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निजता खो चुका हिंदुस्तानी सिने संगीत अब स्मृतियों में नहीं दर्ज होता

राजेंद्र बोड़ा यह सच तो सभी स्वीकार करेंगे कि देश की आम जनता में 1950 और 1960 के दशक में हिन्दुस्तानी सिनेमा के लिए जो भारी क्रेज़ उभरा उसमें उस दौर के गीत-संगीत का बहुत बड़ा योगदान रहा। फिल्मी गाने - सिनेमा के परदे पर अदाकारों के लबों पर हों या रेडियो पर बजते हों - लोगों पर जादू का सा असर करते थे। हर एक को हर गाना अपना-अपना सा लगता था। जैसे वह उसी का हाल बयान कर रहा हो। हिंदुस्तानी सिनेमा संगीत की अहमियत को जानना – पहचानना हो तो उसके लिए पिछली सदी के पांचवें और छठे दशक के सिने संगीत के दौर को टटोलना पड़ेगा। लोगों के सिर चढ़ जाने वाला संगीत ऐसी फिल्मों में भी गूंजा जो ज़्यादातर “ चवन्नी छाप ” दर्शकों के लिए मानी गयी। उस दौर के गाने हमारी स्मृतियों को जगाते हैं और एक प्रकार का नो स्टेल्जिया पैदा करते हैं। उनकी स्मृतियों में लौटना बड़ा भला-भला सा , शुभ-शुभ सा लगता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि वह देस-काल से परे ले जाने वाला संगीत था। उसमें देश के गावों और शहरों का अपनापा बोलता था। उन गानों से फ़लक का एहसास बनता था। सिने संगीत के रसिक लेखक अजातशत्रु ‘ सदियों में एक...आशा ’  में कह