धुन के धनी : संगीतकार ओ. पी. व्यास
राजेंद्र बोड़ा
संगीतकार ओ पी व्यास पुरानी और आधुनिक
पीढ़ी के संगीतकारों के बीच की अंतिम कड़ी
थे। उन्होंने उस दौर में राजस्थानी फिल्मों में संगीत दिया जिसे इन फिल्मों का स्वर्णयुग कहा
जाता है। हालांकि पिछली सदी के अंतिम दो दशकों का दौर वह भी था जब यंत्र तकनीक
भारतीय फिल्म संगीत को नए आयाम दे रही थी जिसे कईं लोग फिल्म संगीत का बुरा दौर मानते हैं।
शनिवार, छह जून को 77 वर्ष की उम्र में शरीर छोडने के समय तक वे
संगीत की साधना में लगे रहे। एक हफ्ते पहले तक
वे गीतकार कृपाकृष्ण रिंदी और निर्देशक उस्मान अब्बासी के साथ बैठ कर नई राजस्थानी फिल्म ‘म्हारी लाड़ली बेटी’ के गाने कम्पोज़ कर रहे थे। उनकी एक अन्य फिल्म ‘नैणा रो नीर’ भी प्रदर्शन के लिए तैयार है। ऐसे बहुत कम भाग्यशाली लोग होते हैं जो इस तरह काम
करते हुए दुनिया से विदा कहते हैं।
ओम प्रकाश व्यास जिन्हें अधिकतर लोग ओ पी व्यास के नाम से ही
पहचानते हैं ने धमाके के साथ राजस्थानी फिल्मों में प्रवेश किया था। उन्नीसवीं सदी
के सातवें दशक में मान लिया जाने लगा था कि राजस्थानी फिल्मों के निर्माण की कोई गुंजाइश नहीं बची
है तब उनके संगीत से सजी फिल्म आई ‘बाई चाली सासरिये’(1988) जिस ने सफलता के झंडे गाड़ कर राजस्थानी
फिल्मों के निर्माण को फिर से आधार दिया। ‘बाई चाली सासरिये’ के सभी गाने हिट हुए जिन्होंने फिल्म की सफलता में जबर्दस्त योगदान दिया। इससे पहले उनके संगीत से सजी ‘वीर तेजाजी’ (1982) और ‘सावण री तीज’(1984) भी आ चुकी थीं।
जैसा कि हमने कहा ओ पी साहब पुरानी और नई
पीढ़ी के संगीतकारों के बीच की अंतिम कड़ी थे। यह वह कड़ी थी जिसने भारी बदलाव के दौर
में भी राजस्थानी लोक संगीत को अपने फिल्म संगीत में बराबर बनाए रखा। उन्होंने नए जमाने की रुचियों के अनुरूप अपने संगीत में आधुनिक वाद्यों से सजा ऑर्केस्ट्रेशन अपनाया मगर मूल राजस्थानी
लोक धुनों को नहीं बिसराया।
राजस्थानी फिल्मों के रिवाइवल के दौर में
कईं सफल राजस्थानी फिल्में
दर्ज है। ‘बाई चाली सासरिये’ के अलावा ‘रमकूड़ी झमकूड़ी’जैसी सुपर हिट फिल्मों का संगीत उन्हों ने ही रचा। 1980 और 1990
के दशक की उनकी अन्य फिल्में थीं : ‘मां म्हने क्यूं परणाई’,‘बाईसा रा जतन करो’, ‘दादोसा री लाड़ली’, ‘बींदणी’, ‘रामगढ़ री रामली’, ‘खून रो टीको’, ‘जियो म्हारा लाल’, ‘जाटणी’, ‘जोग संजोग’, ‘धणी लुगाई’, ‘सतवादी राजा हरिश्चंद्र’आदि।
राजस्थानी सिनेमा के शुरुआती दौर के बड़े निर्माता बी के आदर्श, रामराज नाहटा, भरत नाहटा, मोहन सिंह राठोड़ जैसों के
साथ उन्होंने काम किया। उन्होंने राजस्थानी फिल्मों में हिन्दी फिल्म संगीत की ख्यातनाम आवाज़ों का भी उपयोग किया।
महिला गायिकाओं में उषा मंगेशकर, अनुराधा पौढ़वाल, वाणी जयराम, अल्का याग्निक, कविता कृष्णमूर्ती, साधना सरगम, सोनाली बाजपेयी जैसों ने
उनके निर्देशन में गाया। पुरुष आवाज़ों में शब्बीर कुमार, उदित नारायण, जसपाल सिंह जैसे गायकों ने उनके गानों को स्वर दिये।
जोधपुर के एक पुष्कर्णा ब्राह्मण परिवार में 4 जनवरी 1938 में जन्मे ओ पी साहब को ज़िंदगी में कईं पापड़ बेलने पड़े। अपनी उद्यमशीलता, लगन और परिश्रम से उन्होंने संगीत में अपना विशिष्ट
स्थान बनाया। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें ‘संगीत पुरोधा’का सम्मान दिया।
संगीत की घुट्टी उन्हें बचपन में ही अपने
पिता रामचन्द्र व्यास से मिली जिन्होंने अपने बालक का लोक और शास्त्रीय संगीत से
परिचय छोटी उम्र में ही करा
दिया। मगर तब यह किसी ने नहीं सोचा था कि वे आगे जा कर संगीत में ही रम जाएंगे।
जोधपुर की सुमेर पुष्टिकर हाई स्कूल के बाद इंटर पास करके राजस्थान के शिक्षा विभाग में शिक्षक के
रूप में नौकरी कर ली। नौकरी करते हुए ही उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। राजपूताना
यूनिवर्सिटी से कला वर्ग में बीए किया। इसी दौरान उन्होंने राज्य और राष्ट्रीय युवा समारोहों में हिस्सा लिया जिनमें वे राष्ट्रभक्ति के
गाने और मारवाड़ी लोक गीत गाकर घूम मचा देते थे। बीए करने के बाद कला में उच्च शिक्षा हासिल करने वे मुंबई चले गए जहां
उन्होंने जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लिया।
बंबई में वे फिल्मी दुनिया के संपर्क में आए और कुछ समय तक रंगलोक फिल्म्स में निर्देशक मणिभाई व्यास के सहायक के तौर पर भी काम किया।
वर्ष 1965 वे पारिवारिक कारणों से वे जोधपुर लौट आए और
फिर से मास्टरी की नौकरी कर ली। मगर यहीं उनका संगीत का कारवां भी शुरू हुआ। वर्ष
1972 में उन्होंने जोधपुर में स्थानीय वादकों और गायकों को साथ लेकर ‘ओ पी व्यास म्यूजिक नाइट’का आयोजन किया। इस सफल आयोजन में तत्कालीन मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खान मुख्य अतिथि के
रूप में मौजूद थे। इसी कार्यक्रम में इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन (इम्पा) के तत्कालीन अध्यक्ष
श्रीराम बोहरा ने भी भाग लिया।
उसी दौरान व्यास को फिल्मों में किस्मत आजमाने के बहुत से मौके मिले मगर बात बाद में जाकर राजस्थानी फिल्म‘बाई चली सासरिये’से ही बनी। वर्ष 1973
में एक फिल्म नवल किशोर माथुर के निर्देशन में एक फिल्म ‘मीरा बाई’ बननी शुरू हुई जिसके संगीत का जिम्मा व्यास को सौपा गया। उन्हों ने वाणी
जयराम, सुमन कल्याणपुर, और सुमित्रा लहरी की आवाज़ों में सभी गाने रिकॉर्ड कर लिए। फिल्म का थीम सॉन्ग उन्होंने खुद
गाया। मगर दुर्भाग्य से फिल्म पूरी नहीं बन सकी। अगले साल 1974 में उन्हें एक और
फिल्म मिली ‘त्रिशला का लाल’जिसे गुजरात की कोई छगन
बेन बना रही थी। महेंद्र कपूर, शैलेन्द्र सिंह और वाणी जयराम के स्वरों में व्यास ने सभी गाने रिकॉर्ड कर लिए। इन गानों के रिकॉर्ड एचएमवी ने जारी भी कर दिये। मगर यह
फिल्म भी पूरी नहीं बन सकी।
उसी साल उन्हें धनपत मेहता की फिल्म ‘फिल्मी दुनिया फिल्मी लोग’मिली उसके भी सारे गाने रिकॉर्ड हो गए मगर फिल्म नहीं बन सकी। इसी जद्दोजहद के
दौरान एचएमवी ने उनके कम्पोज़ किए राजस्थानी गानों के कईं रिकॉर्ड जारी किए। इन गैर फिल्मी राजस्थानी
गानों के लिए उन्होंने राजस्थानी गीतों के तब के लोकप्रिय गायकों कालूराम प्रजापति, चुन्नी जयपुरी, दलपत डांगी, रेहाना मिर्ज़ा
शमीम खान, शकुंतला जोशी, शांति पुरोहित और स्वर्णलता व्यास की आवाज़ें ली।
मुंबई नगरी की फिल्मों की तिलस्मी दुनिया
में बड़े-बड़े खेल होते हैं। काम किसी का और नाम किसी का। एक भेंट में व्यास जी
ने सिने इतिहासकार एम. डी. सोनी को बताया था कि राजस्थानी
फिल्मों‘वीर तेजाजी’और‘सावण री तीज’का गीत संगीत उनका था मगर फिल्मों पर नाम गया पंडित जसराज
के भाई प्रताप नारायण का।
व्यास में अनोखी उद्यमशीलता भी थी जिसे उन्होंने 1977 में ज़ाहिर किया खुद अपनी ग्रामोफोन रिकॉर्ड कंपनी – ‘सनराइज़ रिकोर्ड्स’ बना कर। अपने बैनर का नाम रखा ‘ओपीवी’(अवर पोप्यूलर वॉइस)। इस ग्रामोफोन लेबल पर व्यास के स्वरबद्ध किए राजस्थानी गाने
ए. के. व्यास और सुमित्रा लहरी की आवाज़ों में निकले।
इस संगीतकार के जीवन में एक और मोड आया
जब एचएमवी के एकाधिकार को तोड़ती हुई गुलशन कुमार की तेजी से बढ़ती ‘टी सिरीज़’कंपनी ने ओ पी साहब को 1993 में आधुनिक राजस्थानी
गानों के एलबम तैयार करने को कहा। व्यास की धुनों से सजे लोक और आधुनिक राजस्थानी गीतों
के एल्बमों ने धूम मचा दी। अगले पांच वर्षों में ‘टी सिरीज़’ के लेबल पर व्यास के कुल 16 एलबम निकले
जिनमें प्रमुख थे तीन भागों वाले ‘बारहमासा’ के अलावा ‘बन्ना बन्नी’, ‘गणगौर’, ‘गीतों रो हेलो’ और ‘पिया घर आ रे’। इसी प्रकार राजस्थानी लोक भजनों के एलबम भी
खूब सराहे गए जैसे ‘भक्ति रो मारग’, ‘जय श्रीनाथ’, ‘सांवरिया जी’, ‘कैलादेवी’ और ‘संतोषी माता’।
जोधपुर शहर में होली पर मारवाड़ी श्लील गाली गायन का धमाल भी वे खूब करते
थे। उनकी श्लील गालियों को सुनने के लिए सैकड़ों की संख्या
में नर-नारी उमड़ पड़ते थे।
उनके निधन पर जोधपुर के एक शिक्षक दिनेश कुमार बिस्सा‘आकिल’ की श्रद्धांजलि सबसे माकूल है : “ओ पी साहब की उंगलियां जब थिरकती तो सृष्टि ठिठकती सी लगती। ईश्वर को मधुर संगीत सुनने
की प्रबल इच्छा रही होगी सो ओ पी साहब को अपने पास बुला लिया”।
(यह आलेख 14 जून 2015 की जनसत्ता के रविवारी परिशिष्ठ में छपा)
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