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झगड़े की जड़ 'फिट टू सेल'

राजेंद्र बोड़ा पत्रकारों का मीडियाकर्मी बनने का सफर बहुत पुराना नहीं है। वैसे ही जैसे प्रेस का मीडिया में तब्दीली का सफर। इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ से शुरू हुए इस सफर को बहुत देर नहीं हुई है। लेकिन छोटे से सफर में ही पत्रकारिता और पत्रकारों का बहुत कुछ बदल गया है। जब तक पत्रकारिता थी तब तक प्रेस थी, तब तक अख़बार थे, तब तक छपे हुए शब्द थे। तब भले ही अख़बार छोटे होते थे परंतु उनके संपादक बहुत बड़े होते थे। अख़बार से 'प्रिन्ट मीडिया' बन गए समाचार पत्र अब बहुत बड़े होने का दावा करने लगे हैं। लाखों में अपनी प्रसार संख्या के बूते पर वे यह दावा दम ठोक कर करते हैं। इस सफर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी धमाकेदार शुरुआत की जिसकी होड़ में प्रिन्ट मीडिया भी पढ़ने के साथ देखने वाला उत्पाद बन गया। पत्रकारिता जब बाज़ार का उत्पाद बन जाये तब अख़बार और टीवी चैनलों के दर्शक सभी सिर्फ ग्राहक होते हैं जिनकी जरूरत उत्पादनकर्ताओं के लिये केवल मुनाफा कमाने के लिए होती है। मीडिया का संचालन बाज़ार की ताक़तें करने लगे तब अभिव्यक्ति की आज़ादी, लोकतान्त्रिक सिद्धांत, मानवीय अधिकारों की रक्षा और एक खुले और स