सिने मायावी आई. एम. कुन्नू


राजेंद्र बोड़ा

राजस्थान की प्रतिभाओं ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है, अपनी धाक जमाई है और कीर्तिमान कायम किए हैं. मगर हमें उनका मोल करना नहीं आता. शासन और समाज दोनों इस प्रदेश की अपनी कई विभूतियों से विरक्त नज़र आते है. लगता है उन्हें अपने ही गुणीजनों की पहचान नहीं है या जानकारी नहीं है. ऐसी ही एक शक्सियत है आई. एम. कुन्नू जो अपने फन के माहिर है मगर उनको उनके घर-प्रदेश के लोग ही नहीं जानते. टोंक के निवासी कुन्नू ने साठ सालों तक मुंबई में इतनी हिन्दी, गुजरती और राजस्थानी फिल्मों का संपादन किया है कि उनका नाम शीघ्र ही गिनीज बुक आव रेकॉर्ड्स में शामिल होने वाला है. मुंबई की फ़िल्म एडिटर्स असोसिएशन अपने इस पूर्व अध्यक्ष के काम की सारी जानकारी एकत्र कर फ़िल्म एडिटिंग का विश्व कीर्तिमान उनके नाम कराने का उद्यम कर रही है. कुन्नू विश्व के एकमात्र ऐसे फ़िल्म संपादक हैं जिन्होंने पाँच सौ से अधिक फिल्मों को अपने संपादन से संवारा. इनमें आठ विदेशी फिल्में भी शामिल है.

अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव में कुन्नू जिन्हें फिल्मी दुनिया में सभी लोग इज्ज़त और प्यार से 'दादा' कहते हैं अब फिल्मों से सन्यास लेकर अपने घर टोंक लौट आए हैं. मगर राजस्थान के लोग ही उनसे नावाकिफ है.

साठ साल पहले बम्बई जाने वाली भीड़ अधिकतर अभिनेता बनने का सपना लिए हुए होती थी तब कुन्नू ने फ़िल्म एडिटर बनने का फ़ैसला किया. उनके भाई ए. करीम फ़िल्म निर्देशक थे जिन्होंने कुन्नू को अपना सहायक बना लिया. यह १९४३ की बात है. कुन्नू ने देखा कि ऐक्टर तो निर्देशक के इशारों पर काम करता है और निर्देशक जो शूट करता है उसे एडिटर संजोता है, ठीक करता है तो उन्होंने एडिटर बनने की ठानी.

फिल्मों की जब बात की जाती है तो उसके बाकी सभी पक्षों की तो चर्चा होती है मगर एडिटिंग की कला आर कोई बात नहीं करता. फ़िल्म संपादन एक ऐसी कला है जिसे समझ पाने में दर्शक मुश्किल पाता है. हांलाकि सभी जानते हैं कि जब भी फ़िल्म में एक दृश्य से दूसरा दृश्य आता है वह एडिटिंग ही होती है. मगर संपादक का काम केवल दृश्यों को जोड़ना भर नहीं होता. संपादक पूरी फ़िल्म को उसकी रिदम देता है उसे फ्लो देता है. मगर आम दर्शक ही क्यों फ़िल्म समीक्षक भी उसके योगदान को रेखांकित नहीं कर पाते. यह एक तकनीकी विधा है जिस पर सारी फ़िल्म का दारोमदार होता है. स्क्रिप्ट राइटर, फोटोग्राफर और निर्देशक जो कुछ प्रस्तुत करना चाहते हैं वह प्रस्तुतीकरण फ़िल्म एडिटर ही अपने कौशल से करता है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इसी माध्यम से फ़िल्म अपनी बात कहने के काबिल बनती है. सेलुलोइड की भाषा को एडिटिंग परिष्कृत करती है. मगर यह बड़ा कठिन काम है. कहानीकार और निर्देशक की जो कल्पना है संपादक ही उसे अन्तिम रूप में साकार करता है और उनकी कल्पना के अनुरूप उसे स्वरुप देता है.
कुन्नू ने मुंबई की फिल्मों की माया नगरी में काम किया मगर कभी किसीके सामने कभी झुके नहीं. अपनी शर्तों पर ईमानदारी से काम किया. यह आज की पीढी को अनोखी बात लग सकती है कि उन्होंने कोई फ़िल्म ले ली तो उसके बाद उन्हें पैसा मिले या नहीं इसकी कभी परवाह नहीं की. अपना काम पूरा करके ही उन्हें तसल्ली मिलती थी. वे कहते हैं " मैंने कभी यह नहीं देखा कि प्रोड्यूसर या डायरेक्टर छोटा है या बड़ा. मैं उसके काम को देखता था. मेरी कोशिश हमेशा यही रहती थी कि डायरेक्टर ने जो फिल्माया है मैं कैसे उसे बेहतर करूँ”.

बड़े बड़े नामी गिरामी लोगों की फिल्में पूरी होने के बाद मुश्किल में दिखीं तो री-एडिटिंग के लिए उनके निर्माताओं ने कन्नू की शरण ली . फ़िल्म ‘सोने पे सुहागा’ बनी और चली नहीं तो रिलीज के दो साल बाद कन्नू ने उसे फ़िर से एडिट की और उसके बाद फ़िल्म चली. मल्टी स्टार वाली फ़िल्म थी ‘जोशीले’ जिसे डायरेक्ट किया था जाने माने निर्देशक शेखर कपूर ने और उसके लेखक थे ख्यातनाम जावेद अख्तर. मगर कुछ ऐसा झमेला हुआ कि हैरान परेशान प्रोड्यूसर कुन्नू की शरण में आया कि दादा कुछ मदद करों . लेखक कह रहा था कि डायरेक्टर ने जो बनाया है वह तो उनकी कहानी ही नहीं है. कन्नू ने पूरी फ़िल्म देखी और लेखक की बात को समझा और फ़िल्म को फ़िर से लाइन अप किया और पुनः संपादित किया. इसमे छह माह लगे और फ़िल्म अपने शेप में आई. कुन्नू ने फ़िल्म के निर्देशक शेखर कपूर को उसने जिस तरह से फ़िल्म को शूट किया उसके लिए खूब डांट लगाई. आख़िर उसने अपनी गलती मानते हुए फ़िल्म छोड़ने की घोषणा की. बाद में फ़िल्म में निर्देशक के रूप में उसके निर्माता का ही नाम गया.

अपने काम में कन्नू ने कोई समझौता नहीं किया. यदि कोई उनके काम में टांग अडाने की कोशिश करता तो वह दादा की खिड़की ही खाता था. अभिनेता अनिल कपूर जब अपने शिखर पर थे तो और अपनी फ़िल्म के शॉट्स के संयोजन पर अपनी राय देने लगे तो कन्नू ने उन्हें कह दिया कि “आप हिंदुस्तान के प्रेसीडेंट होंगे मगर इस एडिटिंग रूम में मैं प्रेसीडेंट हूँ. जाइए आप एक्टिंग करिए एडिटिंग मुझ पर छोडिये”.

ऐसा ही एक किस्सा मशहूर संगीतकार नौशाद साहब का है. उन्होंने कहा इस सीन को बढ़ा दीजिये. कुन्नू ने पुछा क्यों तो वे कहने लगे मुझे संगीत देना है. कुन्नू ने कहा सीन में जो बात कही जा रही है वह ख़त्म हो जाने पर सीन कट हो गया है. आप के संगीत के लिए सीन आगे कैसे बढ़ा दूँ.


कन्नू साहब की पहचान 'चेतना' और ‘जरूरत’ जैसी बोल्ड फिल्मों के निर्माता के रूप में भी है. उन्होंने काल गर्ल की मजबूरी पर 'चेतना' बनाई तो आफिसों में महिलाओं के शोषण को ‘जरूरत’ में प्रस्तुत किया. अबोर्शन की वैधानिक मान्यता पर ‘यह सच है’ बनाई. जब कुन्नू ने सुना की हॉलीवुड में मात्र नौ दिन में एक फ़िल्म बनी है ‘ओथेलो’ तो उस चैलेन्ज को स्वीकार करते हुए फ़िल्म ‘कामना’ मात्र सात दिन में बना डाली जो आज भी एक विश्व रिकॉर्ड है. कुन्नू ने अनिल धवन, डैनी, रीना राय, विजय अरोडा तथा रेहाना सुल्तान जैसे कलाकारों को फिल्मों में चांस दिया.

सीधे, सहज और आत्म प्रचार से हमेशा दूर रहने वाले कुन्नू का आज जन्म दिन है. आज के ही दिन १९२९ में एक स्वतंत्रता सेनानी के घर जन्मे कुन्नू को राजस्थानी होने पर गर्व है. और कुन्नू पर हम राजस्थानियों को गर्व है.

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