हमारे भाग्य विधाता
राजेंद्र बोड़ा
हर बार की तरह इस बार भी हुआ. विधान सभा के बजट सत्र का शुक्रवार आखरी दिन था. सत्र के अनिश्चित काल के लिए स्थगित होने के थोड़ी देर पहले विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्रियों और विधायकों के वेतन - भत्तों में यकायक बड़ी बढ़ोतरी करने का विधेयक और वह तुरत - फुरत में पास हो गया. सबके वेतन पांच - पांच हजार रुपये माहवार बढ़ गए. विधायकों के निर्वाचन भत्ते में दस हजार रुपये माहवार अलग से बढ़ गए. उन्हें एक कर्मचारी रखने की सुविधा थी जिसकी जगह विधायकगण अब बीस हजार रुपये माहवार नकद ले सकेंगे. इन निर्वाचित जनसेवकों - विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री और राज्य मंत्री उपाध्यक्ष मुख्य सचेतक उप मुख्य सचेतक तथा प्रतिपक्ष के नेता - द्वारा अपने मेहमानों का आतिथ्य करने के लिए मिलने वाले भत्ते में भी पांच से छः हजार रुपये माहवार बढ़ा दिए गए. घरों को सजाने और बिजली के बढे हुए बिल भरने की भी व्यवस्था कर दी गई और रेल में यात्रा करने के लिए साल भर में एक लाख रुपये खर्च नहीं हो सकेंगे तो वह राशि लेप्स नहीं होगी उसका उपयोग अगले वर्ष में भी किया जा सकने का इंतजाम करदिया गया. भूतपूर्व विधायकों की पेंशन बढ़ा कर दुगनी कर दी गई.
ऐसा उस प्रदेश में हुआ जहाँ की लगभग आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करती है. जनता के नुमाइंदों के वेतन भत्तों में हुई बढ़ोतरी की राशि इस प्रदेश के लोगों की ‘प्रति व्यक्ति आय’ से दुगने से अधिक है. यह उस समय हुआ है जब अकाल सिर पर है और पीने के पानी की त्राहि-त्राहि गर्मियों के शुरू में ही होने लगी है.
ऐसे में यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या जनता के नुमाइंदों को उस समय अपने वेतन भत्ते बढाने का कोई नैतिक अधिकार है जब प्रदेश का आमजन को दो जून रोटी का जुगाड़ करने में मुश्किलें आ रही हैं. क्या जनता के लिए काम करने का दम भरने वाले निर्वाचित विधान सभा सदस्यों को वे सभी सुविधाएं पाने का हक बनता है जो आमजन को मुहैया नहीं है? मुख्य मंत्री अशोक गहलोत, जिन्होंने ये वेतन भत्ते बढाने का प्रस्ताव पास कराया. ने पिछले दिनों एक सार्वजनिक सभा में अपने मन की पीड़ा व्यक्त की थी. उनका कहना था कि विवाह समारोहों में इन दिनों जितना खर्चा होता है उसे देखकर उन्हें 'लज्जा' आती है. आज यही सवाल उनसे ही पूछा जा सकता है कि गरीब प्रदेश जो आकंठ उधारी में डूबा है और जो उधार लेकर सरकारी अमले की तनख्वाओं, भत्तों तथा पेंशन की व्यवस्था करता है क्या उसके लिए क्या ऐसा प्रस्ताव लेकर आना लज्जाजनक नहीं लगा?
गहलोत मन से गांधी को अपना आदर्श मानते हैं. आज जब कांग्रेस में महात्मा गांधी के नामलेवा चंद लोग ही बचे हों तब गहलोत जैसे प्रमुख नेता का गांधी के आदर्शों की बात करना आशा की किरण नज़र आता है. इसीलिए इस प्रदेश के लोग उन्हें राजस्थान का गाँधी कह कर गर्व करते हैं. गांधी के आदर्शों की बात करना और उन पर व्यवहार करना दो अलग चीजें हैं. किसी के व्यवहार से ही इतिहास उसे तोलता है न कि उसने क्या कहा इससे. गहलोत गाँधी जी की वह उक्ति बार बार दोहराते हैं जिसमें बापू ने कहा था कि वे एक तिलस्म देते हैं. जब कभी तुम अनिर्णय की स्थिति में हो तो इस देश के गरीब की शक्ल अपने ध्यान में लाना और सोचना कि उसके लिए क्या ठीक रहेगा. विधानसभा में यह प्रस्ताव लाते हुए उन्होंने किन्हीं मौन क्षणों में अपने आप से पूछा कि क्या मंत्रियों - विधायको के वेतन भत्ते बढ़ा देने से राजस्थान के गरीब की हालत सुधर सकेगी?
ऐसी स्थिति में गाँधी क्या करते इसका उदाहरण हमारे सामने मौजूद है. जयपुर शहर में तीस के दशक में जब पहला खादी भण्डार खुला तब उसके प्रबंधक थे कर्पुर चंद पाटनी. गर्मियों में खादी भण्डार में एक टेबल पंखा खरीद कर लगा लिया गया. जब भण्डार का लेखा ब्यौरा केंद्रीय संगठन को भेजा गया जिसके अध्यक्ष खुद गाँधी जी थे तब बापू के हाथ की लिखी चिट्ठी आयी जो पाटनी परिवार के पास आज भी सुरक्षित होगी. उस पत्र में गांधी जी ने कहा कि खादी के काम में लगे हम लोग गरीब की मदद के लिए समर्पित हैं. क्या उन सभी गरीब लोगों के घरों में बिजली का पंखा आ गया है जिनके लिए हम काम कर रहे हैं? ऐसा जब हो जाए तब हमें यह सुविधा लेने के बारे में सोचना चाहिए उससे पहले नहीं. पता नहीं गहलोत गांधीजी के इस आदर्श को कितनी अहमियत देते हैं.
एक तकनीकी सवाल और है. कानून और न्यायविदों के पास इसका जवाब नहीं होगा क्योंकि वे किताबों में लिखे पर ही चलते हैं. वैधानिक व्यवस्थाओं की किताबों के अनुसार विधायक गण विधि निर्माता हैं. वे कानून बनाते हैं. अतः वे अपने वेतन भत्ते बढाने का कानून भी बना सकते हैं और बनाते हैं. कानून बनाने की शक्ति उन्हें "हम भारत के लोग", जिनमें हमारा संविधान सार्वभौम सत्ता निहित्त करता है, अपना प्रतिनिधि बनाकर देते हैं. हम भारत के लोग" मतदाता के रूप में अपने प्रतिनिधियों का भविष्य निर्धारित करते हैं. फिर किस तरह हमारे ये प्रतिनिधि अपने वेतन - भत्तों के बारे में अपना भविष्य खुद निर्धारित कर लेते हैं यह सवाल है जो विधि से अधिक नैतिकता से जुडा हुआ है. क्या यह उचित न होता कि मंत्रियों विधायकों के वेतन-भत्तों के बारे में फैसला जनता करती. विधायिका में इसकी व्यवस्था है कि किसी विधेयक को जनमत जानने के लिए परिचालित किया जा सकता है. कई विधेयकों पर ऐसा होता भी है. फिर विधायको के वेतन भत्तों का विधेयक जनमत जानने के लिए कभी क्यों नहीं भेजा जाता.
इस विधेयक के जरिये भूतपूर्व विधायको की पेंशन में बढ़ोतरी का प्रबंध किया गया है. जो भूतपूर्व विधायक हैं उनमें से अधिकतर वे हैं जिन्हें मतदाता अस्वीकार कर चुका है. मतदाता द्वारा अस्वीकृत नुमाइंदे को किस प्रकार राजकोष से पैसा दिया जा सकता है यह विधि और नैतिकता दोनों का सवाल है.
(जनसत्ता के अप्रेल 5, 2010 के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
हर बार की तरह इस बार भी हुआ. विधान सभा के बजट सत्र का शुक्रवार आखरी दिन था. सत्र के अनिश्चित काल के लिए स्थगित होने के थोड़ी देर पहले विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्रियों और विधायकों के वेतन - भत्तों में यकायक बड़ी बढ़ोतरी करने का विधेयक और वह तुरत - फुरत में पास हो गया. सबके वेतन पांच - पांच हजार रुपये माहवार बढ़ गए. विधायकों के निर्वाचन भत्ते में दस हजार रुपये माहवार अलग से बढ़ गए. उन्हें एक कर्मचारी रखने की सुविधा थी जिसकी जगह विधायकगण अब बीस हजार रुपये माहवार नकद ले सकेंगे. इन निर्वाचित जनसेवकों - विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री और राज्य मंत्री उपाध्यक्ष मुख्य सचेतक उप मुख्य सचेतक तथा प्रतिपक्ष के नेता - द्वारा अपने मेहमानों का आतिथ्य करने के लिए मिलने वाले भत्ते में भी पांच से छः हजार रुपये माहवार बढ़ा दिए गए. घरों को सजाने और बिजली के बढे हुए बिल भरने की भी व्यवस्था कर दी गई और रेल में यात्रा करने के लिए साल भर में एक लाख रुपये खर्च नहीं हो सकेंगे तो वह राशि लेप्स नहीं होगी उसका उपयोग अगले वर्ष में भी किया जा सकने का इंतजाम करदिया गया. भूतपूर्व विधायकों की पेंशन बढ़ा कर दुगनी कर दी गई.
ऐसा उस प्रदेश में हुआ जहाँ की लगभग आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करती है. जनता के नुमाइंदों के वेतन भत्तों में हुई बढ़ोतरी की राशि इस प्रदेश के लोगों की ‘प्रति व्यक्ति आय’ से दुगने से अधिक है. यह उस समय हुआ है जब अकाल सिर पर है और पीने के पानी की त्राहि-त्राहि गर्मियों के शुरू में ही होने लगी है.
ऐसे में यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या जनता के नुमाइंदों को उस समय अपने वेतन भत्ते बढाने का कोई नैतिक अधिकार है जब प्रदेश का आमजन को दो जून रोटी का जुगाड़ करने में मुश्किलें आ रही हैं. क्या जनता के लिए काम करने का दम भरने वाले निर्वाचित विधान सभा सदस्यों को वे सभी सुविधाएं पाने का हक बनता है जो आमजन को मुहैया नहीं है? मुख्य मंत्री अशोक गहलोत, जिन्होंने ये वेतन भत्ते बढाने का प्रस्ताव पास कराया. ने पिछले दिनों एक सार्वजनिक सभा में अपने मन की पीड़ा व्यक्त की थी. उनका कहना था कि विवाह समारोहों में इन दिनों जितना खर्चा होता है उसे देखकर उन्हें 'लज्जा' आती है. आज यही सवाल उनसे ही पूछा जा सकता है कि गरीब प्रदेश जो आकंठ उधारी में डूबा है और जो उधार लेकर सरकारी अमले की तनख्वाओं, भत्तों तथा पेंशन की व्यवस्था करता है क्या उसके लिए क्या ऐसा प्रस्ताव लेकर आना लज्जाजनक नहीं लगा?
गहलोत मन से गांधी को अपना आदर्श मानते हैं. आज जब कांग्रेस में महात्मा गांधी के नामलेवा चंद लोग ही बचे हों तब गहलोत जैसे प्रमुख नेता का गांधी के आदर्शों की बात करना आशा की किरण नज़र आता है. इसीलिए इस प्रदेश के लोग उन्हें राजस्थान का गाँधी कह कर गर्व करते हैं. गांधी के आदर्शों की बात करना और उन पर व्यवहार करना दो अलग चीजें हैं. किसी के व्यवहार से ही इतिहास उसे तोलता है न कि उसने क्या कहा इससे. गहलोत गाँधी जी की वह उक्ति बार बार दोहराते हैं जिसमें बापू ने कहा था कि वे एक तिलस्म देते हैं. जब कभी तुम अनिर्णय की स्थिति में हो तो इस देश के गरीब की शक्ल अपने ध्यान में लाना और सोचना कि उसके लिए क्या ठीक रहेगा. विधानसभा में यह प्रस्ताव लाते हुए उन्होंने किन्हीं मौन क्षणों में अपने आप से पूछा कि क्या मंत्रियों - विधायको के वेतन भत्ते बढ़ा देने से राजस्थान के गरीब की हालत सुधर सकेगी?
ऐसी स्थिति में गाँधी क्या करते इसका उदाहरण हमारे सामने मौजूद है. जयपुर शहर में तीस के दशक में जब पहला खादी भण्डार खुला तब उसके प्रबंधक थे कर्पुर चंद पाटनी. गर्मियों में खादी भण्डार में एक टेबल पंखा खरीद कर लगा लिया गया. जब भण्डार का लेखा ब्यौरा केंद्रीय संगठन को भेजा गया जिसके अध्यक्ष खुद गाँधी जी थे तब बापू के हाथ की लिखी चिट्ठी आयी जो पाटनी परिवार के पास आज भी सुरक्षित होगी. उस पत्र में गांधी जी ने कहा कि खादी के काम में लगे हम लोग गरीब की मदद के लिए समर्पित हैं. क्या उन सभी गरीब लोगों के घरों में बिजली का पंखा आ गया है जिनके लिए हम काम कर रहे हैं? ऐसा जब हो जाए तब हमें यह सुविधा लेने के बारे में सोचना चाहिए उससे पहले नहीं. पता नहीं गहलोत गांधीजी के इस आदर्श को कितनी अहमियत देते हैं.
एक तकनीकी सवाल और है. कानून और न्यायविदों के पास इसका जवाब नहीं होगा क्योंकि वे किताबों में लिखे पर ही चलते हैं. वैधानिक व्यवस्थाओं की किताबों के अनुसार विधायक गण विधि निर्माता हैं. वे कानून बनाते हैं. अतः वे अपने वेतन भत्ते बढाने का कानून भी बना सकते हैं और बनाते हैं. कानून बनाने की शक्ति उन्हें "हम भारत के लोग", जिनमें हमारा संविधान सार्वभौम सत्ता निहित्त करता है, अपना प्रतिनिधि बनाकर देते हैं. हम भारत के लोग" मतदाता के रूप में अपने प्रतिनिधियों का भविष्य निर्धारित करते हैं. फिर किस तरह हमारे ये प्रतिनिधि अपने वेतन - भत्तों के बारे में अपना भविष्य खुद निर्धारित कर लेते हैं यह सवाल है जो विधि से अधिक नैतिकता से जुडा हुआ है. क्या यह उचित न होता कि मंत्रियों विधायकों के वेतन-भत्तों के बारे में फैसला जनता करती. विधायिका में इसकी व्यवस्था है कि किसी विधेयक को जनमत जानने के लिए परिचालित किया जा सकता है. कई विधेयकों पर ऐसा होता भी है. फिर विधायको के वेतन भत्तों का विधेयक जनमत जानने के लिए कभी क्यों नहीं भेजा जाता.
इस विधेयक के जरिये भूतपूर्व विधायको की पेंशन में बढ़ोतरी का प्रबंध किया गया है. जो भूतपूर्व विधायक हैं उनमें से अधिकतर वे हैं जिन्हें मतदाता अस्वीकार कर चुका है. मतदाता द्वारा अस्वीकृत नुमाइंदे को किस प्रकार राजकोष से पैसा दिया जा सकता है यह विधि और नैतिकता दोनों का सवाल है.
(जनसत्ता के अप्रेल 5, 2010 के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
Comments
nice blog and nicce writup. hardik badhai.
chandan sharma.