पुस्तक समीक्षा : समाज का आज : किसका सच
राजेंद्र बोड़ा
कोई मुझसे पूछे कि भाई तुम्हारे हाथ में यह किताब है – वह काहे की किताब है तो मुझे कोई जवाब नहीं सूझेगा। किस श्रेणी में इस
किताब को रखा जाय? यह आलोचना नहीं है। यह यात्रा वृतांत नहीं है। यह व्यंग्य भी नहीं है। उपन्यास
या कहानी भी नहीं है। तो यह किताब क्या है? लोग खांचों में समझने की अपेक्षा करते हैं। हम कह सकते हैं कि यह वृतांत है। लेकिन इसमें एक नहीं
अनेकों वृतांत हैं। तो यूं समझ लें कि यह किताब वृतांतों का संकलन है।
पुस्तक के परिचय में
पाठक से यह साझा नहीं किया गया है कि ये वृतांत किसी दैनिक अखबार में साप्ताहिक कॉलम के रूपमें छप चुके हैं।
लेकिन इन आलेखों को देख कर समझा जा सकता है कि वे किसी पत्र के लिए नियमित रूप से लिखे गए होंगे क्योंकि वे एक बंधे हुए
फॉर्मेट में हैं और उनका विस्तार सीमित है। सभी आलेख आम तौर पर हज़ार शब्दों के आस-पास है। इससे हम समझ सकते हैं कि लेखक को शब्दों की एक सीमा
में अपनी बात कहनी है और बात रंजक तरीके से भी कहनी है। प्रत्येक आलेख में
लेखक अपनी टिप्पणी किसी प्रसंग से उठाता है। वह सामान्यतः सूचना
माध्यमों में आई बातों के ज़िक्र से पाठक से बतलस करता है जिसे वह अपने किसी पुराने प्रसंग से जोड़ देता है। आज के संचार माध्यमों की भाषा में कहें तो लेखक विगत प्रसंगों का
तड़का लगाता है।
इस पुस्तक के सभी लेख उन पाठकों के लिए हैं जो मध्यम वर्ग – खासकर उच्च मध्यम वर्ग - से आते हैं। ऐसे पाठक जो नई यंत्र तकनीकों का
सामान्य ज्ञान रखते हैं, भले ही उनमें वे बहुत
पारंगत न हों। मगर वे नए जमाने की खबरों से बाबस्ता रहते हैं, जैसे वे सनी लियोन को
जानते है और अपने परिवार के साथ मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स
में जाते हैं और पॉप कॉर्न खाते हुए ‘दंगल’ और‘बाहुबली’जैसी फिल्में देखते है। यही पाठक वर्ग
वर्तमान समाज का आज भी है और सच
भी है।
किताब पर ही कह दिया गया है कि यहां निर्णय नहीं है। पुस्तक के परिचय में कहा गया है कि “जिस वर्तमान को हम ओढ़ते-बिछाते हैं, अपने गंभीर विचार विमर्श में हम उसी से परहेज करते हैं”। फिर आगे कहा गया है कि “यह किताब अलग है – यह अपने आसपास को उलट-पलट कर
देखती-परखती है। यहां निर्णय नहीं है”। तो क्या हम यह मानें कि किताब के आलेख अनिर्णय वाला विमर्श है।
जैसा कि हमने कहा किताब में संकलित लेख फुटकर लेख है जिनमें फुटकर प्रसंग हैं। शैली किस्सागो की है। सभी आलेखों में
रंजक एकरसता है।
यह किताब ऐसी नहीं है कि जिसे अनिवार्य तौर पर पहले आलेख से पढ़ना
शुरू किया जाय और पाठों को क्रम वार पढ़ते हुए अंत तक पहुंचा जाय। पूरी किताब एक बार में भी
पढ़ी जा सकती है और टुकड़ों में भी। इसमें कोई कथाक्रम नहीं है। किताब को किसी भी सिरे से, कहीं से भी,
किसी भी पाठ से पढ़ना शुरू किया जा सकता है। एक बैठक में न भी पढ़ें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जब मर्जी आए और
आपके पास समय हो किताब को कहीं से भी खोल लीजिये और जो पाठ सामने आए वही से पढ़ लीजिये हां लेखक
की मीठी शैली की एक अविरल धारा है जो शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखती है। इसे पढ़ना आनंददायक होगा।
क्योंकि लेखक की शैली रस पूर्ण है रंजक है, सरल है।
आलेखों में पुरानी यादें उभरती हैं जो गुदगुदाती है और पाठक के मुंह पर हल्की मुस्कान लाती है। चुने गए प्रसंग
रोचक हैं जिनमें लेखक अपने सरकारी मुलाज़मत और शिक्षक के रूप में हुए खट्टे-मीठे
अनुभवों का सहज रूमानियत के साथ साझा करता है कि‘क्या ज़माना था वो भी’। इसीलिए कवि दिनकर से हुई मुलाक़ात की जो याद रह गई वह है ‘न कल बहुत अच्छा था न आज बहुत बुरा है’।
ये किताब लेखक का सम्पूर्ण आत्मकथ्य भी नहीं है। अपनी यादों की वही चीजें लेखक साझा करता है जो सुखद है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिकतर
हमारा मस्तिष्क वही चीजें याद रखता है जो सुखद होती हैं। पीड़ादायक चीजों की यादों को वह यकायक
उभरने नहीं देता। हालांकि इन आलेखों में अनेकों असहज घटनाओं का भी ज़िक्र है मगर लेखक ने उन्हीं बातों का
साझा किया है जिन्हें वह आज हल्की मुस्कान के साथ याद कर सकता। वैसे भी भारतीय
काव्य शास्त्र और नाट्य शास्त्र में ट्रैजेडी को कला रूप की मान्यता नहीं दी गई है।
लेखक बड़ी सतर्कता से कोई स्टैंड लेते हुए भी नहीं लेता हुआ नज़र आता है। जैसे ‘बुरा समय आ गया है’ लेख में वह कहता है: “मुझे लगता है कि बुरे वक़्त कि बात करना हमारी आदत का हिस्सा बन चुका है, अन्यथा वक़्त इतना भी बुरा
नहीं है”। आगे लेखक कहता है – “मैं नहीं कह रहा कि समय बदला नहीं है। शायद कुछ चीजें बदतर भी
हुई हैं (यहां लेखक शायद कह रहा है) लेकिन
उनकी चर्चा और शिकायत करते हुए जो बेहतर हुई हैं उनकी अनदेखी करना अपने ही प्रति
अन्याय है – इसे भी समझना होगा”। लेखक इस झमेले में
नही पड़ता कि यह “इतना भी बुरा” समय कितना होता है और किसके लिए होता
है।
लेखक इन आलेखों में बार-बार अपनी सफाई भी देता चलता है। जैसे एक जगह वह कहता है “यह भी याद रखिए कि ज़िंदगी हमेशा स्याह सफ़ेद ही नहीं होती। उसके और भी अनेक रंग होते हैं। तब आप अपने विवेक से ही
चुनाव करते हैं”। कह सकते हैं कि यही तो सच्चा लोकतन्त्र
है – चुनने की आज़ादी। बाज़ार भी चुनने की आज़ादी की दलील देता है। लेखक अपना विवेक
नहीं थोपता – उसे रखता जरूर है मगर फैसला पाठक पर छोडता है। लेखक इस बहस के पचड़े
में भी नहीं पड़ता की क्या बाज़ार ऐसा विवेक हम में रहने भी देता है? मगर सभी आलेखों में लेखक मानवीय पक्ष के साथ खड़ा है और उसे भविष्य की बेहतर
दुनिया पर शंकाग्रस्त भरोसा है।
पुस्तक शुरू से आखिर तक एक बंधी हुई शैली में है जो पाठक को
मोनोटोनी या ऊब दे सकती है। अखबार में जब ये आलेख छपे तब दो आलेखों के बीच कम
से कम एक सप्ताह का अंतराल रहा होगा। इससे उनमें
शैली की नवीनता बनी रहती है। लेकिन यदि इन्हें एक साथ पढ़ने बैठें तो कुछ अध्यायों के
बाद आप लेखक का रुझान समझने लगते हैं और आपके लिए आगे वह जो कुछ कह रहा है वह सब ‘ओब्वियस’ हो जाता है।
लेखक की कलम में अद्भुत सौम्यता और सरलता झलकती है। मगर उसकी यह सौम्यता और सरलता के नीचे उसके आत्मविश्वास और स्वाभिमान प्रकट करने की इच्छा भी स्पष्ट हो जाती है। लेखक बड़े प्रेम भाव से और सौम्यता से अपनी बात कहते हुए इस बात
की भी सतर्कता बरतता हैं कि उसका इरादा किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं है। यह उसका बड़प्पन है। उसके आलेखों में आशावाद
की सुखद छांव भी है जिसके तले वह विशुद्ध पूंजी के बाज़ार से पोषित और संचालित जयपुर लिट्रेचर
फेस्टिवल को भी सहज रूप से स्वीकार कर लेता है।
पुस्तक के सभी लेखों में आज की बातें हैं। मगर साथ ही विगत की गुदगुदाहट भी है।
जब लेखक आज के नज़रिये से बीते कल को देखता है तो तटस्थ भाव रखता है मगर दूसरी अनुकूलता
में इस तटस्थता को त्याज्य भी बताता है। फिर वह यह संकेत जरूर देता चलता है कि वह कैसा भविष्य चाहता है। इस तरह वह निरपेक्ष भी नहीं है।
किताब के परिचय में कहा गया है कि इसमें निर्णय नहीं है। शायद इसीलिए 270 आलेखों के संकलन में अनेकों आलेख “क्या” शब्द और सवालिया निशान के
साथ खत्म होते हैं।
बंधे हुए फॉर्मेट -नियमित स्तम्भ - की शब्द सीमा में लेखक सतही तौर पर ही चीजों को देख सकता है। उनके संकलन की इस पुस्तक को “गल्प” भी कह सकते हैं। किताब पर ही कहा
भी गया है कि इस किताब का गद्य “आपसे बतियाता गपियाता हुआ है”।
नए जमाने के बदलावों से लेखक आतंकित नहीं है। लेकिन पाठक के मन
में यह सवाल जरूर उठता है कि लेखक किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है? यहां यह सवाल थोड़ा सा
अनुचित लग सकता है कि इस पुस्तक का लेखक किसका प्रतिनिधित्व
करता है? वह इतना निरपेक्ष दीखता हुआ भी इतना संलग्न क्यों है?
जिस लोक की निजता में वह जाता है और जिस लोक की रंजक
दैनंदिन उठापटक से वह पाठक को सरोबार करता है और वह जिस लोक से बाबस्ता है वह उस वर्ग का लोक है जिसके पास दैनिक जरूरतों को पूरा कर लेने के बाद गैर
जरूरी चीजों पर खर्च करने के लिए अतिरिक्त पैसा है। इन आलेखों में जिनका ज़िक्र आया
है या जिनको संबोधित करते हुए बात कही गई है वे तंगहाली, बदहाली या मुफ़लिसी में गुजर बसर करने वाले मजलूम वर्ग के लोग नहीं हैं। जिस संसार का इन
आलेखों में प्रस्तुतीकरण है वह संसार साघन सम्पन्न लोगों का हैं। इस वर्ग का संसार पूरा समाज नहीं है। समाज में वे अल्पसंख्यक हैं। मगर
उनके पास पैसे की हैसियत है इसलिए वे समाज की नैतिकता के प्रतिमान घड़ते है। सदा से ऐसा होता आया है। इसीलिए पुस्तक में किसी भी पीड़ा की सघन
अभिव्यक्ति नहीं है। पीड़ा की सूचना भर है। यही इन्फोटेनमेंट आज के अखबार का
धर्म भी है और मर्म भी।
इन आलेखों में करारा व्यंग नहीं है, कटाक्ष भी नहीं है। हां लेखक जिस लोक से संवाद करता है उससे मसखरी
जरूर करता चलता है। और मसखरी अपनों से ही होती है। किताब में जिस लोक की कहानियां हैं उससे लेखक का अपनत्व सघन है। यहां इस लोक की सामाजिक नैतिकता पर कोई सवाल नहीं है। जैसा कि देश
की सर्वोच्च अदालत के एक महत्वपूर्ण निर्णय में कह चुकी है कि समाज की टोलरेंस लिमिट स्थायी नहीं होती। वह समय
के साथ बढ़ती जाती है। और समाज के आज की टोलरेंस लिमिट लेखक को सहज रूप से मंजूर है।
किसी आलेख में लेखक तटस्थता की बात करते
हुए इसका अर्थ तट पर स्थित रहना बताता है। सागर में हो रही उथल पुथल से दूर। वह सिर्फ देखता भर है। वह निरपेक्ष है। समाज का यही आज है और यही आज के समाज
का सच भी है। जो आज है वही तो सच होता है। यही इस पुस्तक का सच है।
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