राजेंद्र बोड़ा
यदि कोई पूछे कि भारतीय सिनेमा की ज़ुबान कौन सी है तो जवाब देते हुए यह कहने में कोई ज़रा सी देर भी नहीं
लगाएगा – हिन्दुस्तानी। और यह हिन्दुस्तानी क्या
है? यह वो ज़ुबान है जिसमें इस देश की गंगा-जमनी संस्कृति बोलती है। इस ज़ुबान में सभी बोलियों का खूबसूरत संगम है।
भारतीय सिनेमा जब 1932 में आर्देशिर ईरानी
की फिल्म ‘आलम आरा’ से बोलने लगा तब फिल्म व्यवसाय
के लोगों को बड़ी चिंता हुई कि मूक फिल्मों की देश के सभी भाषाई इलाकों में जो सर्वव्यापकता
थी वह कैसे बनी रहेंगी? मगर नए देशी सिनेमा की
ज़ुबान की जो भाषा बनी वह थी हिन्दुस्तानी। देश की पहली ही सवाक फिल्म के साथ ही फिल्मी गानों का दौर शुरू
हुआ जिससे इस नई ज़ुबान ने सिनेमा के पर्दे के बाहर भी लोगों का दिल ऐसा जीता कि सभी
क्षेत्रीय भाषाई दूरियां मिट गईं और देश के कोने-कोने में ही क्यों दुनिया भर में इस ज़ुबान के
गाने लोगों के मुंह पर चढ़ गए। फिल्म संगीत ने अपना ऐसा जादू बिखेरा कि लफ़्ज़ कहीं
पीछे छूट गए और धुन का जादू सिर चढ़ कर बोलने लगा। हिन्दुस्तानी का एक शब्द भी नहीं
समझने वाले विदेशी तक भारतीय फिल्मों के गाने गुनगुनाने लगे।
हिन्दुस्तानी ज़ुबान में सबसे अधिक आमद उर्दू की रही। वैसे उर्दू खुद भी तो भी हिन्दी समेत कईं भाषाओं का गुलदस्ता ही तो
है। देखा जाय तो उर्दू और हिन्दुस्तानी सिनेमा जिसे हिन्दी सिनेमा कहते हैं एक दूसरे से ऐसे जुड़े
हैं कि इन्हें अलग कर के देखा ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों में
उर्दू के शायरों का दबदबा हिन्दी के कवियों से कहीं अधिक रहा है।
कहते हैं कि हिन्दी सिनेमा की
काया उर्दू की जबांदानी और लोकाचारी संस्कारों से बनी है। भारत की बोलती
फिल्मों ने अपना बुनियादी ढांचा उर्दू फारसी थियेटर से हासिल किया। इसलिए बोलती
फिल्मों की शुरुआत उर्दू से हुई। यहां तक कि कलकत्ता का न्यू थियेटर भी उर्दू के लेखकों का इस्तेमाल करता था।
हिंदुस्तानी फिल्मी गानों को गुनगुनाने के लिए भाषा आड़े नहीं आती यह
अनेक बार साबित हो चुका है। कुछ उदाहरणों का जिक्र हम यहां करेंगे।
अमीर खुसरो ने फारसी और बृज भाषा का अद्भुत संगम करते हुए
रचनाएं की। वे फारसी की पंक्तियों से शुरू करके हिन्दी
की पंक्तियों पर खत्म करते थे। उनकी इस लेखन शैली
की एक उत्कृष्ट रचना है:
ज़िहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल दुराये नैना बनाये
बतियां
के ताब-ए-हिज़रां नदारम –ए-जां ना ले हो
काहे लगाये छतियां
अमीर खुसरो की फारसी लाइनों से अपना गाना
उठाते हुए गुलज़ार ने जे. पी. दत्ता की फिल्म ‘गुलामी’ (1985) के लिए अपने गाने का मुखड़ा कुछ यूं बनाया:
जिहाल-ए-मिस्कीं मुकुन-ब-रंजिश, ब-हाल ए हिज़रा बेचारा दिल है/ सुनाई देती है जिस की धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।
अब शुरुआती फारसी लाइनों का अर्थ न समझते हुए भी लोगों ने यह
गाना खूब गाया।
इन फारसी लाइनों का अर्थ है: इस मिसकीं (लाचार) जिहाल (दिल का हाल)
देखो तो, रंजिश (गुस्से या अदावत) से मकुन (नहीं)। इस बेचारे दिल को ब-हाल (हाल ही) में अपने महबूब के हिज़रा (जुदाई)
का गम मिला है।
इसी प्रकार अल्लामा इकबाल की एक मशहूर
नज़्म है जिसे फिल्म संगीत के
शौकीन खूब रस लेकर सुनते हैं मगर उसके फारसी लफ्जों वाले मुखड़े का अर्थ उर्दू से नावाकिफ
अधिकतर लोग नहीं जानते। इकबाल की इस इस मशहूर नज़्म का उपयोग धर्मेंद्र और नूतन
अभिनीत 1966 की फिल्म‘दुल्हन एक रात की’में संगीतकार मदन मोहन ने कव्वाली के रूप में
किया:
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
के हज़ारों सजदे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में
फिल्म संगीत सुनने वाले इस कव्वाली का
आनंद लेते हैं मगर उन्हें यदि फिल्म से इतर इसकी पृष्ठभूमि बहुतों को मालूम नहीं। पीएचडी
किए हुए इकबाल से जब लोगों ने पूछा
कि डॉक्टर साहब आप तो नमाज़ ही नहीं पढ़ते हैं, क्यों? तो उनके जवाब में इकबाल ने यह नज़्म लिखी। इसमें वे कहते हैं खुदा सामने आए
तभी मैं प्रार्थना में
झुकूं। मुंतज़र (खुदा) की हकीकत सामने आए तो ही मैं सज़दे करूंगा (और ऐसा होने के)
इंतज़ार में मेरी ज़ुबान पर हजारों प्रार्थनाएं मचल रही हैं।
मोमिन खाँ मोमिन का एक मशहूर शेर
है जिसके लिए गालिब ने कहा था कि इस इस शे’र के बदले वे अपना सारा दीवान
देने को तैयार हैं :
तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं
होता
इसी का उपयोग हसरत जयपुरी ने अपने एक गाने
के मुखड़े में किया जिसकी पहली पंक्ति बड़ी क्लिष्ट प्रतीकात्मक उर्दू में थी : ओ मेरे शाहे खुबां ओ मेरी जान-ए-ज़नाना फिर उन्होंने इसमें जोड़ा तुम मेरे पास होते हो कोई दूसरा नहीं होता। फिल्म‘लव इन टोक्यो’(1966/मोहम्मद रफी/शंकर जयकिशन)। भले ही लोग इस मुखड़े की पहली पंक्ति का शब्दार्थ न जानें मगर भाव समझ जाते हैं और गाने के
आनंद में इससे कोई कमी नहीं आती।
जॉय मुखर्जी की एक फिल्म थी ‘एक मुसाफिर एक हसीना’ (1962)। भले ही यह फिल्म बॉक्स
ऑफिस पर कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी मगर ओ. पी. नय्यर के संगीतबद्ध किए गानों ने जो कयामत बरपाई उसकी गूंज आज भी कम
नहीं हुई है। इसमें शेवन रिजवी ने एक गाने में अमीर खुसरो की कुछ पंक्तियों का उपयोग किया था। खुसरो की फारसी पंक्तियां हैं ‘ज़ुबान-ए-यार मन तुर्की, व मन तुर्की नमी दानम’। इसी को शेवन रिजवी
ने अपने गाने के अंतरों के बीच चार बार डाला। नय्यर के संगीत में इतना खूबसूरत गाना
बना कि न सुनने वालों ने और न उसे गुनगुनाने वालों ने पूछा कि इस पंक्ति का मतलब
क्या है। यह पंक्ति प्रेमी और प्रेमिका के बीच भाषा की मुश्किल को बयान करती है कि बात कैसे हो। दोनों
एक दूसरे की ज़ुबान नहीं समझते। तो महबूब कहता है मेरे यार की ज़ुबान तुर्की है, काश उसके मुंह में भी
मेरी ही ज़ुबान (भाषा) होती।
जॉय मुखर्जी की पहली फिल्म ‘लव इन शिमला’ (1960) फिल्म भी सफल हुई और फिल्म की नायिका साधना के बालों का कट देश भर में क्रेज़ बन गया
और साथ ही इकबाल कुरैशी के संगीत से सजे गानों की भी जबर्दस्त धूम रही। गीतकार
राजेन्द्र कृष्ण ने एक गीत में तो उर्दू की वर्णमाला ही लिख दी। संगीतबद्ध हो कर
यह गाना खूब चला और लोगों ने उसे गुनगुनाया भी। यह गाना था‘आलिफ़ ज़बर आ आलिफ़ ज़ेर आ आलिफ़ पेश ओ... आलिफ़ से अब्बन’। मगर किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि उसका
अर्थ क्या है क्योंकि फिल्मी गानों के आनंद में भाषा कभी आड़े नहीं आती।
मगर ज़माना बदला, भारतीय सिनेमा बदला उसकी ज़ुबान बदल गई अब बाज़ार को अंग्रेजी भाती है तो वही छा रही है। फिल्म संगीत में नज़ाकत, नफासत, मेलोडी गुम हो गई है।
लगता है आखरी बार गुलज़ार की उर्दू सुनी फिल्म ‘दिल से’ (1998) में ‘वो यार है जो खुशबू की
तरह जिसकी जुबां उर्दू की तरह।
(यह आलेख कला, संस्कृति और पर्यटन को समर्पित पत्रिका ‘स्वर सरिता’ के जनवरी 2017 अंक में छपा)
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