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Showing posts from April, 2010

दास्तान 'गर्म हवा' की

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राजेंद्र बोड़ा 'गर्म हवा' उर्दू की जानी-मानी लेखिका इस्मत चुगतई की एक अप्रकाशित लघु कहानी पर आधारित फिल्म है जिसका फ़िल्मी तर्जुमा मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने शमा जैदी के साथ मिल कर किया. कैफ़ी आज़मी ने फिल्म के संवाद भी लिखे. यह मैसूर श्रीनिवास सथ्यू - एम. एस. सथ्यू - की पहली फीचर फिल्म थी जो 1973 में रिलीज हुई. इस्मत चुगतई की मूल कहानी का नायक एक स्टेशन मास्टर है जो देश के बंटवारे के चक्र में फंस गया है. फिल्म की स्क्रिप्ट में नायक को चमड़े के जूते बनाने वाली फेक्ट्री के मालिक के रूप में चित्रित किया है. छः जुलाई 1930 में मैसूर में जन्मे सथ्यू बीएससी की पढाई बीच में छोड़ कर अपनी किस्मत सिने जगत में आजमाने के लिए बम्बई आ गए. बम्बई में 1952-53 में फ्रीलांस एनिमेटर के रूप में काम किया. मगर बाद में चार बरस तक बेरोजगारी में गुजारे. उन्हें सबसे पहला तनख्वाह वाला काम फिल्मकार चेतन आनंद के सहायक के रूप में मिला. फिल्म 'किनारे किनारे' में वे चेतन आनंद के सहायक नेर्देशक बने. बाद में स्वतंत्र रूप से कला निर्देशन करने का काम भी उन्हें चेतन आनंद ने ही दिया. फिल्म थी 'हकीकत&

हमारे भाग्य विधाता

राजेंद्र बोड़ा हर बार की तरह इस बार भी हुआ. विधान सभा के बजट सत्र का शुक्रवार आखरी दिन था. सत्र के अनिश्चित काल के लिए स्थगित होने के थोड़ी देर पहले विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्रियों और विधायकों के वेतन - भत्तों में यकायक बड़ी बढ़ोतरी करने का विधेयक और वह तुरत - फुरत में पास हो गया. सबके वेतन पांच - पांच हजार रुपये माहवार बढ़ गए. विधायकों के निर्वाचन भत्ते में दस हजार रुपये माहवार अलग से बढ़ गए. उन्हें एक कर्मचारी रखने की सुविधा थी जिसकी जगह विधायकगण अब बीस हजार रुपये माहवार नकद ले सकेंगे. इन निर्वाचित जनसेवकों - विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री और राज्य मंत्री उपाध्यक्ष मुख्य सचेतक उप मुख्य सचेतक तथा प्रतिपक्ष के नेता - द्वारा अपने मेहमानों का आतिथ्य करने के लिए मिलने वाले भत्ते में भी पांच से छः हजार रुपये माहवार बढ़ा दिए गए. घरों को सजाने और बिजली के बढे हुए बिल भरने की भी व्यवस्था कर दी गई और रेल में यात्रा करने के लिए साल भर में एक लाख रुपये खर्च नहीं हो सकेंगे तो वह राशि लेप्स नहीं होगी उसका उपयोग अगले वर्ष में भी किया जा सकने का इंतजाम करदिया गया. भूतपूर्व विधायकों की

ख़बरों का कारोबार करने वालों पर पाठक कब तक भरोसा करेंगे ?

राजेंद्र बोड़ा ऐसे कौन से कामकाज हैं जिन पर लोग सबसे कम भरोसा करते हैं ? इस प्रकार की जानकारी पाने के लिए पश्चिमी देशों में लगातार सर्वे होते रहते हैं. पत्रकारिता की साख लोगों में कितनी है यह जानने के लिए यदि हम इन सर्वे के परिणामों पर नज़र डालें तो पाते हैं कि राजनेता और पत्रकार अपनी साख के मामले में लोगों की राय में सबसे निचली पायदानों पर आते हैं. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पत्रकारों के काम पर लोगों का सबसे कम भरोसा है. परन्तु यह सोच पश्चिम का है. यह सच है कि हमारे देश में भी राजनेताओं की साख बहुत बुरी तरह गिरी लगती है, मगर पश्चिम के लोगों की पत्रकारों के प्रति सोच भारत के लोगों की सोच से मेल नहीं खाती. हमारे देश में आज भी लोग अख़बारों के लिखे पर भरोसा करते हैं. जब भी किसी को अपनी बात पर दूसरे को भरोसा दिलाना होता है तो वह यही जुमला आम तौर अपनाता है "अखबार में छपा है." अखबार में छपी बात को अटल सत्य की तरह हमारे लोग स्वीकार करते हैं. पाठकों का यही भरोसा है जिसे बनाए रखना अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों के लिए आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है. आज जब राजनेताओं पर से लोगों का भर