस गायिका के बारे में और क्या नया लिखा जा सकता है? मगर अजय देशपांडे की नई पुस्तक “लता श्रुति संवाद” इस धारणा को तोड़ती है कि लता,उनकी गायकी और उनके गानों के बारे में नया और क्या लिखा जा सकता है। देशपांडे साहब ने अपनी पुस्तक में लता की शुरुआती 17 वर्षों की संगीत यात्रा का, अपनी पसंद के 100 गानों के जरिये, विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। अजय देशपांडे ने 2019 में अपनी पहली पुस्तक “”कला संगम” (खंड-1) में भारतीय कला और संस्कृति क

एक पत्रकार का आत्मकथ्य: पेशे में आदर्शों के तिरोहित होने की पीड़ा

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                                पुस्तक चर्चा -     --                                                                राजेंद्र बोड़ा राजस्थान में पत्रकारिता की कहानी अब तक अकादमिक स्तर पर ही कही जाती रही है जो नीरस बोझिल आंकड़ों के जरिये शैक्षणिक जगत के लोगों के परचों में ही जगह पाती रही है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य में पत्रकारिता के विकास के लंबे सफर के राही – खुद पत्रकारों ने – अपनी कहानी कभी नहीं कही। उन्हें शायद लगता रहा कि वे तो दूसरों की कहानियां कहते हैं, अपनी कहानी क्या कहें ! ऐसे में सक्रिय पत्रकारिता में पूरी उम्र गुज़ार देने वाला कोई पत्रकार यदि अपने जीवन के बारे में लिखता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।            मेवाड़ में उदयपुर के छोटे से कस्बे कापासन में बीसवी सदी के पूर्वार्ध में जन्मे विजय भण्डारी ने अपना आत्मकथ्य “भूलूं कैसे” लिख कर अपने गुज़रे जीवन तथा पत्रकारिता के पुराने दौर को याद किया है। उनका यह आत्मकथ्य पत्रकारिता का इतिहास तो नहीं है मगर आने वाले समय में यदि कोई शोधार्थी राज्य के पत्रकारिता के विभिन्न काल खंडों का इतिहास लिखने बैठेगा तब उसके लिए “भूल

व्यक्तिगत अस्तित्व को सार्वलौकिक बनाने वाली कवयित्री को नोबेल

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  राजेंद्र बोड़ा     साहित्य के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार अमरीकी कवयित्री लुईस ग्लूक को दिया गया है। विश्व का यह सबसे बड़ा सम्मान देने वाली स्वीडिश अकादमी ने कहा है कि “ग्लूक की कविताओं की आवाज़ ऐसी है जिनमें कोई ग़लती हो ही नहीं सकती और उनकी कविताओं की सादगी भरी सुंदरता उनके व्यक्तिगत अस्तित्व को भी सार्वलौकिक बनाती है।” वर्ष 2010 से लेकर अब तक वह चौथी ऐसी महिला हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल पुस्कार मिला है। नोबेल की शुरूआत पिछली सदी के पहले वर्ष 1901 में हुई और तब से लेकर अब तक ग्लूक यह सम्मान पाने वाली 16 वीं महिला हैं। पिछली बार 1993 में अमरीकी लेखिका टोनी मरिसन को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। इस बार के पुरस्कार का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ग्लूक कोई गुमनाम कवियित्री नहीं है जिसे अचानक खोजा गया हो जैसा कि पहले अनेक बार हुआ है कि पुरस्कार मिलने के बाद ही कोई साहित्य का रचनाधर्मी अपने क्षेत्रीय दायरे से बाहर विश्व पटल पर आया हो। ग्लूक एक ऐसी सफल साहित्यधर्मी हैं जिनके नाम पहले ही ढेरों पुरस्कार और सम्मान दर्ज हैं। उनके नाम पुरस्कारों के अंबार में कुछ प्रमुख हैं: उनकी रचना '

कांग्रेस में अंतर्विरोध और अंतर्कलह, मगर संभाले कौन!

  -           राजेंद्र बोड़ा डेढ़ सदी से अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी में इस समय कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है । लगातार दो बार संसदीय चुनाव की हार और चंद राज्यों में उसकी सरकारों के सिमट जाने के बाद अब इस पार्टी में जो अंतर्कलह उभर कर सामने आ रही है वह लक्षण है उसमें आ रहे नेतृत्व के क्षरण का। बीते दो दशकों से अधिक समय से पार्टी की अध्यक्षता नेहरू-गांधी परिवार के ही पास रही है   जिसकी वजह से यह माना जाने लगा है कि अब पार्टी परिवार के ही इर्द-गिर्द घूमती है और परिवार के बिना शायद ही उसका कोई वजूद रहे । आज कांग्रेस अन्य राजनैतिक दलों से ऊंची पायदान पर नहीं है। वह भी अन्य राजनैतिक दलों की भांति एक सामान्य पार्टी हो कर रह गयी है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब उसमें नेहरू परिवार के नेतृत्व की पुरानी राजनीतिक समझ बदल गई है। नई पीढ़ी का नेतृत्व अपनी विरासत , अपनी परंपरा से कटा हुआ है। सोनिया गांधी , राहुल गांधी या प्रियंका वाड्रा के पास पुश्तैनी संबंधों की धरोहर तो है मगर हिंदुस्तान की राजनीति की समझ , लोकतान्त्रिक सोच तथा वैचारिक अनुभव की विरासत नहीं है। परिस्थितियों ने उन्हें राजनीति में वैसे ही ध

भारत के अमीर विश्व सूची में, मगर गरीबी नहीं मिट रही

राजेंद्र बोड़ा  सा रा मीडिया जगत इस बात के इंतजाम करता है कि हम उसकी इस सूचना से इतरा एं कि भारतीय व्यापार और उद्योग की हस्तियां विश्व के सबसे अधिक अमीरों की सूची में स्थान पा रहीं हैं। फॉरचून की अमीरों की नई सूची में 40 वर्ष से कम वय वाले तीन भारतीय युवाओं के नाम शामिल हैं। हालांकि उन्हें यह अमीरी पारिवारिक विरासत से मिली है। ऐसा माहौल बनाया जा ता रहा है कि नई अर्थ व्यवस्था के चलते देश की संपन्नता में इजाफा हो रहा है जिसके लिए सभी को उत्सव मनाना चाहिए। यह सच है कि दुनिया के अमीरों की सूची में शीर्ष स्थानों पर भारत के लोगों के नाम आने लगे हैं और सरकारी तंत्र से जुड़ा , खास कर शहरी इलाकों का , मध्यम वर्ग का सरकारी नौकरियां करता और अवकाशप्राप्त तबका और उनके साथ निजी सेवा क्षेत्र में लगे उत्साही युवा सुरक्षित वित्तीय संपन्नता की सीढ़ियां चढ़ र हे हैं और वह विलासिता की चीजों पर खर्च को बढ़ा कर बाज़ार की अपेक्षाओं को पूरा कर रहा है। गावों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का पैसा पहुंचाया जा रहा है जिससे बाज़ार को मदद मिलती रहे। मगर कोरोना महामारी तथा उससे निबटने के लिए हुए लॉक ड