जयपुर लिट्रेचर फेस्टीवल : कंचन के सहारे साहित्यिक गुणों को परिभाषित करने का प्रयास
राजेन्द्र बोड़ा
राजधानी में होने वाला जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल, अंतर्जाल (इंटरनेट) के एक खबरिया मुकाम ‘डेली बीस्ट’ के मुताबिक, विश्व के अव्वल नंबर के समागमों में शुमार हो गया है। उसने इसे “धरती पर साहित्य का महानतम प्रदर्शन” बताया। आयोजक खुश थे कि उनके प्रयासों की सफलता का डंका सभी मानने लगे हैं। लिटरेचर फेस्टिवल का इस बार यह छठा सालाना संगम था। इस समारोह की कल्पना को जयपुर में पहली बार साकार ब्रितानवी मूल की महिला फेथ सिंह ने जयपुर विरासत फ़ाउंडेशन के झंडे तले किया था। छह सालों के सफर में इस आयोजन की सफलता इसी से आँकी जा सकती है कि इस बार उसके पास प्रायोजकों की भीड़ थी। प्रमुख प्रायोजक डीएससी कंपनी थी जो राजमार्ग और रेल पथ के साथ पन बिजली उत्पादन के क्षेत्र में बड़ी निवेशक है। समारोह पर बड़ा निवेश करने की एवज में इस बार उसके नाम से – “डीएससी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल” का आयोजन हुआ।
हर बार की तरह इस बार भी जलसे में अभिजात्य लोगों की खूब रौनक रही। यह सवाल अलहदा है कि क्या यह अभिजात्य वर्ग सचमुच साहित्य पढ़ता है या उसे तस्वीर की तरह देख कर अलग रख देता है या उसे अपने ड्राइंग रूम में सजा देता है।
अभिजात्य वर्ग के लोग कभी-कभी अवकाश चाहते है। उच्चतर किस्म का काम करके – बौद्धिक काम, आध्यात्मिक काम। कुछ समय के लिए फुर्सत की तलाश। मार्शल मैक्लूहन ऐसे लोगों को “ड्राप-आउट” की संज्ञा देते हैं। ऊबे हुए लोग, समाज विमुख लोग। दूसरे लोग उनसे जुड़ना चाहते हैं क्यों कि वे महत्व चाहते हैं। जैसे एक देह से निकल कर दूसरी देह में घुस जाने की चाह।
आलीशान मेले में शामिल लोगों को अपनी अहमियत मालूम थी। अहमियत रखने वालों मे शामिल होने की ललक हर प्रतिभागी में थी। सहभागियों में अपने बड़प्पन का छद्म था। बुद्धिवाद का नजारा चहुं ओर बिखरा पड़ा था। डिज़ाइनर चश्मे, डिज़ाइनर परिधान, डिज़ाइनर भौहें, डिजाइनर काजल। नई वर्ण व्यवस्था का नया डिजाइनर वर्ग। शास्त्र जीवी होने का अभिमान लिए अर्थ जीवियों का यह अद्भुत संगम था।
एक भिखारी द्वारा अपने बच्चे को लेकर वहाँ पहुँचने पर उसका भी वहाँ स्वागत का घोष करके आयोजकों ने उसे बराबरी का अधिकार देने का बड़प्पन दिखाया।
स्थानीय भागीदारों को लगा जैसे वे साहित्य के अभिजात्य वर्ग में शामिल हो रहे हैं मगर वास्तविकता में वे उनके अनुगामी बने। आयोजक आश्रयदाता थे। समृद्धवर्गीय स्वार्थ। आयोजन समृद्धि का एक उपकरण।
यह आयोजन बाज़ार जनित था। बाज़ार को आडंबर की जरूरत होती है। भारतीय संस्कृति और पश्चिम में यही फर्क है। भारत की बौद्धिक परंपरा पश्चिम की बौद्धिक परंपरा से भिन्न रही है। उनके लिए संस्कृति सिर्फ समारोह है या इतिहास है।
प्रोफ़ेशनल राइटर्स – जो धड़ाधड़ छपे और खूब पैसे कमाए। बाज़ार को ऐसे लेखकों की ही जरूरत होती है जो उसे भी कमाकर दे। ऐसे फेस्टीवल एक उपक्रम होते हैं।
बाज़ार को ऐसे लेखक चाहिए जो उसके लिए लिखे। वह अपना उत्पाद खपाने और उसके उपभोक्ता पैदा करने के लिए ऐसे फेस्टीवल करता है। यह रीत दुनिया भर में चल रही है।
तात्कालिक आवश्यकताओं कि पुस्तकें ही बाज़ार में सबसे अधिक दिखती हैं। नया दौर कहानीनुमा इतिहास लिखने का है।
जो छप रहा है वह खरा हो आवश्यक नहीं है। परंतु वही खरा है इसका भ्रम बनाने और उसके खरीददार पैदा करने में आज का विज्ञापन युग का बाज़ार पूरी तरह सक्षम है।
बाज़ार में क्या चलना चाहिए यह भी बाज़ार की ताक़तें ही तय करती हैं। इसे कुछ लोग साहित्यिक सद्प्रयास कहते हैं। बाज़ार की यह खूबी होती है कि वह यह भुलावा सफलता से दे देता है कि उसके यहाँ विरोधी के लिए भी जगह है। ऐसा करते हुए वह सर्वव्यापी हो जाता है जो उसका धर्म है। इसीलिए समारोह में चे गवेरा, जिसने पूरी उम्र पूंजी के आधिपत्य से लड़ते हुए गुजारी और अपना जीवन कुरबान कर दिया, की जीवनी पर चर्चा को पूंजीवाद की पोषक बहुराष्ट्रीय कंपनी गोल्डमैन साक्स प्रायोजित करती है तो क्या आश्चर्य। यह भी अभिजात्य वर्ग का मनोरंजन होता है। बाबा नागार्जुन की फकीरी की बातें सुन कर सहभागियों को आनंद हुआ और मामूली लोगों का मसीहा गैर मामूली लोगों के रंजन का साधन बना।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने एक बार अखिल भारतीय रेडिकल ह्यूमेनिस्ट एसोसिएशन के द्विवार्षिक सम्मेलन में स्वागत भाषण देते हुए जो बात कही थी वह आज याद आती है। उन्होंने कहा था: “हमारा सार्वजनिक जीवन एक व्यापक दूषण से दूषित है जिसे अंग्रेजी अभिजात्यवाद कहा जा सकता है। मैंने कई बार सोचा है कि क्या यह बात सच नहीं है कि अंग्रेजी के प्रति इस मोह के और सत्ता की राजनीति के बीच एक घनिष्ठ संबंध है।... इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी का परित्याग या बहिष्कार किया जाये, आशा यही है कि उसे उसके उचित पद पर बैठाया जाए और उसके साथ जुड़ी हुई उच्चता और अभिजात्य की भावना का परित्याग किया जाये। अंग्रेजी के साथ सत्ता के अधिकार का जो दावा जुड़ा रहता है उसका खंडन किया जाए”।
अंग्रेजी की आक्रामकता केवल शोषण के लिए रही है। अंग्रेज दूसरी दुनिया पश्चिम से आए, यहाँ बसने के लिए नहीं केवल मुनाफा कमाने के लिए - शोषण करके। हमारे पास इनका सीधा रचनात्मक और ध्वंसात्मक जवाब न तब था न आज है।
आज की राज व्यवस्था ने इस आयोजन को सांस्कृतिक समारोह माना। फिल्म अभिनेता सलमान खान को अपना प्रिय मानने वाली राजस्थान की कला और संस्कृति मंत्री बीना काक, जिन्हें अपने दो वर्ष के कार्यकाल में राज्य की कला संस्कृति, भाषा और साहित्य अकादमियों की एक बार भी सुध लेने की फुर्सत नहीं मिली, वे इस आयोजन पर इतनी मेहरबान हुई कि उसके लिए राज कोष से दस लाख रुपयों का अनुदान घोषित कर दिया।
हमारे राजनेताओं को यह दंभ रहता है कि वे संस्कृति और साहित्य पर अनुग्रह करते हैं। मगर वे ही बाज़ार के सामने मिमियाते हुए उसके लिए सार्वजनिक कोष की राशि उंडेलते नहीं अघाते। वैसे आज की सरकारों से सुबुद्धि की अपेक्षा करना व्यर्थ है। ऐसे समय हमें चिंतक लेखक विद्यानिवास मिश्र की वह टिप्पणी याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था “शूद्र समाज तो वह है जहाँ कंचन के सहारे सारे गुण परिभाषित होते हों”।
ऐसे फेस्टीवल बाज़ार के हो रहे लेखकों की ख्याति बढ़ाने के विज्ञापनी जतन करता है। इसमें आज का मीडिया उसका भागीदार बनता है। कभी इसी फेस्टिवल में स्थानीय अस्मिता के सवाल पर फेस्टीवल की एक प्रमुख कर्ताधर्ता नमिता गोखले से तूँ-तूँ मैं-मैं की हद तक उतर जाने वाला ‘दैनिक भास्कर’ इस बार उसका प्रायोजक था। बाज़ार ने अखबारों की यह मजबूरी कर दी है कि उन्हें यदि उसका साथ चाहिए तो अपने ऐसे पाठक बढ़ाए जो बाज़ार के अन्य उत्पादों के उपभोक्ता भी हों। ऐसे ही उपभोक्ताओं की तलाश में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसे अपने को सबसे बड़ा कहने वाले अख़बार फेस्टीवल में खुले हाथों से मुफ्त बाँटे जा रहे थे।
फेस्टीवल का दामन पकड़ने में ‘दैनिक भास्कर’ से पीछे रह गए दूसरे प्रमुख अख़बार ‘राजस्थान पत्रिका’ की खीज उसके प्रथम पृष्ठ पर रामकुमार की एक प्रभावी टिप्पणी के रूप में सामने आई “... कौन ठगवा नगरिया लूटन हो”।
समारोह में साहित्यिक प्रेरणा को उकसाने का कोई श्रम हुआ हो हमें नहीं मालूम। एक अनुशासित समय ढांचे में सभी कुछ डिजाइन की हुई चीजें। जैसे सबसे पहले सूत्रधार का वक्तव्य फिर लेखक से कुछ सवाल जिसके जवाब उसी किताब की प्रस्तावना में जिस पर चर्चा की जा रही हो मौजूद होते है जिसे वह फिर दोहरा देता है। इसके बाद लेखक द्वारा किताब के कुछ अंशों का वाचन और अंत में सामने जुटे लोगों को लेखक से सवाल करने की इजाजत। मगर उनमें सवाल कम अपना ज्ञान बघारने की मत्वाकांक्षा अधिक झलकती है।
इसीलिए आम आदमी आयोजकों की दिखावटी नेकनीयता के बावजूद समारोह से दूर रहा। कोई रोक टोक नहीं थी। सभी के लिए एंट्री फ्री। मगर जो अंदर थे वे जलसे का डिज़ाइनर तमगा गले में लटकाए रखने की अजीब तहज़ीब से बंधे थे।
यह हमारे समय और समाज की विडंबना है कि हमारी सामाजिक चेतना को झंझोड़ने वाले सभी साधन ऐसे लोगों के हाथों में है जो तेजी से केंद्रित होते जा रहे हैं और हमारी बुद्धि को कंडीशंड कर रहे हैं। बुद्धि को कुंठित और निष्प्राण किए बिना कोई भी निकृष्ट स्वार्थपरकता संभव नहीं है।
ऐसे आयोजनों में शामिल होने वाले अपनी आत्मिक पराजय को शायद स्वीकार नहीं करें मगर बाज़ार की जीत को तो सभी को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
ऐसे जलसे एक पाखंड रचते हैं। कहा गया है कि लेखन या तो लेखक के लिए होता है या मनोरंजन के लिए। दोनों रास्ते विनाश के है। फेस्टीवल से यही रास्ता निकलता है।
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