गुणवत्ता वाली शिक्षा
राजेंद्र बोड़ा
सबसे पहला सवाल तो यही कि गुणवत्ता से हमारा क्या आशय है? एक तो आशय यही कि गुणवत्ता वह जो हमारी
बेहतरी करे। जैसे गुणवत्ता वाला भोजन हमें पोषण देता है। गुणवत्ता वाली दवा हमारी
बीमारी दूर करती है और हमें फिर से स्वस्थ करती है। दूसरा आशय यह होता है कि जब हम
कहें गुणवत्ता वाला तो उसका अर्थ हो वह जो नुकसान पहुंचाने वाला न हो। इन्हीं
दृष्टियों से हम शिक्षा की भी चर्चा कर सकते हैं। ऐसी शिक्षा जो हमें और हमारे
ज्ञान को आगे बढ़ाए और जो हमारा नुकसान न करे।
शिक्षा की बाबस्ता दो बातें हो सकती हैं। एक इंसान को बेहतर
बनाने की शिक्षा और दूसरी उसके हुनर और कौशल को बढ़ाने वाली तथा उसके अर्थोपार्जन की
बेहतरी की शिक्षा।
हालांकि शिक्षा शब्द में ये दोनों आशय शामिल हैं। इसलिए हम कह
सकते हैं कि गुणवत्ता वाली शिक्षा वह है जो हुनर, कौशल और अर्थोपार्जन की सफलता के लिए शिक्षार्थी को तैयार
करती है तो साथ ही उसे एक अच्छा इंसान बनना भी सिखाती है।
अच्छाई से सफलता पाना और बुराई से सफलता पाना में भेद कर सकना भी हम शिक्षा से ही सीखते हैं। बहुत बार एक अच्छा इंसान
सांसारिक मानदंडों पर हमेशा सफल होता नज़र नहीं
आता। अच्छा होने की शिक्षा उसे सिखाती है कि वह किसी को रोंद कर आगे न जाये। मगर
जब सांसारिक जीवन में सारी प्रतिस्पर्धा दूसरे को पछाड़ कर आगे बढने की हो तब अच्छी
शिक्षा से दीक्षित व्यक्ति क्या करे? क्या वह प्रतिस्पर्धा से हट जाए? मगर हमारा समाज और राज्य व्यवस्था दोनों
प्रतिस्पर्धा से हट कर अपना जीवन जीने की चाहना रखने वाले को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं
करते। समाज और राज्य की सुरक्षा पाने के लिए भी प्रतिस्पर्धा होती है जिसमें सफल
होने की सिखाई स्वतः ही आ जाती है।
शिक्षाविद अनिल सदगोपाल पूछते हैं कि क्या केवल वैश्विक बाज़ार
और पूंजी के लिए पैदल सिपाहियों की फौज खड़ी करना ही शिक्षा का उद्धेश्य है? अब जब खेती पर आधारित रोज़गार खत्म हो
रहे हैं या किए जा रहे हैं तब ग्रामीण आबादी
लाचार होकर शहर में आती है। उनके बच्चों का क्या होगा? वे कैसी भी घटिया डिग्री क्यों न हो लेने की
कोशिश करेंगे, भले ही उनकी
शिक्षा के साथ कौशल का कोई वास्ता न हो।
शिक्षा का मतलब किताबी
ज्ञान मान
लिया गया है। पाठ्य पुस्तक के अलावा अन्य पुस्तक पढने को समय की
बरबादी माना जाता है। “जीवन के
लिए शिक्षा” का कथन
मुहावरे के तौर पर जरूर इस्तेमाल किया जाता है मगर वह कितना
जीवन में उतारा जाता है वह दीगर बात है।
शिक्षा की गुणवत्ता की बात
करते हुए हमारे सामने सवाल होना चाहिए कि हम कैसा‘समय’चाहते हैं? यदि हम चाहते हैं कि नागरिक रचनात्मक
एवं वैज्ञानिक सोच से लैस हों, जहां चीजों का
वितरण सम्यक व न्यायपूर्ण हो तथा सभी को अच्छी शिक्षा, स्वस्थ्य और भोजन की गारंटी
हो तो शिक्षा प्रणाली भी ऐसी होनी चाहिए जो रचनात्मकता और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा
दे। वह लोकव्यापी और समतामूलक हो।
जब हम शिक्षा की गुणवत्ता की बात करते हैं तब उसके दो पक्षों
पर ध्यान जाता है – एक व्यावहारिक पक्ष और दूसरा सैद्धान्तिक पक्ष। इन दोनों
को लेकर शिक्षा का दार्शनिक पक्ष सामने आता है जिससे हम उसकी गुणवत्ता को समझने की
कोशिश करते हैं।
फिर सवाल उठता है कि जब हम शिक्षा की गुणवत्ता की चर्चा करते
हैं तब क्या हम शिक्षा में बदलाव चाहते हैं या बदलाव के लिए शिक्षा चाहते है?
शिक्षा को आमतौर पर नौकरी-चाकरी कर सकने की योग्यता से जोड़ कर
ही देखा जाता है। छात्र का भावी कॅरियर उसके केंद्र
में होता है। ऊंची से ऊंची नौकरी दिला सकने वाली शिक्षा को ही अच्छी शिक्षा माना
जाता है। संवेदनशील, स्वतंत्र और पूर्ण
मानव की जगह अर्थ-मानव बनाने पर सारा जोर आज नज़र आता है। ऐसा अर्थ-मानव राज्य के
लिए एक ऐसा संसाधन भर होता है जो
बाज़ार के लिए काम करे।
नए दौर में आज का राज्य
उत्पादकता, प्रतिस्पर्धी और
उपभोक्तावादी मानसिकता वाले नागरिकों को तरजीह देता है। मानव
को संसाधन मान कर उसे उपभोग की वस्तु बना देता है। इंसान का वजूद अब बाज़ार में
उसकी उपयोगिता पर निर्भर हो चला है।
इसलिए गुणवत्ता वाली शिक्षा पर विमर्श का एक आशय यह भी है कि
हमारी कुछ चिंताएं हैं जिसमें एक है बाज़ार भाव की चिंता। यह चिंता इसलिए कि आज
शिक्षा का बाज़ार बन रहा है और तेजी से बढ़ रहा है। शिक्षा के बाज़ार में ग्राहक को
अपने दाम का उचित मोल मिल रहा है या नहीं? बाज़ार में लाभ का मापदंड ग्राहक की संतुष्टि होता है। वह
शिक्षा बेहतर हो चली है जो अपने ग्राहकों को अधिक संतुष्ट कर सके। आज सरकारी
शिक्षा व्यवस्था से असंतुष्ट होकर लोग निजी क्षेत्र
को मोटी-मोटी रक़में
देने को तैयार हैं। मगर शिक्षा में
गुणवत्ता का मापदंड ग्राहक की संतुष्टि को मानना हमें तकलीफ देता है। इस बाज़ार में
ग्राहक कौन है? बच्चा, अभिभावक या राज्य जो अपने नागरिकों को
किसी खास किस्म की शिक्षा दिलाना चाहता है।
हम शिक्षा के परिणाम अंकों और ग्रेड से तय
करते हैं। इसी के चलते शिक्षा का निजी कोचिंग उद्योग आज देश में सबसे तेजी से बढ़
रहा सेवा क्षेत्र का उद्योग बन गया है। पिछले छह सालों में इस
उद्योग ने 35 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की है। आज यह
उद्योग 23. 7 बिलियन रुपये का हो चला है। उद्योग
परिसंघों के सर्वे बताते हैं माध्यम वर्ग का परिवार अपनी आमदनी का एक तिहाई हिस्सा
अपने बच्चों की पढ़ाई और निजी कोचिंग पर खर्च करता है। इसमें स्कूली छात्र तथा बाद
में प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा शामिल हैं।
कला और साहित्य से सरोकार रखने वाले अशोक बाजपेयी कहते हैं कि
हमारी उच्च शिक्षा भटक चली राजनीति का प्रतिरोध या उसका विकल्प बनने का ज्ञान और
ऊर्जा देश की युवा शक्ति को नहीं देती। विश्वविद्यालयों से निकलने वाले अधिकतर
छात्र न तो अच्छे नागरिक हैं और न उनमें किसी तरह की वैचारिक साक्षरता का ही कोई
प्रमाण दीख पड़ता है। इसमें यदि कोई अपवाद नज़र आते हैं तो वे नियम को ही सिद्ध करते
हैं। उनको इस बात का दुख है कि हमारी शिक्षण संस्थाओं का अपने समय के जीवंत-सृजन से कोई
संवाद नहीं है।
तो यहां दार्शनिक सवाल आ जाता
है शिक्षा क्या चीज है? शिक्षा में
शिक्षार्थी, शिक्षक और
शिक्षण की अंतर्वस्तु तीनों शामिल हैं। विद्यार्थी सीखता है, शिक्षक सीखने में मदद करता
है और अंतर्वस्तु वह सब है जो शिक्षार्थी सीखता है। सीखना कुशल और बेहतर मानव बनाने की प्रक्रिया
है। सीखने की उत्कृष्टता वाली शिक्षा ही गुणवत्ता वाली शिक्षा हो सकती है।
यह भी याद रखना होगा कि शिक्षा का सामाजिक संदर्भ भी होता है।
शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों ही किसी समाज के हिस्सा होते हैं। शिक्षा की
अंतर्वस्तु के रूप में जो ज्ञान, क्षमताएं और मूल्य
चुने जाते हैं वे उस समाज में उपलब्ध बड़े सामूहिक ज्ञानाधार में से लिए जाते हैं जिनका
आधार समाज की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं भी होती है।
Comments