ख़बरों का कारोबार करने वालों पर पाठक कब तक भरोसा करेंगे ?

राजेंद्र बोड़ा

ऐसे कौन से कामकाज हैं जिन पर लोग सबसे कम भरोसा करते हैं ? इस प्रकार की जानकारी पाने के लिए पश्चिमी देशों में लगातार सर्वे होते रहते हैं. पत्रकारिता की साख लोगों में कितनी है यह जानने के लिए यदि हम इन सर्वे के परिणामों पर नज़र डालें तो पाते हैं कि राजनेता और पत्रकार अपनी साख के मामले में लोगों की राय में सबसे निचली पायदानों पर आते हैं. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पत्रकारों के काम पर लोगों का सबसे कम भरोसा है. परन्तु यह सोच पश्चिम का है. यह सच है कि हमारे देश में भी राजनेताओं की साख बहुत बुरी तरह गिरी लगती है, मगर पश्चिम के लोगों की पत्रकारों के प्रति सोच भारत के लोगों की सोच से मेल नहीं खाती. हमारे देश में आज भी लोग अख़बारों के लिखे पर भरोसा करते हैं. जब भी किसी को अपनी बात पर दूसरे को भरोसा दिलाना होता है तो वह यही जुमला आम तौर अपनाता है "अखबार में छपा है." अखबार में छपी बात को अटल सत्य की तरह हमारे लोग स्वीकार करते हैं. पाठकों का यही भरोसा है जिसे बनाए रखना अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों के लिए आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है. आज जब राजनेताओं पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है तब लोग स्वाभाविक रूप से अखबारों और पत्रकारों की ही तरफ़ देखते हैं कि वहां उनके सरोकारों की बात होगी. लोगों के सरोकारों के लिए पैरवी करने करने वाली संस्था के रूप में ही पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी गयी है. लोकतंत्र के सरोकार पत्रकारिता में खुल कर नज़र आए इसके लिए जरूरी है पत्रकारों में अपने समय के इतिहास, राजनीति, और अर्थ जगत की गहरी समझ हो और उनमें अपने पेशे की साख बनाए रखने की ईमानदारी हो.

कोई भी व्यक्ति कागज और स्याही के लिए अखबार नही खरीदता. अखबार खरीदा जाता है उसमें क्या छप रहा है उसके लिए. तो अखबार का असली कच्चा माल होती है सूचना - इन्फोर्मेशन- जो समाचारों के रूप में हो सकती है, चित्रों के रूप में हो सकती है या विचारों के रूप में हो सकती है. ये सारी चीजें पाठक की समझ बढ़ाने में मददगार होती है. इसी कारण अपने सारे उद्यमी और कारोबारी स्वरुप और बाजार का होते हुए भी अखबार बाजार से ऊपर होता है.

कभी यह भी पूछा जाने लगा कि क्या अख़बार लोगों की मूलभूत जरूरत है ? क्या रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल जरूरत वह होता है ? यह भी कहा जाता रहा है कि आम आदमी की मूलभूत जरूरतों के पूरी होने के बाद अखबार का नंबर आता है. मगर पत्रकारिता के समर्थकों का यह जवाब होता रहा है कि क्योंकि लोकतंत्र में आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हों उसके लिए जरूरी है कि विधायिका में अच्छे और काबिल लोग चुन कर जाएँ. अखबार नागरिकों को सही जानकारी देकर तथा लोकतंत्र के सभी अंगों की ख़बर रख कर उन्हें सही प्रतिनिधि चुनने में मदद करते हैं. सही निर्वाचन से ही सुशासन आता है जो लोगों की मूलभूत जरूरतों को पूरी करने में ईमानदारी से काम करता है. इसलिए अखबार लोकतंत्र में मूलभूत आवश्यकताओं से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वे इन जरूरतों को पूरी कराने में भागीदार बनते हैं.

आज़ादी के चार-पांच दशक तक, कारोबारी होते हुए भी, अखबारों ने सीमित साधनों में भी अपनी यह भूमिका बखूबी निभाई. आज खुले बाज़ार के दौर में अखबारों के साधन खूब बढ़ गए हैं और उनके पाठकों की संख्या में भी बड़ा इजाफा हुआ है. मगर अब ऐसा लगने लगा हैं कि अख़बारों के सामाजिक सरोकार कहीं खोते जा रहे हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में अखबार अपने जन्म से ही कारोबारी रहा है. भारत में छपने वाले पहले अखबार का नाम ही Calcutta Journal Advertiser था जिसे एक अंग्रेज जेम्स ऑगस्ट हिक्की ने निकाला था. इस पहले ही अखबार का उद्येश्य था विज्ञापन से कमाना. लेकिन इसी अखबार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के भ्रष्टाचारों को उजागर करने की मुहिम छेडी और अपने सामाजिक सरोकारों का परिचय दिया. इसके बाद भी हम देखते हैं कि सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचारों, कमजोरियों, खामियों और जन-हित से जुड़े मुद्दों पर भारतीय अख़बारों ने अपना सरोकार लगातार बनाये रखा. अपनी इसी भूमिका के कारण अख़बार समाज की आँख और कान बन गए. आम जन अखबार की निगाह से ही दुनिया को देखते हैं उसे समझने की कोशिश करते हैं और अपने विचारों को पुष्ट करते हैं. अखबार विचार नहीं बनाते. दुनिया भर में इस बात को जांचने के लिए बार-बार हुए सर्वे के नतीजों में यही बात सामने आयी है कि अखबार पाठकों के विचार नहीं बदल सकते , खासकर राजनैतिक विचार. हाँ यह जरूर होता है कि अपने विचारों के नज़दीक वाला अखबार विशिष्ट समूह की पसंद बन जाता है.

अखबार को अधिक से अधिक पाठक चाहिए होते हैं इसलिए उसका किसी एक विचारधारा से जुड़ना उसके हित में नहीं होता. ऐसा जुडाव उसकी प्रसार संख्या सीमित करेगा. इसलिए सभी अखबारों का यही प्रयास होता है कि वे अपना चेहरा निष्पक्ष बनाये रखें जिससे वे सभी के लिए ग्राह्य हो सकें.

अखबार का निष्पक्ष होना पाठकों के बाज़ार में अपनी पहुँच को विस्तार देने के लिए जरूरी होता है. जिस प्रकार अखबारी दुनिया का विकास हुआ उसमे निष्पक्षता अख़बार की पहली शर्त मान ली गयी. इसी विकास के दौर में अख़बार आम-जन का प्रतिनिधि बन गया जो लोकतंत्र के तीन प्रमुख पायों पर निगाह ही नहीं रखने लगा बल्कि जन भावनाओं का प्रकटीकरण भी करने लगा. इससे अखबार का सामाजिक सरोकारों का मूल्य और बढ़ गया. अख़बार को इसीलिए लोकतंत्र का चौथा खंबा कहा जाने लगा.

इन सरोकारों की बात करते हुए बाज़ार की बात करना समीचीन होगा. आज के बाज़ार के झंडाबरदार मानते हैं कि बाज़ार तो बाज़ार है. किसी कार, फ्रिज या किसी टोस्टर की बिक्री को बाज़ार की जो शक्तियां या सिद्धांत प्रभावित करते हैं वे हीं अख़बारों की बिक्री को भी संचालित करते हैं.

अखबार को कारोबार मानने से समस्या पैदा नहीं हुई बल्कि खबर को कारोबार की वास्तु बना देने से आज की स्थिति पैदा हुई है. पहले भी अखबार कारोबार था मगर उससे मुनाफा कमाना उन्हें निकालने वालों का पहला उद्धेश्य नहीं हुआ करता था. अखबार उनके लिए प्रतिष्ठा की चीज थी. आज की नयी धनाड्य पीढी जिनके हाथों में अखबारों की नकेलें हैं वे बाजारवाद की उपज हैं जिनके लिए पैसा ही प्रतिष्ठा है, पैसा ही ताकत है. इसे पाने के लिए वे ख़बर का भी सौदा करने को तत्पर रहते हैं.

इन लोगों के लिए न्यूज़ या समाचार भी एक उत्पाद है . इस उत्पाद को तैयार करने और उसके वितरण में उनके हिसाब से बाज़ार के वही सारे आर्थिक सिद्धांत काम करते हैं जो अन्य औधोगिक माल के उत्पादन पर लागू होते हैं. अमरीका के फेडरल कोम्युनिकेशन्स कमीशन के चेयरमैन थे मार्क फ्राद्लर. उनका कहना था "बाज़ार में लोगों की जैसी पसंद होती हैं उसी से मीडिया के कंटेंट निकलते हैं”. इसका अर्थ यह हुआ कि जिस प्रकार बाज़ार में ग्राहक की पसंद के हिसाब से उत्पाद आते हैं वैसे ही मीडिया में कंटेंट भी आएगा. वे यह भी कहते हैं कि “जनता की रुचियाँ ही जनहित को परिभाषित करेंगी”. मगर हमें यहाँ यह नहीं भूल जाना चाहिए कि खुले बाज़ार में लुभावनें प्रचारों के जरिये जनता की रुचियाँ बनाई और बिगाडी जाने का खेल बड़े पैमाने पर चलता है.

ऐसी ही बाज़ार की शक्तियों के चलते आज अख़बारों में क्या हो रहा है ? अख़बारों के समाचार कक्षों में एक अच्छी कॉपी (ख़बर) किसे मानते हैं? वह कॉपी जो लालच, बेवकूफी, और षडयंत्र की कहानी कहती हो. ऐसा माना जाता है ऐसी चटपटी ख़बरों से अख़बार को अधिक पाठक मिलेंगे.

अभी हाल ही में जेम्स टी. हेमिल्टन का अध्ययन पुस्तक के रूप में आया है . यह अपने प्रकार का दुनिया में पहला अध्ययन है. इसका शीर्षक है 'हाउ द मार्केट ट्रांसफार्म्स इन्फोर्मेशन इन्टू न्यूज़'. हेमिल्टन कहता है "खबरें बाज़ार की ताकतें बनती हैं और ख़बरों (जिसे बाज़ार की भाषा में इन्फोर्मेशन गुड्स कहते हैं) के स्वरुप का निर्धारण अर्थतंत्र करता है.

मौजूदा समय की खुले बाज़ार की सबसे बड़ी हिमायती ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर आयरन लेडी के रूप में जानी जाती है. उनका एक कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है. उनका यह कथन बाज़ार की आवाज है . उनहोंने कहा "देयर इज नो सच थिंग एज सोसाइटी" याने समाज जैसी कोई चीज नहीं होती. उनका मतलब था कि समाज को एक एब्सट्रेक्ट या सांस्कृतिक मेटाफर के रूप में ही देखा जा सकता है. मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था के समर्थकों ने समाज और सामाजिक सरोकार को हमेशा हिकारत की निगाह से देखा है. ऐसे समर्थक हमारे यहाँ अब अखबारों के नियंता हैं.


आज के अख़बारों के नियंताओं के लिए कोई चीज गैर वाजिब नहीं है. वे अब संपादक नहीं एक प्रमुख कार्यकारी अधिकारी चाहते हैं और ऐसा बनने के लिए तैयार बैठे पत्रकारों की फेहरिस्त लम्बी है. आज तेजी से बढ़ते अखबार अपने संपादकों को सिखा रहे हैं कि वे अपने पाठक को पहचाने. अखबारों के नए नियंता की निगाहों में उन पाठकों का कोई मोल नहीं जिनकी जेब में बड़े बाजारों में - माल्स - में खर्च करने को अतिरिक्त पैसा है. संपादकों को यह सिखाया जा रहा है कि आप उन पाठकों को लक्ष्य करें जो रंगीन टीवी, फ्रिज, कारें वगैरा खरीद रहें हों. यदि यह खरीददार और आपके पाठक एक होंगे तो ही अखबार को बड़े विज्ञापन मिलेंगे. हर साल जब पाठक सर्वे की रिपोर्ट आती है तो अख़बारों में सबसे पहले यही देखा जाता है कि किस अखबार में "हैसियत" वाले पाठकों की संख्या कितनी है.

इस समय चुनाव का मौसम चल रहा है. यह वो समय है जब कईं अखबार ख़बरों के कारोबार में उतर आते हैं. राजनैतिक पार्टियों और उम्मीदवारों से उनके विज्ञापनों का ही सीधा सौदा नहीं होता बल्कि न्यूज़ कालम में छपने वाली विज्ञप्तियों को स्थान देने के लिए भी मोल तय किया जाने लगा है. ऐसे सौदों में पार्टियों का हाथ मरोड़ने के लिए ख़बरों को ही हथियार बनाया जाता है. क्योंकि अभी तक आम लोगों का भरोसा अकबार में छपी ख़बरों पर बना हुआ है इसलिए वे उन पर भरोसा कर लेते हैं और उन्हें पता ही नहीं लगता कि वे ठगे जा रहे हैं.
पत्रकारिता जगत में एक पुरानी कहावत है जो कभी हर पत्रकार की जुबां पर पर रहती थी "फेक्ट्स आर सेक्रेड, इंटरप्रेटेशन इज माइन". तब अखबारी दुनिया में कहा जाता था "न्यूज़ देट इज फिट टू प्रिंट". मगर आज के अखबार शायद कहते हैं "न्यूज़ देट इज फिट तो सेल".

यह "फिट टू सेल" सारे झगडे की जड़ है. अखबार पाठकों के लिए नहीं बाज़ार के लिए हो चले हैं. बार बार कहा जाता है कि बाज़ार के भी " मूल्य" होते हैं. मगर बाजारों के उतार चढाव और घोटालों ने बार बार यही बताया है कि बाज़ार मानवीय चेहरा नहीं होता. दिलचस्प बात यह भी है कि मीडिया ने बड़ी बड़ी चीजें उजागर कीं है मगर बाज़ार की तरफ अपनी खोजी निगाह कभी नहीं की. बाज़ार से उपकृत होते हुए ऐसा हो भी कैसे सकता है.

इन दिनों अख़बारों के कंटेंट संपादक नहीं ब्रांड मेनेजर तय करते हैं. वे पत्रकारिता और मनोरंजन के बीच की सीमा रेखा को मिटा दे रहे हैं. ब्रांड मेनेजर अखबारों का कलेवर तय करते हुए बताते हैं कि सुबह सुबह पाठक अखबार में क्या देखना चाहते हैं. वे संपादक से यह भी अपेक्षा करते हैं कि रोज अखबार में कम से कम एक ऐसी चटपटी खबर अवश्य हो जिसकी शहर में दिन भर चर्चा होती रहे. ख़बरों को चटपटा बनाने के लिए ऐसे मसाले डाले जाते हैं जिनका तथ्यों से कोई लेना देना न हो. ख़बरों में ऐसी मिलावट की आदतें पत्रकारिता को जन सरोकारों से दूर ले जाती है. अख़बारों के नए नियंताओं ने यह भी साध लिया है कि किस प्रकार पाठकों को ऐसे चटपटे मुद्दों पर भटका दिया जाय कि वे असली मुद्दों को बिसरा दें.


पाठकों के बारे में किसी की टिपण्णी है "रीडर इज नॉट अ किंग. ही इज अ नाइस हिप्पोक्रेट (पाठक कोई शहंशाह नहीं है. वह एक अच्छा पाखंडी है). मुक्त बाज़ार जो दिशा देता है अखबार उसी पर चलते हुए जो सामग्री परोसता है वह कईं बार खूब रस लेकर पढ़ी काटी है. पाठन एक तरफ तो ऐसी सामग्री मजे लेकर पढता है और वही बाद में यह आलोचना भी करता है कि अखबार में गंभीरता नहीं रही या वह चलताऊ हो गया है.

इतना सब होते हुए भी सब कुछ ख़त्म नहीं हो गया है. अखबार के सामाजिक सरोकारों की पैरवी करने वालों और उन सरोकारों को अभिव्यक्ति देने वाले संपादकों की कमी नहीं है.

पाठकों की भागीदारी या दबाव अखबारों को सही रास्ते पर चलने पर मजबूर कर सकता है. मगर उसके लिए पाठक को अपनी भूमिका के बारे में सोचना होगा कि क्या वह एक अच्छे अखबार के लिए उसके वाजिब दाम देकर खरीदने को तैयार है ? यदि वह मुफ्त में या नाम मात्र के दाम पर अखबार चाहता है तो उसे वही मिलेगा जो बाज़ार चाहेगा क्योंकि लागत और बिक्री मूल्य के बीच का अंतर वही भर रहा है.


(बीकानेर में आयोजित अजित फाऊंडेशन की सालाना लेक्चर श्रंखला में दिया गया अभिभाषण)

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