हिंदुस्तानी फिल्म संगीत में सरोद की गूंज
राजेंद्र बोड़ा
सरोद वादन की दो प्रमुख पद्धतियां प्रचलन में हैं।
एक ग़ुलाम अली खान की शैली और दूसरी अल्लाउदीन खान की शैली। दोनों के सरोद की साइज़, उसका आकार तथा उस पर कसे तारों की संख्या भिन्न हैं। दोनों का वाद्य
यंत्र बजाने तथा उसे सुर मिलाने का तरीका भी अलग-अलग है।
सरोद की उत्पत्ति के बारे में अनेक बातें कही जाती
है। अधिकतर ऐसा माना जाता है कि भारतीय सरोद का मूल अफगानी रबाब में है जो सरोद से
आकृति में छोटा और तंबूरे जैसा होता है जिसे अफगन लोग युद्ध में जाते वक़्त बजाते
जाते थे।
कहते हैं बंगेश जनजाति के तीन अफगन घुड़सवार कोई सवा दो सौ साल पहले रबाब
ले कर हिंदुस्तान आए थे और उत्तर भारत राजाओं के यहां सैनिकों की नौकरियां करते
हुए यहीं बस गए। उनके संगीत के हुनर को यहां पहचाना गया और राजाओं के दरबारों में
उनकी पहचान बनने लगी। इन तीनों के परिवारों में उनके बाद भी रबाब बजाने की परंपरा
जारी रही। लेकिन जैसा कि कला और संस्कृतियों के संपर्कों से नयी-नयी चीजें बनती
हैं अफगानी रबाब वाद्य पर भी भारतीय वाद्यों का प्रभाव पड़ा, खास कर वीणा का, जिससे रबाब का सरोद के रूप में
विकास हुआ। किसी वाद्य के विकास की बात करें तो उसमें उसका परिष्कार निहित्त है। रबाब
में जो कमी हिंदुस्तानियों को शायद लगी वह थी कि उसके तार के छेडने पर स्वर निकलता
है उसकी गूंज नहीं बनी रहती। हिन्दुस्तानी तार वाद्यों में यह विशेषता होती है कि
तार को छेडने पर स्वर की अनुगूंज देर तक बनी रहती है। रबाब में देसी संगीत के
चारित्र्य को प्रस्तुत कर सकने वाला बनाने तथा उसकी ध्वनि को उन्नत करने के लिए
उसमें तीन प्रमुख बदलाव लाये गए जिससे वह सरोद के रूप में प्रतिस्थापित होने लगा।
ये तीन बदलाव थे उसके तारों और उन पर उंगलियां चलाने वाले बोर्ड को धातु का बनाया
जाना और उसमें सिंपाथेटिक तारों का जोड़ा जाना। बाद में उत्तर भारतीय उस्तादों ने
अपने-अपने हिसाब से उसमें और परिवर्तन किए। जैसे मैहर घराने के उस्ताद अल्लाउदीन
ने उसकी टोनल क्वालिटी को बेहतर बनाने के लिए जो किया उससे यह वाद्य वीणा की तरह
लाग्ने लगा।
लेकिन संगीत के इतिहासकारों की दूसरी धारा इस बात
से इत्तेफ़ाक़ नहीं करती कि सरोद के उद्गम का स्रोत अफगानी रबाब में है। वे कहते हैं
कि रबाब जैसे वाद्य दक्षिण भारत के तमिलनाडु, केरल और कर्णाटक
आदि राज्यों में पहले से ही मिलते रहे हैं। उनका यह भी दावा है कि छटी शताब्दी के
भारतीय मंदिरों की मूर्तियों में सरोद की अनुकृतियां मिलती है। इसलिए यह कहना ठीक
नहीं है कि सवा दो सौ बरस पहले भारत में आए रबाब से सरोद विकसित हुआ।
अब हम देखेंगे हिन्दुस्तानी सिने संगीतकारों ने
सरोद का किस भांति उपयोग गानों में किया। आम तौर पर फिल्मी गानों में भारतीय
वाद्यों की बात चलती है तो सितार, तबला,
बांसुरी, शहनाई, इकतारा और सारंगी की
चर्चा होती है और श्रोता भी उन्हें आसानी से पहचान भी लेते हैं। मगर सरोद की आवाज़
किस गाने में प्रमुख रूप से अपने सुनी यह पूछ लिया जाय तो दिमाग पर बहुत ज़ोर डालने
पर भी अचानक कोई गाना याद नहीं आता। लेकिन यह बात भी सच है कि उन गानों ने खूब धूम
मचाई जिसमें सरोद बजा। सच तो यह भी है कि सरोद के चोटी के उस्तादों ने अन्य
संगीतकारों के निर्देशन में फिल्मी गानों के लिए बजाया ही नहीं बल्कि खुद भी
फिल्मों में संगीत दिया। और जब कोई सरोदिया किसी फिल्म का संगीतकार हो तो उसके
स्वरबद्ध किए गानों या फिल्म के पृष्ठभूमि संगीत में सरोद क्योंकर न बजे।
हिंदुस्तानी फिल्म संगीत के अग्रदूत माने जाने वाले
बंगाल के संगीतकार तिमिर बरन जिन्होंने भारतीय वाद्य यंत्रों को लेकर पहला फिल्मी
ऑर्केस्ट्रा बनाया वे अत्यंत गुणी सरोदिये थे। हालांकि उन्हों ने पहले राधिका प्रसाद
गोस्वामी से सरोद की तालीम ली मगर वे 1920 के दशक में उस्ताद अली अकबर खान के
शुरुआती शिष्यों में से एक थे। भारतीय नृत्य को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले
उदय शंकर जब अपनी नृत्य टोली लेकर पहली बार विदेश गए तब तिमिर बरन उनके साथ बतौर
संगीत निर्देशक साथ गए। बाद में उन्होंने सरोद वादक के रूप में यूरोप, अमरीका तथा दक्षिण पूर्व एशिया का दौरा किया।
उनके संगीत वाली 1935 की फिल्म ‘देवदास’ में केदार शर्मा के लिखे और कुंदनलाल सैगल
के गाये गीत ‘बालम आन बसो मोरे मन में’
तिमिर बरन का बजाया सरोद सुना जा सकता है। कैसी दिलचस्प बात है कि इसके बीस साल
बाद बिमल रॉय ने जब फिर से ‘देवदास’
फिल्म बनाई तो उसमें संगीतकार सचिन देव बर्मन के लिए बरन के गुरु उस्ताद अली अकबर
खान ने लता मंगेशकर के गाये ‘ओ जाने वाले रुक जा कि दम’ गाने में सरोद का टुकड़ा बजाया।
उस्ताद अली अकबर खान की बात चली है तो यह जान लेना
जरूरी है कि जोधपुर दरबार में आठ वर्षों तक अपने वाद्य की घमक को बनाए रखने वाले
अली अकबर खान ने आज़ादी के बाद 1952 और 1953 में में देव आनंद की निर्माण संस्था ‘नव केतन’ की दो फिल्मों क्रमश: ‘आंधियां और ‘हम सफर’ में संगीत
दिया। जब कोई सरोदिया फिल्म में संगीत दे और उसमें सरोद न बजे ये कैसे संभव है।
वर्ष 1952 में आई ‘आंधियां’ में उस्ताद अली अकबर खान ने पहली बार फिल्म संगीत दिया। न केवल फिल्म की
नामावली की पृष्ठभूमि में हम उनका सरोज बजता सुन सकते हैं बल्कि लता मंगेशकर के
गाये मीठे गीतों में भी सुन सकते हैं। उनकी नव केतन के लिए दूसरी फिल्म ‘हमसफर’ थी जिसमें साहिर लुधियानवी के लिखे और गीता
दत्त के गाये गाने ‘हसीन चांदनी भीगी भीगी हवाएं’ की धुन में अली अकबर खान साहब का बड़ी ही खूबसूरती से पिरोया हुआ सरोद गूँजता
है।
बाद में उस्ताद अली अकबर खान पूरी तरह शास्त्रीय
संगीत को समर्पित हो गए। सचिन देव बर्मन ने उनसे ‘देवदास’ (1955) के लिए सरोद बजवाया था और बाद में ओ पी रल्हन की बड़े बजट की फिल्म
‘तलाश’ (1969) में उसके शीर्षक गीत ‘तेरे नैना तलाश करे जिसे’ (मन्ना डे/मजरूह
सुल्तानपुरी) के लिए सरोद बजाने के वास्ते विख्यात महिला सरोद वादक ज़रीन दारूवाला
को बुलवाया। ज़रीन ने लगभग सभी बडे सिने संगीतकारों के लिए फिल्मों में बजाया।
संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन ने हिंदुस्तानी फिल्म
संगीत को नयी रवानगी दी। उनका संगीत का जादू आज भी लोगों को अपनी गिरफ्त में लिए
हुए हैं। उनकी संगीत रचनाओं में चपलता भी है, लोक की उमंग भी
है तो साथ में जबर्दस्त गहराई भी है। उन्होंने ‘सीमा’ फिल्म के गानों में जिस प्रकार सरोद का एकल प्रयोग किया वह अद्भुत है। ‘सुनो छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी जैसे तारों की बात सुने रात सुहानी’ (लता मंगेशकर/शैलेंद्र) को सुनें तो जिस प्रकार सरोद के तारों की झंकार
के साथ इस संगीतकार जोड़ी ने प्रिल्यूड से गाने को उठा कर उसे कालजयी बनाया है उसे
सुनकर आज भी उन्हें सलाम करने को जी चाहता है।
जरीन दारूवाला के सरोद का जादू शंकर जयकिशन के
संगीत से सजी लेख टंडन की ‘आम्रपाली’ (1966) में जम के छाया। इसका यह गीत ‘तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी/ तुम ले गए हो अपने संग नींद भी
हमारी’ लता मंगेशकर के श्रेष्ठ गानों में शुमार किया जाता
है। लता ने बड़ी ही रूमानियत से शैलेंद्र के शब्दों की भावनाओं को स्वराभिव्यक्ति
दी है। इसमें शंकर जयकिशन ने जरीन दारूवाला के सरोद और जे. वी. आचार्य के सितार की
जुगलबंदी इस तरह से गूंथी डाली है कि वह इस अर्द्ध शास्त्रीय गीत को किसी और ही
धरातल पर ले जाती है।
संगीतकारों की दूसरी सफलतम जोड़ी लक्ष्मीकांत
प्यारेलाल का भी फिल्म संगीत को अवदान कौन नकार सकता है। उनके संगीत में भी शंकर
जयकिशन के संगीत की भांति विविधता मिलती है। उन्होंने ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ (1978) के शीर्षक गीत में
सरोद का कमाल का उपयोग किया है। लता मंगेशकर हमेशा की तरह इस गाने में भी अपनी सभी
खूबियों के साथ श्रोताओं को सुरों के आकाश पर ले जाती है। प्यारेलाल के सुघड़
वाद्यवृंद संयोजन में यह गीत सरोद के स्वरों के साथ शुरू होता है और उन्हीं पर
समाप्त ही होता है। बीच में इंटरल्यूड में भी सरोद की धमक बनी रहती है। लगता है
जैसे सरोद की रत्नजड़ित तश्तरी पर इबादत के फूलों की मानिंद इस गीत को यह संगीतकार
जोड़ी ऊपर उठानी है और प्रेम से लता मंगेशकर को संभलाते है जो बहुत ही सहज तरीके से
उसे बुलंदियों पर ले जाती है। संगीत जब यह संसार रच रहा होता है तब आनंद बक्शी के
शब्द फिल्म के कथानक की भावनाओं को दर्शकों के दिलों में उतार देते हैं। इस गीत
में सरोद बजाया था उस्ताद अली अकबर खान के शागिर्दों में से एक पंडित बृज नारायण
ने जो सारंगी के उस्ताद मास्टर राम नारायण के बड़े बेटे हैं।
व्ही शांताराम की फिल्म ‘नवरंग’ (1959) में संगीतकार सी. रामचंद्र ने भी सरोद
का बेहतरीन प्रयोग किया। ‘नवरंग’ का
श्रंगारिक रूप लिए हुए राग खमाज में स्वरबद्ध किया हुआ यह गीत रसिकों को आज भी
जरूर याद होगा ‘आ दिल से दिल मिलाले,
इस दिल में घर बसा ले’ (आशा भोसले/भरत व्यास)। खलनायिकाओं के
लटकों-खटकों को जीवंत कर देने वाली आशा भोसले को पूर्णत: लता को समर्पित सी.
रामचंद्र इस गीत में अलग रंग में प्रस्तुत करते हैं। आम तौर पर फिल्मी गानों में
जो वाद्य बजते हैं वे पर्दे पर नज़र नहीं आते। पियानो, गिटार, सितार तबला, या ट्रंपेट जरूर पर्दे पर दिख जाते
हैं। ‘नवरंग’ के इस गाने में सरोद भी
परदे पर उपस्थित है। परदे पर एक महिला पात्र यह गीत गा रही है और एक पुरुष पात्र
सरोद बजाते हुए उसका साथ दे रहा है।
सरोद को फिल्म के परदे पर देखना हो तो हेमेन गुप्ता
की देव आनंद और गीता बाली अभिनीत 1954 की फिल्म फ़ेरी (कश्ती) देखी जा सकती है।
उस्ताद अली अकबर खान के सरोद और निखिल बनर्जी के सितार की जुगलबंदी का आनंद भी
लिया जा सकता है। परदे पर देव आनंद सरोद बजा रहे हैं और गीता बाली सितार पर हैं।
इस दृश्य की एक दिलचस्प बात यह भी है कि दोनों के साथ तबले पर एक छोटा बालक है। यह
बालक संगीतकार हेमंत कुमार का बेटा जयंत मुखर्जी है।
बासू चटर्जी की फिल्म ‘रत्न दीप’ (1979) बॉक्स ऑफिस पर तो कोई करिश्मा नहीं
कर पाई मगर संगीतकार राहुलदेव बर्मन ने उसके गुलज़ार जे लिखे गीत ‘कभी कभी सपना लगता है, कभी ये अपना लगता है’ पर तो सरोद को नक्काशी के तरह टांका था।
(यह आलेख कला और संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘स्वर सरिता’ के मार्च, 2019 अंक
में छपा)
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