क्लेरिनेट नवाज़ मास्टर इब्राहिम
राजेंद्र बोड़ा
आखिर राजस्थान के जाये क्लेरिनेट वादक मास्टर इब्राहिम पर लिखी किताब हमारे हाथ में आ ही गयी। रात उसे पूरा पढ़ भी लिया। किताब छोटी सी है, पर कहते हैं ना कि “गागर में सागर” कुछ ऐसा ही है इसमें। क्लेरिनेट के अद्भुत वादक मास्टर इब्राहिम के बारे में आपको जो जानकारी चाहिए वह इसमें उपलब्ध है।
जैसे ही पता
चला कि सिनेमा के दीवाने प्रो. सुरजीत सिंह, जिनका कर्मक्षेत्र सैद्धांतिक भौतिकी रहा है, की क्लेरिनेट वादक मास्टर इब्राहिम पर लिखी किताब प्रकाशित हो कर
https://store.pothi.com/.../professor-surjit-singh.../ पर उपलब्ध हो गयी हैं तो उसका तुरंत
ऑर्डर किया गया और फिर इंतज़ार। और जब किताब हाथ में आई तो उस खुशी का अंदाजा कोई
किताबों का रसिक ही लगा सकता है।
लोक
स्मृति से लुप्त मास्टर इब्राहिम ने पिछली सदी के चौथे, पांचवें और छठे दशक में
लोकप्रिय फिल्मी गानों को अपने साज पर बजा कर धूम मचा रखी थी। एचएमवी ने उनके
क्लेरिनेट पर बजाए फिल्मी गानों के 78 आरपीएम के सैकड़ों रिकॉर्ड जारी किए। बाद में
उनके बजाए गानों के संकलन का दो सीडी का सैट भी जारी किया। रेडियो सीलोन के दैनिक
प्रसारणों में तो उनकी तूती बोलती ही थी। वे आकाशवाणी, मुंबई
से 1936 से 1974 तक रोज क्लेरिनेट पर शास्त्रीय रागें प्रस्तुत करते रहे।
इब्राहिम
साहब के तीन बेटों सलीम इब्राहिम, फारूक इब्राहिम, और इकबाल इब्राहिम ने अपने पिता के
दस्तावेजों को बड़े सलीके से संभाल रखा है जिन्हें इस सचित्र किताब में खूब स्थान
दिया गया है। जैसे आकाशवाणी का 1946 का अनुबंध पत्र, खरीदे
गए क्लेरिनेट वाद्य का गारंटी कार्ड, और 2 सितंबर 1936 का
श्री रणजीत मूवीटोन का वह सर्टिफिकेट भी कि मास्टर इब्राहिम ने उनके संगीत विभाग
में मन लगाकर तीन साल तक नियमित काम किया और कंपनी उनकी सेवाओं से संतुष्ट है तथा
उनके अच्छे भविष्य की कामना करती है।
मास्टर
इब्राहिम उन विरले क्लेरिनेट वादकों में से थे जिन्होंने इस विदेशी वाद्य पर
भारतीय शास्त्रीय संगीत बजा कर साबित किया कि कोई कलाकार मेहनत और लगन से क्या कुछ
नहीं कर सकता। प्रो. सिंह ने अपनी पुस्तक में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में हुए
शांति रावल के उस पीएचडी शोध प्रबंध का भी विस्तार से जिक्र किया है जो मास्टर
इब्राहिम के क्लेरिनेट पर शास्त्रीय संगीत के अवदान पर है।
किताब से
पता चलता है कि मास्टर इब्राहिम ने क्लेरिनेट वादक के रूप करीब 6,000 फिल्मी गानों में
योगदान दिया ही साथ ही उन्होंने दो फिल्मों में स्वतंत्र रूप से संगीत भी दिया जो
थीं ‘परबत की रानी’ (1948) तथा ‘बिगड़े दिल’ (1949)। पहली फिल्म में पांच गाने थे
जबकि दूसरी में नौ गाने। परंतु अफसोस अब उनमें से एक भी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने फिल्म
‘उठो जागो’ (1947), ‘कुंवारा पति’ (1950) और ‘एक्टर’ फिल्मों के लिए क्रमशः अज़ीज़ खान, सरस्वती देवी और अज़ीज़ हिन्दी के साथ मिल कर संगीत दिया और एचएमवी के लिए
गैर फिल्मी गानों की धुनें भी बनाई। उनकी अज़ीज़ नाजां की दो कव्वालियों का 78
आरपीएम रिकॉर्ड खूब चला। किताब के 11 पेजों में फैली है इब्राहिम के रेकार्डों की सूची।
मास्टर इब्राहिम
के क्लेरिनेट वादन के फन के अलावा हमें उनकी राजस्थानी जड़ों में भी दिलचस्पी रही।
इसलिए हमारी इस किताब के लिए प्रतीक्षा कुछ अधिक ही थी। किताब से पता चला कि वे एक
जमींदार परिवार से आते थे। अजमेर के पास किशनगढ़ के कांकणियावास में उनकी कृषि
ज़मीनें थी। उनका परिवार अजमेर में रहता था जहां मास्टर इब्राहिम का 1915 में जन्म
हुआ (निधन 20 सितंबर, 1980)। मगर अपनी धरती से उनका नाता बहुत कम रहा। जब वे चार साल के थे तब
उनके पिता रहमत अली अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को लेकर बंबई चले गए। लेकिन थोड़े ही
समय बाद वहां इब्राहिम की मां का निधन हो गया। पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया और
बंबई के पायधोनी इलाके में ही बस गए जो गुजराती और राजस्थानी लोगों की बस्ती थी।
वहीं मास्टर इब्राहिम बड़े हुए और छठी-सातवीं तक पढ़ाई की।
प्रो.
सिंह बताते हैं कि बालक इब्राहिम को शुरू से ही क्लेरिनेट से लगाव था। वह शादियों
में बैंड बाजों में बजता क्लेरिनेट मगन हो कर सुनता था। तो पिता ने एक दिन उसे 13
कुंजियों वाला क्लेरिनेट ला कर दिया। मगर बाजे से क्या होता है। संगीत भी तो आना
चाहिए। पिता ने उसे संगीत में निष्णात कराया शास्त्रीय उस्तादों से जैसे बन्ने खां
मेरठवाले और जीरे खां पानीपत वाले के साथ बैठा कर। इब्राहिम साहब ने क्लेरिनेट के
साथ सोप्रेनो,
सेक्सोफोन, ज़ायलोफोन, वाईब्राफोन और
जलतरंग भी सीखे।
प्रो.
सुरजीत सिंह की यह किताब हमें गर्व कराती है कि राजस्थान का यह बेटा बहुत मेहनती, ईमानदार और एक विनम्र
इंसान था। लेखक के लिए हमारे मन में इसलिए आदर है कि वे सिनेमा और सिने संगीत के
शुरुआती दौर के विस्मृत हो चुके कलाकारों के बारे में तथ्यात्मक जानकारियां एकत्र
करते हैं और उसे सोशल मीडिया पर साझा ही नहीं करते वरन् अच्छे से संयोजित करके शोधपरक
पुस्तकों के रूप में प्रकाशित भी करते रहते हैं। उनकी प्रत्येक पुस्तक विशेष होती
है।
पुस्तक
प्रकाशन का काम आसान नहीं है और बाज़ार के मुख्यधारा के प्रकाशकों को भूले बिसरे
कलाकारों पर किताबें निकालने की क्योंकर दिलचस्पी होगी। इसलिए प्रो. सिंह स्वयं
अपनी किताबें ‘पोथी’ के जरिये छपवा कर प्रकाशित करते हैं। पोथी वाले किताबें तैयार करते हैं
और शायद कम्यूटर से प्रिंट निकाल कर आदेशों की पूर्ति करते हैं। इसीलिए किताब के
प्रिंट चिकने कागज पर निकाले जाते हैं जो किताब को चमक दमक तो देते हैं पर उनके श्वेत
श्याम चित्र छपाई पर जरूर थोड़ा ज्यादा ध्यान मांगते हैं।
प्रोफेसर
सुरजीत सिंह को बधाई और शुभकमनाएं।
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