राजेंद्र बोड़ा
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राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल शमशाद बेगम को पद्मश्री
अलंकरण प्रदान करती हुई |
गायिका शमशाद बेगम वह कड़ी थी जो गुजरे ज़माने के साथ हमें जोड़े रखे हुई थीं। उनके चुपके से इस दुनिया से विदा होने के साथ ही यह कड़ी टूट गई है। हिन्दुस्तानी फिल्मों को उसकी अलग पहचान उसके संगीत ने दी। और हिंदुस्तानी फिल्म संगीत को जिन आवाज़ों ने बुलंदियां दीं उनमें एक प्रमुख नाम रहा शमशाद बेगम का जिनकी खनकदार आवाज़ के जादू का प्रभाव समय की दूरियाँ भी नहीं मिटा सकी हैं।
वर्ष 1931 में ‘आलमआरा’ से हिंदुस्तानी फिल्मों को आवाज़ मिली। मूक से सवाक् फिल्म के बदलाव का सफर गानों के साथ शुरू हुआ जो आज भी जारी है। 1930 के दशक की फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर में वजनदार आवाज़ों का ज़ोर था। रोशनआरा बेगम, कज्जन बाई, वहीदन, हमीदा बानो आदि के साथ अमीरबाई कर्णाटकी, ज़ोहराबाई अंबालावाली, कानन देवी और सुरैया अपनी धाक जमा रहीं थीं तभी दो बुलंद आवाज़ें आते ही सब पर छा गईं वे थीं – नूरजहाँ और शमशाद बेगम की।
हिंदुस्तानी फिल्मों का शुरुआती दौर का 1940 का दशक। कुंदनलाल सैगल को छोड़ दें तो गानों महिला गायिकाओं का ही बोलबाला रहा। गायिकाएँ पुरुष गायकों से एक कदम आगे ही रहीं। वे पुरुषों की बराबरी में बुलंद आवाज़ में गा रहीं थी। ऐसे में नूरजहां और शमशाद बेगम ने ऐसी मिठास घोली जिसका स्वाद आज भी बरकरार है।
हिंदुस्तानी फिल्म संगीत के “अंतिम मुगल” कहे जा सकने वाले संगीतकार नौशाद के शब्दों में “शमशाद बेगम की आवाज़ खंजर की ऐसी तेज धार की तरह थी जो सुनने वाले के सीने में सीधे उतर जाती थी।”
हिंदुस्तानी फिल्म संगीत में एक अलग घराने के रूप में प्रतिष्ठित ओंकार प्रसाद नैयर को शमशाद बेगम की आवाज़ में मंदिरों में बजती घण्टियों की ध्वनि सुनाई देती थी।
शमशाद बेगम की आवाज़ की पाकीज़गी में भरपूर ओज था। उसमें भावनाओं के ज्वार था, खुशी का उल्हास था, दर्द का एहसास था। उनकी आवाज़ में सुरों का ऐसा तीव्र झरना फूट पड़ता था जिसमें कोई सुनने वाला बह जाने से बच नहीं सकता था।
खुदा की यह नियामत 12 भाई बहनों के मुस्लिम जाट परिवार में 14 अप्रेल 1919 को लाहौर के लुहारी मंडी इलाके में जन्मी उस बच्ची को मिली जहां संगीत की कोई परंपरा नहीं थी। शमशाद बेगम के परिवार में उनके चाचा अमीरुद्दीन को छोड़ कर किसी को संगीत का शौक नहीं था। हिंदुस्तानी फिल्म संगीत को शमशाद बेगम की सौगात नहीं मिल पाती यदि उनके इस चाचा ने अपने भाई को किसी प्रकार मना कर 13 वर्ष की बच्ची से ज़ीनो फोन रिकार्ड कंपनी का परिचय नहीं कराया होता। कंपनी के संगीत निर्देशक मास्टर गुलाम हैदर ने उसे सुनते ही 12 गाने रिकार्ड करने का अनुबंध कर लिया। एक गाने के लिए साढ़े बारह रुपये देने का रिकार्ड कंपनी ने करार किया। इस तरह 1939 में शमशाद बेगम का पहला गाना जो रिकार्ड पर जारी हुआ वह एक भजन था ‘जय जगदीश हरे’जिस पर गायिका के रूप में उनका नाम छपा उमा देवी। दूसरा गाना पंजाबी में था ‘हथ जोड़िया पंखिया दा, कसम खुदा दी’। गाना इतना अच्छा रिकार्ड हुआ कि इस गाने के साढ़े बारह रुपये के मेहनताने के अलावा शमशाद बेगम को छह रुपये ऊपर से इनाम में मिले।
वैसे उन्हों ने लाहौर रेडियो स्टेशन पर गुलाम हैदर के संगीत में बहादुर शाह जफर की गज़ल ‘मेरा यार गर मिले मुझे जान दिल फिदा करूँ’ गाकर स्वर परीक्षा दी थी। फिर 1934 में ‘किस्मत का शिकार’ फिल्म में दो गाने गाये।
शमशाद बेगम हिंदुस्तानी फिल्मों में जबर्दस्त धूम मचाने के लिए 1944 में स्थायी रूप से बंबई आ गई। मगर उससे पहले लाहौर में वे अपना ऐसा डंका बजा चुकी थी जिसकी गूंज सारे देश में सुनाई पड़ी थी। पंचोली आर्ट की ‘यमला जट्ट’(1940), चौधरी (1941) पंजाबी फिल्मों के बाद लाहौर से उनके गानों से सजी छह हिंदुस्तानी फिल्में आईं – खजांची (1941), खानदान (1942), जमींदार (1942), पूंजी (1943), कैसे कहूं (1945) और शीरीं फरहाद (1945)। गुलाम हैदर के संगीत से सजी ‘खजांची’ वह फिल्म है जिसके बारे में माना जाता है कि उसने हिन्दुस्तानी फिल्म संगीत में मेलोड़ी की ऐसी धारा बहाई जिसमें समूचा अविभाजित हिंदुस्तान भीग गया। इस धारा को बहाने में गुलाम हैदर ने पंजाबी खनक, उर्दू की मिठास वाली और साथ में नौजवान पीढ़ी की शोख़ी और अल्हड़पन का प्रतिनिधित्व करने वाली शमशाद बेगम की आवाज़ की मदद ली। शमशाद बेगम की आवाज़ का ऐसा जादू चला कि महबूब जैसा निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म ‘तकदीर’ (1943) में शमशाद बेगम से गाने गवाने के लिए बंबई से चल कर लाहौर गए। वे प्रति गाना 300 रुपये के अनुबंध पर शमशाद बेगम को लेकर बंबई आए। इसके बाद नवयुग चित्रपट की फिल्म ‘पन्ना’ (1944) के गीत गाने के लिए वे फिर बंबई आईं। तब तक गुलाम हैदर भी बंबई आ चुके थे। बाद में यह गायिका स्थायी रूप से बंबई में ही बस गई। देश के बंटवारे पर शमशाद बेगम के परिवार के सभी सदस्य और गुलाम हैदर भी पाकिस्तान जा बसे लेकिन शमशाद बेगम यहीं रह कर फिल्म संगीत के आकाश में अपनी चमक बिखेरती रहीं।
बंबई में गुलाम हैदर के निर्देशन में ‘चल चल रे नौजवान’ (1944), ‘फूल’ (1945), और ‘हुमायू’(1945) जैसी कई फिल्मों में गाने गाये। ‘सावन के नज़ारे हैं’और ‘एक कली नाज़ों की पली’(खजांची/1941), ‘दुनिया में गरीबों को’(जमींदार/1942), ‘गाड़ीवाले दुपट्टा उड़ा जाये’(पूंजी/1943) आज भी याद किए जाते हैं।
नौशाद के संगीत में शमशाद बेगम को देखिये: ‘हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे’(दर्द/1947), ‘धरती को आकाश पुकारे’(मेला/1948), ‘चाँदनी आई बन के प्यार’(दुलारी/1949), ‘धड़के मेरा दिल मुझको जवानी राम कसम ना भाए’, ‘मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का’और छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा (बाबुल/1950), ‘गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे’और ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’ (मदर इंडिया/1957) और ‘तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे’(मुगले आज़म/1960)।
शमशाद बेगम की आवाज़ में ओ.पी. नैयर के मोती भी कमतर नहीं हैं: ‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र’ (आर पार/1954), ‘बूझ मेरा क्या नाम रे नदी किनारे गाँव रे’और ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’(सीआईडी/1956), रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’(नया दौर/1957)।
हिन्दुस्तानी फिल्मों में आधुनिक ऑर्केस्ट्रेशन को बढ़ावा देने वालों में प्रमुख सी.रामचन्द्र ने तो उनसे खूब अल्हड़ गाने गवाए। ‘आना मेरी जान संडे के संडे’(शहनाई/1947) के अलावा ‘टम टम से झाँको ना’(नमूना/1949) और ‘नमस्ते नमस्ते’(पतंगा/1949) आज भी लोगों के पाँवों में थिरकन पैदा कर देते हैं।
उन्होंने 577 हिन्दी फिल्मों में करीब 1300 गानों के अलावा 54 पंजाबी, तीन राजस्थानी, दो भोजपुरी और दो हिन्दी फिल्मों के तमिल संस्कारण के लिए गाने गाये। शमशाद बेगम ने हिंदुस्तानी फिल्मों में आखरी बार 1981 में प्रेम धवन के निर्देशन में फिल्म ‘गंगा मांग रही बलिदान’ के लिए गाया। उन्हों ने गैर फिल्मी गानों में गीत, गज़ल, भजन, नात और मर्सिया भी गाये। पश्तो भाषा में भी उनके चार गैर फिल्मी गीत होने की जानकारी मिलती है।
उन्होंने बेरिस्टर गणपतलाल बट्टो से विवाह किया जिनसे उनके एक पुत्री है। उनके पति का निधन 1956 में ही हो गया। वे अपनी पुत्री उषा और दामाद योगराज रात्रा के साथ ही मुंबई में रहती थीं। वहीं इस अमर गायिका ने अपनी आखरी सांस ली।
शमशाद बेगम ने सभी नामचीन संगीतकारों के साथ काम किया। गुलाम हैदर के अलावा प. अमरनाथ, प. गोबिंदराम, हुस्नलाल भगतराम, खेमचंद प्रकाश, श्याम सुंदर, सी. रामचंद्र, ओ. पी. नैयर, एस. डी. बर्मन, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, रोशन और नौशाद सभी ने अपने संगीत को सजाने में इस आवाज़ की मदद ली।
देश के विभाजन के बाद नूरजहां के पाकिस्तान चले जाने के बाद बुलंद मगर खनकदार आवाज़ की परंपरा शमशाद बेगम से ही बनी रही। मगर हिन्दुस्तानी फिल्म संगीत की स्त्री आवाज़ें कोमल होती चली गई। ग्रामीण लोक संगीत से शुरू हुआ हिन्दुस्तानी फिल्म संगीत का सफर शहरी कोमलता लेने लगा क्योंकि शहरी नायिकाएँ कोमलतर होतीं चली गई जिनकी आवाज़ बन गई लता मंगेशकर।
यह सवाल उठता है कि शमशाद बेगम के ऊरूज़ पर होने के बावजूद क्यों संगीतकारों नें 1950 के दशक के मध्य उनसे किनारा करना शुरू कर दिया? क्यों सभी 1949 के बाद लतामय हो गए? शमशाद बेगम जो 15 वर्षों से लगातार शिखर पर थीं, तब, उम्र दराज भी नहीं हुई थीं। कारण शायद यही रहा कि हिंदस्तानी फिल्मों की नायिका का रूप बदल गया। उसमें मजबूती नहीं रही। उसकी आवाज़ में दम नहीं रहा।
गायन के शिखर पर डेढ़ दशक तक बने रहने के बावजूद शमशाद बेगम में कभी अहंकार नहीं आया। उनका किसी के साथ कभी मतभेद नहीं हुआ। वे संगीतकार जिन्होंने उनकी आवाज़ के जरिये बुलंदियां छुई वे उनसे दूर हो गए तो भी उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं रही।
भले ही 1960 के दशक और उसके बाद शमशाद बेगम की आवाज़ फिल्मों में बहुत ही कम सुनाई दी मगर तब तक वे जो कुछ गा चुकी थीं उसने उन्हें हमेशा लोगों के दिलों में बनाए रखा। इक्कीसवीं सदी में जब रीमिक्स का ज़माना आया तो शमशाद बेगम के गाये पुराने गाने ही फिर गूँजे चाहे वह ‘कजरा मोहब्बत वाला’(किस्मत/1968) हो या ‘आना मेरी जान संडे के संडे’(शहनाई/1947) हो।
प्रचार से वे हमेशा दूर ही रही। तब भी जब 140 के दशक में उन्हें एक गाने के दो हज़ार रुपये मिल रहे थे और लता मंगेशकर तो 300 रुपये। उनका कोई सार्वजनिक फोटो भी 1970 में जाकर खिंचा। उन्होंने चुपचाप और भीड़ से दूर ज़िंदगी जीना पसंद किया। वर्ष 2009 में जब उन्हें पद्मश्री पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई तब कई लोगो को यह जान कर ताज्जुब हुआ कि वे जीवित थीं। 93 वर्ष की आयु पाकर पिछले दिनों वे चुपचाप इस दुनिया से चली गईं। मगर अपने पीछे छोड़ गई अपने गाये गानों की महक जो पीढ़ियों बाद भी हल्की नहीं पड़ेगी।
मशहूर शाइर नक्श लायलपुरी ने चंद्रकांत मोहनलाल की बड़ी मेहनत और लगन से लिखी किताब “खनकती आवाज़: शमशाद बेगम” (2008) में इस गायिका पर एक शेर लिखा था : “गज़ल के दिलरुबा लहजे में बोले/ जो सुर छेड़े शहद कानों में घोले/ तेरी आवाज़ में जादू है जैसा/ हजारों ज़िंदगी के राज़ खोले”।
शमशाद बेगम की आवाज़ का यह जादू समय के साथ हमारे सिर पर और अधिक चढ़ता ही जाता है।
(यह आलेख जनसत्ता के रविवारी अंक में पांच मई 2013 को प्रकाशित हुआ)
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