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शिवरतन थानवी: एक संवादप्रिय शिक्षाविद् का चले जाना

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राजेंद्र बोड़ा शिक्षाविद् शिवरतन थानवी के निधन के साथ ही एक युग का अवसान हो गया। एक ऐसे युग का जिसमें संबंधों की ऊष्मा बनाये रखते हुए गहरी बहस की गुंजाइश बनी रहती थी। वे कहते थे "संवाद-प्रियता नहीं हो तो सही शिक्षा और आजीवन शिक्षा संभव ही नहीं है। संवादप्रिय बनना सीखना भी शिक्षा का और आत्म-शिक्षण का एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है। संवाद करना एक कसरत है और कला भी है"। संवाद की यह कला दो पीढ़ियों को उनसे मिली। उन्होंने हमें जीवन के सरोकारों को समझने के लिए लगातार शिक्षित किया। शिक्षा की दीक्षा-प्रशिक्षा की रूढ़ि पर शिवरतन   थानवी   हमेशा सवाल   खड़े करते रहे हैं। उन्हें हमने हमेशा एक ऐसे शिक्षक की भूमिका में पाया जो दुर्गम रास्तों में हमें भटकने से बचाने के लिए हमारा मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने हमें शिक्षा के प्रति एक समग्र समझ दी। उनका मानना था कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या यह है कि “अब तक न हम सहिष्णु हुए , न उदार हुए , और न ही हम समझदार हुए”। शिक्षा जरिये वे पूरे समाज को जागरूक रखना चाहते थे जिनमें “नागरिक भी शामिल हों और शासक भी”। वे राजस्थान

भारत बंद का सबक

राजेंद्र बोड़ा  पिछड़ी जातियों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने वाले कानून पर आये सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से आहत विभिन्न दलित संगठनों के आह्वान पर आज का ‘ भारत बंद ’ इस देश से प्रेम रखने वालों सभी लोगों के लिए चिंता का विषय है। आज के हंगामे के बीच केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर के आग्रह किया है कि वह अपने उस आदेश पर फिर से विचार करे जिसके तहत अनुसूचित जातियों और जन जातियों पर अत्याचार रोकने वाले कानून में उसने बदलाव किए हैं। अदालत ने मुख्यतः कहा था कि इस कानून के तहत किसी भी जन सेवक (सरकारी मुलाजिम) पर उसके नियुक्ति अधिकारी के अनुमोदन के बिना मुकदमा न दायर किया जाय और अन्य नागरिक भी कानूनी जांच के बाद ही गिरफ्तार किया जाय।   मगर चिंता इस बात की है कि देश में जैसा माहौल आज है वह सामाजि क समरसता वाले रिश्तों को मजबूत बनाने के संविधान की भावना को ठेस पहुंचाता है। कुछ चीजें साफ-साफ समझनी होगी। आज देश के हर वर्ग में बेचैनी है। आज के बंद के आह्वान के पीछे भी यही आम बेचैनी है भले ही वह एक वर्ग विशेष की अपनी सुरक्षा के लिए प्रतिरोध के रूप में सामने आई हो। आ