महबूब अली : सार्वजनिक जीवन में सादगी और ईमानदारी की मिसाल
राजेंद्र बोड़ा
महबूब अली, जिनका 80 वर्ष की आयु में गुरूवार को बीकानेर में निधन हो गया, बच रहे उन इने गिने राजनेताओं में थे जो जीवन पर्यंत अपने विचारों के प्रति निष्ठावान रहे और उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया और हमेशा जमीन से गहरे जुड़े रहे। ऐसा उन्होंने किसी मजबूरी में नहीं किया। उन्होंने सत्य और निष्ठा का कठोर जीवन खुद चुना. उसके लिए कभी पछताए भी नहीं।
तत्कालीन बीकानेर रियासत के मलकीसर गाँव में 1931 के दिसंबर माह के अंतिम दिन जन्मे महबूब अली, जिन्हें सभी प्यार से महबूब साहब कह कर पुकारते थे, जमीन से उठे ऐसे नेता थे जिन्हें काजल भरी सत्ता की कोठरी भी अपने रंग में नहीं रंग पाई। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान के साथ देश में 1977 में आपातकाल के बाद जो सत्ता परिवर्तन हुआ उनमें यदि महबूब साहब जैसे नेता और होते तो देश का आज नक्शा अलग होता। वे भैरोंसिंह शेखावत के नेतृत्व में राजस्थान में बनी पहली गैर कांग्रेस सरकार में मंत्री बने. उन्हें आज भी लोग “साइकिल वाले मंत्री” ने नाम से जानते हैं। राजधानी में अपने सरकारी आवास से सचिवालय में अपने आफिस तक, अपने मिलने जुलने वालों के यहाँ और सार्वजनिक समारोहों में वे साइकिल पर ही जाते थे. सादगी का यह उनका आडम्बर नहीं था. वे खुद ऐसे ही थे। उनको अन्य विभागों के अलावा महत्वपूर्ण जलदाय विभाग का कार्यभार मिला। भारी प्रलोभनों और दबावों के सामने वे अपने कभी नहीं झुके इसीलिए संगठित राजनीति के लिए वे हमेशा त्याज्य बने रहे।
अपने जीवन यापन की शुरुआत कृषि विभाग में चपरासी के रूप में करने वाले महबूब अली राजनीति के अभिजात्य वर्ग में कभी शामिल नहीं हो सके। उन्हें अपने विचारों से कोई नहीं डिगा सका। विचारों से वे ‘रेडिकल’ थे। इसका कारण उन पर एम एन रॉय का प्रभाव था। बीकानेर में छगन मोहता के वैचारिक आभामंडल में पनपी राजनेताओं और साहित्यकारों की पीढ़ी के वे प्रतिनिधि थे। रॉय द्वारा राजनैतिक दल ‘रेडिकल हयूमिनिस्ट पार्टी’ को भंग कर दिये जाने के बाद वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। उसमें दो फाड़ होने पर वे बीकानेर के एक अन्य समाजवादी नेता माणिकचंद सुराणा की तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए। बाद में जब दोनों पार्टियाँ मिली और समाजवादी पार्टी बनी तो वे उसे सदस्य रहे। आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी में जब समाजवादी पार्टी का विलय हो गया तो वे उसके सदस्य हो गए। जनता पार्टी के टुकड़े होने पर वे भैरोंसिंह शेखावत के कारण भाजपा में रह गए और उसके प्रदेश उपाध्यक्ष भी बने। मगर वहाँ ‘रेडिकल’ विचारों के कारण उनका गुजारा संभव नहीं था। भाजपा छोड़ कर वे कांग्रेस में शामिल हो गए। मगर वहाँ उन जैसे आज़ाद विचारों की वहाँ भी कहाँ जगह थी। बाद में कुछ अकादमिक लोगों ने मिल कर ‘सर्वोदय पार्टी’ बनाई तो वे उससे जुड़ गए। मगर वह पार्टी कागजों तक ही रह गई। इसीलिए अपने जीवन के अंतिम दशक में वे स्वतंत्र विचारक की तरह ही रहे।
उन्होंने पत्रकारिता भी की। वे बीकानेर से निकालने वाले कभी बड़े ताकतवर माने जाने वाले अख़बार ‘सप्ताहांत’ के बरसों संपादक रहे। बाद में बीकानेर के प्रमुख बुद्धिजीवियों के साझा प्रयास से शुरू हुए महत्वपूर्ण प्रकाशन ‘मरूदीप’ के भी संपादक रहे। जब वे मंत्री बन गए तब ‘मरुदीप’ के संपादन का जिम्मा प्रख्यात साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य ने संभाला। अंत तक महबूब अली की कलम के रंग ‘बीकानेर एक्स्प्रेस’ में नज़र आते रहे।
अपने जीवन और व्यवहार में वे जितने सहज और सरल थे अपने विचारों में उतने ही कठोर थे। कोई प्रलोभन, कोई दबाव उन्हें अपने विचारों के अनुसार चलने से नहीं डिगा सकता था। जब वे मंत्री बने तो बहुतों ने उन्हें एक मुस्लिम राजनेता के रूप में खुद को प्रस्तुत कराने का जबर्दस्त प्रयास किया मगर उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर ही एक सच्चा मुसलमान बने रहना पसंद किया और राजनीति में धर्म का भावनात्मक खेल नहीं खेला। ऐसा करना विरले राजनेताओं के बस में होता है। इसीलिए वे विरले राजनेता थे।
जलदाय विभाग के मंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम की कहानी आज कहें तो वह सपना सा लगती है। किस प्रकार उनकी मुहिम को रोकने के लिए धन का प्रलोभन और राजनैतिक दबाव आए और उन्होंने कोई समझौता नहीं किया उसकी मिसाल नहीं मिलती।
कई बार कोई व्यक्ति धन के प्रलोभन से नहीं, दबाव से नहीं मगर यारी-दोस्ती में अपने ऊसूलों से समझौता कर लेता है। मगर महबूब अली, जो बड़े मिलनसार और दोस्तों के दोस्त थे, अपने ऊसूलों के चलते दोस्तों की बात भी नहीं मानते थे।
महबूब अली जैसा मस्त मौला, फक्कड़ तबीयत का आदमी जो वैचारिक स्तर पर बड़ा गहरा हो उसे वर्तमान चलन की राजनीति में अजूबा ही माना जाता है। मगर ऐसे लोगों से राजनैतिक और सामाजिक मूल्य पूरी तरह तिरोहित होने से बचे रहते हैं। महबूब अली के चले जाने की पीड़ा इसलिए और घनी हो जाती है।
एक बार जलदाय विभाग की बजट मांगों पर विधान सभा में हुई बहस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था “ हम जब सड़क पर चलते हैं तो बीच-बीच में अपने पाँव से जमीन को खुरच कर देखते भी रहते हैं कि हम जमीन पर ही हैं ना। हवा में तो नहीं उड रहे है”। महबूब साहब कभी हवा में नहीं उड़े। हमेशा जमीन से जुड़े रहे। कष्ट सह कर भी अपने ऊसूलों से कभी समझौता नहीं किया। राजस्थानवासियों को अपने इस सपूत पर हमेशा गर्व रहेगा।
(यह आलेख जनसत्ता के दिनांक 25 फरवरी, 2011 के अंक में छपा)
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