होली का रंग गेर के संग

राजेन्द्र बोड़ा

होली का उत्सव अन्य सभी उत्सवों से अलग है। हालांकि सभी उत्सव वे समय होते हैं जब थोड़ी देर के लिए हम अपने जीवन की मुश्किलों को भुला कर कुछ आनंद में डूब जाते हैं। इसीलिए हमारे जीवन में उत्सवों का बहुत महत्व है। वे हमें अपनी संस्कृति से भी जोड़े रखते है। संस्कृति समाज को जोड़े रखने में बड़ी भूमिका निभाती है। उत्सवों में विभिन्न कलाओं के माध्यम से समाज के लोगो की प्रतिभाएँ भी सामने आती हैं।

सूर्य नगरी के नाम से विख्यात जोधपुर शहर को उत्सवों का की नगरी कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जोधपुर के लोगों को तो बस कोई मौका चाहिए उत्सव मनाने का। इसीलिए यहाँ हर रोज ही कोई न कोई धार्मिक या सामाजिक उत्सव चलता ही रहता है। यही कारण है यहाँ के लोगों में जैसा प्रेम भाव नज़र आता है वैसा अन्य जगहों पर कम ही देखने को मिलता है। यहाँ के वाशिंदों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनमें आपसी मेल बहुत है। यहाँ की मारवाड़ी भाषा ने सबको बड़ी खूबसूरती से इस तरह जोड़ रखा है कि अलग अलग समुदायों के लोगों में फर्क करना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में जब होली आए और जोधपुर के लोग एक दूसरे को रंगों में पूरी तरह सरोबार नहीं करें ऐसा हो ही नहीं सकता। इस दिन शहर की सदियों से चली आ रही परम्पराएं जीवंत हो उठती है।

होली की जोधपुर में बड़ी पुरानी परंपरा है ‘गेरों’ की। ‘गेर’ पुरुषों की टोलियाँ होती है जो चंग की थाप पर होली के गीत गाते हुए शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमती फिरती हैं। गेरें जहाँ से भी गुजरती हैं उन्हें सुनने के लिए लोगों के हुजूम उमड़ पड़ते हैं। होली के कई दिन पहले से गेरें निकलनी शुरू हो जाती है। होली के जलने के दूसरे दिन, जिसे मारवाड़ी में छालोड़ी कहते हैं, जब गेर के लोग गाते और चंग बजाते शहर की गलियों से निकलते हैं तो लोग अपने मकानों और चबूतरों पर बैठे उनका इंतजार करते हैं। होली के गीतों का आनंद तो होता ही है साथ ही रंगीन पानी की बौछारें भी चलती रहती हैं।

पास के गावों से भी टोलियां आती हैं और शहर की मोहब्बत में भीग जाती हैं और शहर वालों को अपने गीतों से भिगो देतीं हैं।

मगर सबसे दिलचस्प होती हैं पुष्कर्णा ब्राह्मणों की गेरें। जमाना बादल गया। होली की मौज-मस्ती जो पहले बहुत लंबी चलती थी अब कुछ घण्टों में सिमट गई फिर भी गेरों की यहाँ अभी जीवित हैं। बीच-बीच में जब भी ऐसा समय आया कि लगने लगा यह परंपरा लोप हो रही है तो कोई न कोई बंदा इसे बचाने को कूद पड़ा और उसे समाज का समर्थन भी मिल गया।

फाल्गुन के यह फाग उत्सव की मौसम के मिज़ाज से मेल खाता है। इस परंपरा का करीब डेढ़ सौ सालों का इतिहास तो लोगों को जबानी याद है। यह परंपरा ऐसी है जिसमे आम जन तो फाग के रंगों में डूबते उतरते रहे ही हैं पुराने सामन्ती काल में तब के शासक भी उससे सरोबार होते रहे हैं।

जोधपुर के पुष्कर्णा ब्राह्मणों की फाग और महिलाओं द्वारा गायी जाने वाली गालियों की निराली परंपरा की ख्यात दिसावर भी पहुची हुई थी इसका एक दिलचस्प पुराना वर्णन लंबे समय तक एक प्रमुख गेर मंडली के प्रमुख रहे रामदेव व्यास ‘बाबूसा’ सुनते हैं। जोधपुर के तत्कालीन महाराजा मानसिंह स्वयं गुणी व्यक्ति थे। वे कविताएँ रचते थे और संगीत के भी ज्ञाता थे। इसीलिए उन्हें ‘रसीले राज’ भी कहा जाता था। जब उन्होंने अपनी कन्या का उदयपुर के राजकुमार के साथ संबंध पक्का किया तो उदयपुर के महाराणा चाहते थे कि लड़की वाले वहीं आ जाएँ और वहीं विवाह हो। मगर महाराजा मानसिंह ने उन्हें बारात लेकर जोधपुर आने का आग्रह के साथ निमंत्रण दिया। कहते हैं उदयपुर के महाराणा ने इस शर्त पर बारात लेकर जोधपुर आना स्वीकार किया कि पुष्कर्णा ब्राह्मणों में जिस विधि विधान से विवाह होता है वैसा ही विवाह होगा और पुष्करणों के विवाहों में जिस प्रकार समधिनों को संबोधित करते हुए ‘गाल’ गायी जाती है वैसी ही ‘गाल’ खुद महाराजा मानसिंह गाएँगे। लड़के वालों की दोनों बातें मानी गई। महाराजा मानसिंह कि गायी गाल “नाजकड़ी ब्यावण आवे/ नाजकड़ी ब्यावण क्यूँ शरमावे” आज भी प्रचलित है।

रंगों में भींजते हुए अपने समधियों के घरों के बाहर जाकर गालियाँ गाकर फाग का धमाल मचाने में भी अनोखा अदब रखा जाता रहा है। इसीलिए फाग कि गालियां, जिनमें अश्लील संकेतों वाली चुहलबाजियों का आनंद होता है, को सुनने स्त्रियाँ भी पुरुषों से पीछे नहीं रहतीं।

होली से बहुत पहले गैरों की टोलियाँ नए नए गीत बनाने की तैयारी शुरू कर देती हैं। गीत लिखे जाते हैं, उनकी धुनें बनती है और उन पर नृत्य की तैयारी भी होती है। पहले केवल चंग वाद्य ही गालियों को रिदम देने के लिए हुआ करता था। फिर उसमें चिमटा और हारमोनियम भी जुड़ गया। कालांतर में पूरा आर्केस्ट्रा ही साथ में बजने लगा जिसमें इलेक्ट्रॉनिक वाद्य भी जुड़ गए।

गेर परंपरा के सबसे पुरानी याद 140 वर्ष पहले मारवाड़ राज में दीवान रहे सूरज राज रामदेव की है जब वे अपने पाँच पुत्रों और मित्र मंडली के साथ ‘रामदेव रसाला’ गेर के नाम से मोहल्ले मोहल्ले जाकर अपनी ‘गालियों’ का रंग जमाते थे। उस मंडली की एक ‘गाल’ आँख रसीली ने अद्भुत मारी/ बस कियो ए भोलों भ्रह्मचारी” खूब लोकप्रिय हुई जो आज भी गाई जाती है।

‘गेरों’ में वाद्यवृंद –‘आर्केस्ट्राइजेशन’ – का प्रयोग शुरू करने का श्रेय आमतौर पर जालप मोहल्ले के लोगों को जाता है। जाने माने रंगकर्मी थे और ध्रुपद गायन में माहिर भानीरामजी होली के लिए ‘गालियाँ’ लिखते। जिन्हें संगीतबद्ध किया जाता और पूरे वाद्यवृंद के साथ वह ‘गेर’ निकली थी जिसका संचालन राजाराम पुरोहित करते थे। उस गेर की एक रचना अब भी लोगों की जुबान पर है “देखो नाचण पाटी पाडी/ पैरी फूल गुलाबी साड़ी/ आवो आवो जल्दी आवो कोई आस पुरावो”। इनकी शिष्य परंपरा में राजाराम, बदरिदास गुणिया, मोतीलाल कल्ला, नरजी उस्ताद, चतुर्भुक, चन्द्रशेखर कल्ला, गोविंद कल्ला, गिरधर कल्ला, मंशाराम पुरोहित ‘लुच्चा साहब’’, दाऊलाल रामदेव के साथ हिन्दी फिल्मों में संगीतकार बने बालकृष्ण कल्ला तथा राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे राम कृष्ण कल्ला के नाम आज भी लोगों को याद है।

पिछली सदी के चालीस के दशक में आत्माराम रामदेव, जिन्हें सभी प्रेम से ‘आतूजी’ नाम से जानते और पुकारते थे की गेर सबसे मशहूर थी. , वे रेलवे में गार्ड थे। ‘आतूजी’ धोती, ऊपर बंद गले का कोट और सिर पर जोधपुरी साफा पहने, गले में बड़ा सा चन्द्रहार पहने गेर का नेतृत्व करते थे। पुष्ट देह और बुलंद और जबर्दस्त मीठी आवाज़ के धनी ‘आतूजी’ रंग से सरोबार हुए जब नौचोकिये से लेकर जालप मोहल्ले तक चंग पर होली के गीत गाते हुए निकलते थे तो राहों में उन्हें सुनने लोग उमड़ पड़ते थे। मोहल्लों के चौकों में जब रुक कर वे गाते थे तो वहाँ तिल रखने को जगह नहीं होती थी। मकानो की बालकनियों, खिड़कियों और छतों पर चढ़ कर लोग उनके गीतों का लुत्फ लेते थे। दिलचस्प बात यह है की होली के गीतों में बड़ी सफाई से अश्लील संकेत होते थे मगर पुरुषों के साथ महिलायें भी बड़ी संख्या में उनको सुनने उमड़ती थीं.

आजादी के आंदोलन में कूदे नेता सामाज सुधार के काम के जरिये राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते थे। मूथा शिवदत्त जी महाराज व मारवाड़ में राजनीतिक और सामाजिक जागृति की अलख जमाने वाले जयनारायण व्यासने श्लील गेरें निकाली लेकिन अश्लील गेरों की लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई.

बाद में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने जयनारायण व्यास की ‘गेर’ सूर्य नगरी के इतिहास में एक अलग ही स्थान रखती है। उनकी ‘गेर’ में सरदारमल थानवी, मथुरादास, रामदत्त थानवी, मानमल, रण छोड़ दास गट्टाणी, जो बाद में हाईकोर्ट के जज रहे, आदि लोग होते थे। उनकी सीख भरी ‘गालियाँ’ होती थीं “मत दूध लजाईजे/ पाछो मत आइजे बेटा राड सूं”। उनकी ‘गालें’ जैसे “छोड़ो-छोड़ो ऐ सवागण काला ओढ़णा” समाज में नई चेतना खासकर स्त्रियों में जोश भरने में खूब कामयाब रहीं। “हाँ अगर जाति हित चावो तो बाल विवाह की रीत हटाओ” जैसी ‘गालियाँ” नया युग बोध देने का सशक्त माध्यम बनी। ऐसी ही कुछ ‘गालियों’ की बानगी देखिए “त्याग दे उत्तम रामजी वाली लक्ष्मी तूँ / खोटी रीतों ने जल्दी त्याग”, “जब तक पढ़ी लिखी नहीं नार / तब तक कठिन सुधार पियाजी”, “खोला छोड़ दो / मिलणी रो बढ्यो प्रचार/ रोको सरदारों”, “नासमझ रहेंगी जब तक ये घरवालियाँ “ जैसी गालियों का वर्षों तक प्रचार रहा।

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि श्लील और अश्लील गेरों की धाराएं साथ चलती रहीं और दोनों किस्म की गेरों में कभी टकराव नहीं हुआ। होता तो यह था कि दोनों ही पख के लोग एक दूसरे के मंच पर आकार प्रस्तुतियाँ देते थे और दोनों को भरपूर दाद मिलती थीं।

जोधपुर में हालांकि ‘गेरों’ में बड़ा योगदान पुष्कर्णा ब्राह्मणों का रहता है मगर उनमें मुसलमानों समेत सभी समुदायों के लोगों की सक्रिय भागीदारी होती है।

गेरों की इस परंपरा को थानवी माईदास और सत्यनारायण ‘मुलसा’ जैसे लोग आज भी जीवित रखे हुए हैं। माईदास, जिन्हें ‘गेरों का अमिताभ बच्चन’ कहा जाता है की ‘गेर’ में नृत्य और संगीत का माहौल हावी रहता है जो दर्शकों को पूरी तरह बाँधे रहता है।

‘मुलसा’ की ‘गेर’ अपने गीत संगीत के लिए विख्यात है। कृपाकिशन ‘रिन्दी’ इनके लिए गीत लिखते हैं तो अमरदत्त ‘भा’सा’ संगीत निर्देशन रते हैं। ‘मुलसा’ की मशहूर ‘गालों’ में है “कागद बाँच ने भेगी आइजे”, “नाथूरामसा वाली लाडकी सुपने में रंग जावे रे/ झोंझरके तारो टूटेला”। उनकी ‘गेर’ 40 वर्षसे भी अधिक समय से निकल रही है।

उनके अलावा शहर में चार पाँच और टीमें भी हैं जो इस परंपरा का परचम थामे हुए है। इनमें दो भाई दिनेश और नरेश बोहरा अपनी अलग पहचान रखते हैं।

जोधपुर के ‘गेरों’ की बात हो और ‘फायसा गेर’ का जिक्र न हो तो बात अधूरी रह जाएगी। इसका प्रचलन अब तो नहीं है मगर गेर परंपरा में इसका भी स्थान रहा है। यह पूरी तरह अश्लील गीतों की गेर होती थी जो लोढ़ों की गली से निकलती थी। इसका समय निश्चित था। वह सवेरे-सवेरे निकलती थी। बिरदा उस्ताद और मीड़ा महाराज आदि इसके प्रमुख थे। ऐसा रिवाज था इस ‘गेर’ का प्रमुख गायक वही होता था जो अपने मोहल्ले की गली या अपने घर के बाहर अपने गेरियों के साथ परिवार की बहू बेटियों के बीच बच्चों के साथ सबसे पहले गा सके। दूसरी गेर निकालने वाले भी सुबह सुबह ‘फायसा गेर’ अलग से भी निकलते रहे हैं।

जोधपुर में होली का रंग और उल्हास कृष्ण मंदिरों में भी जम कर नज़र आता है। वैष्णव या वल्लभकुल संप्रदाय का यहाँ बड़ा प्रभाव रहा है और आज भी है। विशाल गंगश्याम मंदिर में फगोत्सव की छटा निरखते ही बनती है। आधी रात तक लोगों की भीड़ जमी रहती है और सारा माहौल गीत, संगीत और नृत्य की छटाओं से भीगा रहता है। मंदिर में यह फगोत्सव कई दिनों तक चलता है।

(यह लेख वीणा समूह की मासिक पत्रिका स्वर सरिता के मार्च 2011 अंक में छपा)

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