स्मृति शेष: मांगी बाई ने राजस्थानी मांड गायकी को ऊंची पायदान पर बनाये रखा

राजेंद्र बोड़ा 
    
मांड गायकी राजस्थान की पहचान है।  इस गायकी को जिन महिला लोक गायिकाओं ने विश्व प्रसिद्धि दिलाई उनकी एक महत्वपूर्ण कड़ी मांगी बाई का पिछले दिनों निधन हो गया।  बीकानेर की अल्लाह ज़िलाई बाई और जोधपुर की गवरी देवी ने मांड को जिन बुलंदियों पर पहुंचाया उदयपुर की मांगी बाई ने उन बुलंदियों को थामे रखा और इस गायकी की चमक को बनाये रखा। 

मारवाड़ के रेगिस्तानी विस्तार में उपजी मांड मांगी बाई के मेवाड़ी कंठ में ऐसी रची बसी थी कि मानो पथरीली ज़मीन में कोंपलें फूट पड़ रही हो।  लोक गायकी को इस गायिका ने अलग पहचान ही नहीं दी बल्कि इस गायन परंपरा को बनाये रखने और नयी पीढ़ी को उससे जोड़े रखने में प्रमुख भूमिका भी निबाही।

तत्कालीन उदयपुर रियासत के प्रतापगढ़ में कमलाराम और मोहन बाई के यहां जन्मी मांगी बाई कह सकते हैं जन्मजात गायिका थी क्योंकि संगीत उन्हें पारिवारिक विरासत में मिला था।  उनके पिता कमलाराम शास्त्रीय संगीत में निष्णात गायक थे।  वे ही उनके पहले गुरु थे।  कुल चार वर्ष की उम्र से ही नन्ही मांगी बाई की संगीत की शिक्षा शुरू हो गयी।  संगीत के प्रशिक्षण के ही कारण उनकी गायकी में लोक की भूमि होते हुए भी शास्त्रीयता का पुट साफ़ झलकता था। 

उनकी आवाज़ और गायकी में अल्लाह ज़िलाई बाई जैसा सुरों का विस्फोट नहीं था और गवरी देवी जैसी शहरी खनक नहीं थी मगर उसमें एक अजीब सी लहराहट थी जो उन्हें अलग पहचान देती थी। 

मांड अर्द्ध शास्त्रीय राग मानी जाती है जो मांगी बाई के गायन में पूरे भराव के साथ महसूस की जा सकती है।  मांड गायकी का उनका अपना अंदाज़ था जिसमें साज की संगत कुछ मायने नहीं रखती थी।   
मांगी बाई की आवाज़ हलके से झूमते हुए बहती नदी के कलरव की तरह थी जिसमें बीच बीच में मुरकियों के उछाल श्रोताओं को भिगो  देते थे। मांड गायकी का सबसे लोकप्रिय गीत 'केसरिया बालम' इसीलिए उनकी आवाज़ में ढल कर एक नए अंदाज़ में उभरता था।
 
वे अपना पहला गुरु अपने पिता को मानती थी और दूसरा गुरु अपने पति राम नारायण आर्य को जो स्वयं भी शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता थे और अपनी पत्नी को मांड गायकी में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।  उन्हों ने शास्त्रीय संगीत की भी विधिवत तालीम ली थी बड़ौदा दरबार के कलाकार उस्ताद फ़ैयाज़ खां साहिब से। शास्त्रीय संगीत की तालीम का असर उनकी मांड गायकी पर साफ़ नज़र आता था।

मांगी बाई उन कलाकारों  में से थीं जो अपना ज्ञान  पीढ़ी को देने को हमेशा तत्पर रहते हैं।  उदयपुर स्थित पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र ने उनका यह सपना पूरा किया और उन्हें बतौर मांड शिक्षिका अपने यहां नियुक्ति दी।  वे पांच-पांच विद्यार्थियों के बैच को गुरु-शिष्य परंपरा से गायकी सिखाती थी।  दो वर्ष का यह कोर्स होता था।  दो-वर्ष बाद दूसरा बैच शुरू होता।  इस प्रकार उन्होंने 20 वर्ष तक यह काम लगन से किया। 

स्वभाव से वे बड़ी सरल थीं और हर किसी से हंस कर ही बात करती थी।  इतना नाम कमाने पर भी उनमें अहं की कोई भावना कभी नहीं आई।  उनकी गायकी को सुन कर देशी लोग ही नहीं विदशी भी मोहित हो जाते थे।
 
अपने जीवन काल में मांगी बाई मांड का अलख जगाते हुए देश विदेश घूमी, यश और लोगों का प्यार बटोरा तो साथ ही सरकार तथा विभिन्न संस्थाओं का औपचारिक मान सम्मान भी पाया। अपनी एक रेडिओ भेंट वार्ता में मांगी बाई ने कहा था कि उन्हें मिले इतने पुरस्कारों में उन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार सबसे अधिक प्रिय है जो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के हाथों मिला। इसके अलावा मांगी बाई को राजस्थान संगीत नाटक अकादमी और राजस्थानी भाषा और साहित्य अकादमी के पुरस्कार भी मिले। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारों ने उन्हें अपने अपने राज्य स्तरीय पुरस्कार देकर भी सम्मानित किया।

मांगी बाई ने अपने 88 वर्ष की दीर्घ आयु पाते हुए महाराणा कुम्भा संगीत परिषद् पुरस्कार जैसे और भी अनेक पुरस्कार उन्होंने पाए। मगर उनका असली पुरस्कार था श्रोताओं का प्यार जो उनकी गायकी का भरपूर आनंद लेते थे। वे आकाशवाणी की ए श्रेणी की मान्यता प्राप्त कलाकार थी और दूरदर्शन पर भी उन्होंने खूब गाया।

जिस प्रकार मारवाड़ से अल्लाह जिलाई बाई और गवरी देवी ने देश विदेश में पहचान बनाई उसी प्रकार मेवाड़ से मांगी बाई ने वैसी ही पहचान बनाई और मांड की धारा को आगे बनाये रखा। अपने जीवन के संध्या काल तक वे सक्रिय रहीं और गाती रही। अक्षर ज्ञान के लिहाज से वे बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी परन्तु उनकी स्मरण शक्ति जबरदस्त थी। लिखा कागज़ सामने रख कर उन्होंने कभी नहीं गाया। मांड के सैकड़ों गीत उन्हें याद थे। 

मांड के गीतों को लिपिबद्ध कर उन्हें अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने का महत्वपूर्ण काम भी मांगी बाई ने किया।  राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक और यहां की मिटटी की सोंधी सुगंध में रचे बसे मांड संगीत में गाये जाने वाले गीतों को लिपिबद्ध कर उन्हें एक किताब के रूप में संकलित किया। यह किताब 'राजस्थान के मांड गीतअब हमारी धरोहर है।  
 

मांगी बाई अब हमारे बीच नहीं रही। उनके योगदान को राजस्थान हमेशा याद रखेगा।

( यह आलेख कला और संस्कृति को समर्पित पत्रिका 'स्वर सरिता' के जनवरी, 2018 अंक में छपा) 

Comments

Thanks for remembering unsung heroes.
Devendra
Yash said…
Namaste
Mangi Bai ki likhi hui pustak kaha uplabdh hogi kya aap bata sakte hai? Dhanywaad

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