बैंक ऑफ पोलमपोल
राजेंद्र बोड़ा अरसे बाद कोई कथा साहित्य पढ़ा। यह अनायास ही हुआ। लेखक के रूप में प्रतिष्ठित भाई वेद माथुर ने कृपा पूर्वक अपना उपन्यास ‘ बैंक ऑफ पोलमपुर ’ भेजा। वह कल ही मिला और उसे पढ़ना शुरू किया तो उसे समाप्त करके आधी रात बाद ही सोना हुआ। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कितना दिलचस्प है। वेद माथुर पंजाब नेशनल बैंक में 40 साल का सफर तय कर महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए है और उनका कहना है कि उन्होंने इतने लंबे वर्षों के अनुभवों की पोटली इस उपन्यास में खोल दी है। इस उपन्यास में सब कुछ उस प्रकार से है जिस प्रकार से इस देश के आम नागरिक के मन में बैंकों के बारे में छवि बनी हुई है। लेखक एक सड़ी-गली व्यवस्था पर से भरम की चादर उठा देता है जिसके नीचे हम पाते हैं कि तंत्र का कोई पुर्जा ठीक से नहीं काम कर रहा है। काल्पनिक पात्रों को हटा दें तो उपन्यास बैंकों के कामकाज पर किसी अखबार का लंबा लेख हो सकता है जो कई दिनों तक क्रमशः छपे। इसलिए यह हास्य उपन्यास गंभीर है। उसमें कही गई बात हल्के-फुल्के अंदाज़ में भले ही कही गई हो मगर वह गहरी है। बैंक ऑफ पोलमपुर को “ हास्य उपन्यास ” बताया गया ह...