फिल्मी गानों में हिन्दी साहित्यकारों का अवदान


राजेंद्र बोड़ा



साहित्य की दुनिया के लोग फिल्मी दुनिया को बे-गैरत मानते रहे हैं और फिल्मों के लिए लिखना अपनी हेठी समझते रहे हैं। वैसे भी साहित्य जगत में लोकप्रिय साहित्य बनाम सड़क छाप साहित्यकी बहस बहुत पुरानी है। और क्योंकि सिनेमा सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है इसलिए साहित्य के लोग इसे सड़क छाप साहित्य की श्रेणी में ही मानते रहे हैं और अपनी श्रेष्ठताका आडंबर बनाए रखते रहे हैं। कुछ खास अपवादों को छोड़ दें तो साहित्य की दुनिया के लोग हिन्दुस्तानी फिल्मों के दर्शकों को भी ऐसा ही नासमझ और साहित्यिक दृष्टि से हेय समझते रहे हैं। मगर हम जानते हैं कि भले ही साहित्य जगत ने सिनेमा से परहेज किया है मगर सिनेमा ने किसी से कभी कोई परहेज नहीं किया। सिनेकार को अपनी बात कहने के लिए किसी भी साहित्यकार के योगदान की जरूरत महसूस हुई तो उसने उन्हें आगे बढ़ कर बुलाया और अपनाया। 

वर्ष 1931 में सवाक फिल्मों के पदार्पण के साथ ही हिन्दुस्तानी सिनेमा में गानों का चलन भी शुरू हो गया।  पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' की याद के साथ उसके दो गानों  - निसार का गया  'दे दे खुदा के नाम पे' और ज़ुबैदा का गाया 'बदला दिल.… '   की याद भी जुडी है। वास्तव में सवाक फिल्मों के शुरुआती दौर में गानों की भरमार रहती थी। शुरुआती दौर की फिल्मों की भाषा उर्दू ही होती थी। इसलिए तब की फिल्मों में उर्दू के रचनाकार अधिक पाये जाते हैं। इसका कारण फिल्मों के शुरुआती दौर पर पारसी रंगमंच का प्रभाव भी रहा जो उर्दू के रंग में ही रंगा था इसीलिए हम पाते हैं कि उर्दू अदीबों का हिंदुस्तानी सिनेमा को हिन्दी के साहित्यकारों से अधिक अवदान रहा है खास कर गीत-संगीत को।  

हिन्दी साहित्य जगत ने शुरू से ही फिल्मों से दूरी बनाए रखी लेकिन एक महत्वपूर्ण नाम अमृतलाल नागर का है जिन्होंने करीब सात वर्ष, 1940 से 1947 तक, फिल्मों में अपनी लेखनी आज़माई और बाद में फिल्मी दुनिया को छोड़ कर पूरी तरह साहित्यिक जगत के हो लिए। बंबई, कोल्हापूर और मद्रास में उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएं और संवाद लिखे। वे हिंदुस्तान में फिल्मों की डबिंग के प्रणेताओं में से थे। उन्होंने रूसी फिल्मेंनसीरूद्दीन इन बुखाराऔर ज़ोयातथा एम एस सुब्बुलक्ष्मी की तमिल फिल्ममीराको हिन्दी में डब किया था।

1941 में आई फिल्म संगम में अमृतलाल नागर के लिखे 13 गीत थे। फिल्म के गुणी संगीतकार थे दादा चांदेकर। इसी फिल्म से हम हिन्दी साहित्यिक जगत के एक बड़े नाम जयशंकर प्रसाद का भी लिखा एक बड़ा ही सुंदर गीतअरे कहीं देखा है तुम्हेंमिलता है जिसे मीनाक्षी ने गाया था।   

अमृतलाल नागर
अकादमिक और बौद्धिक ऊचाइयों वाले कुमार साहनी जैसे सिनेकारों की फिल्मों में गानों की कोई जगह नहीं होती। यों भी कह सकते हैं कि उनके वहां होने की कोई वजह भी नहीं होती। लेकिन साहनी को अपनी फिल्मतरंग(1984) के लिए एक गीत की जरूरत हुई तो उन्होंने गैर फिल्मी और साहित्य जगत के रघुवीर सहाय की रचना का उपयोग किया : बरसे घन सारी रात संग सो जाप्रतिष्ठित पत्रिका दीनमान के संपादक रहे और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त रघुवीर सहाय के इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया और संगीतकार वनराज भाटिया ने लयबद्ध किया था।       

पद्मश्री और पद्मभूषण से अलंकृत गोपाल दास नीरज साहित्य जगत से फिल्मों में आए जहां अपना पूरा रुतबा जमाया और हिंदुस्तानी फिल्म संगीत को बेशकीमती मोती दिये। और फिर शिखर पर रहते हुए ग्लेमरस फिल्मी दुनिया छोड़ कर वापस लौट साहित्य जगत में लौट गए। फिल्म नई उम्र की नई फसल में उनका गीतकारवां गुज़र गया गुबार देखते रहेजो उन्होंने फिल्म के लिए नहीं लिखा था बल्कि उनकी कविताओं की किताब में था जिसे अभिनेता भारत भूषण के फिल्म निर्माता भाई ने नीरज से अनुमति लेकर अपनी फिल्म में रख लिया। इस गाने को कालजयी बनाने में उसकी रोशन की संगीत रचना और मोहम्मद रफी की आवाज़ की भी प्रमुख भूमिका रही। बाद में जब वे फिल्मों के लिए लिखने लगे तब भी कम से कम दो गीत उन्होंने अपनी पुरानी कविताओं को थोड़े फेर बदल के साथ फिल्म संगीत में गूंथे। राज कपूर की अति महत्वाकांक्षी फिल्ममेरा नाम जोकरका गानाऐ भाई ज़रा देख के चलो/ आगे ही नहीं पीछे भी/ ऊपर ही नहीं नीचे भीवास्तव में नीरज की एक पुरानी रचना थी जिसका शीर्षक थाराजपथ


गोपाल दास नीरज

इसी प्रकार देव आनंद निर्देशित पहली फिल्मप्रेम पुजारी(1970) का सचिनदेव बर्मन का संगीतबद्ध हमेशा जवां गाना याद करेंशोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब/ उसमें फिर मिलाई जाये थोड़ी सी शराब/ होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार हैयह नीरज की एक हुत पुरानी कविता जिसके मुखड़े में थोड़ी सी हेर फेर करके के गीतकार ने उसके अंतरे फिल्म की सिचुएशन के हिसाब फिर लिखे थे। मूल कविता थी जिसके मुख्डे में शोखियों की जगह चांदनी शब्द था।चाँदनी में घोला जाये फूलों का शबाब/ उसमें फिर मिलाई जाये थोड़ी सी शराब/ होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है, वो प्यार है, वो प्यार।   

नीरज की ही भांति एक अन्य मंचीय कवि संतोषानंद भी साहित्य जगत के अलावा फिल्मों में भी सफल रहे। अभिनेता-निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार ने पहली बार अपनी फिल्मपूरब और पश्चिम(1970) के लिए उनका एक गीत लियापुरवा सुहानी आई रेजो खूब चला। इसे लता मंगेशकर, महेंद्र कपूर और मनहार उधास ने कल्याणजी आनंदजी की धुन पर गाया था। मनो कुमार की ही 1972 में आई फिल्म शोर में उनके गीत एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है/ ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है ने उनको फिल्म संगीत में अमर कर दिया। इसे मुकेश ने लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल की धुन पर अपनी सोजपूर्ण आवाज़ से बुलंदी दी थी।  
  
ऐसे ही राजस्थान के उदयपुर के सफल मंच कवि विश्वेश्वर शर्मा शंकर जयकिशन की धुन पर फिल्मसंन्यासी (1975) के लिएचल संन्यासी मंदिर मेंलिख कर छा गए और बरसों तक फिल्मी नगरी में रमे रहे।

बालकवि बैरागी
एक अन्य कवि जिसने साहित्य, राजनीति और फिल्म तीनों में दखल दिया वे थे बालकवि बैरागी जो ओजपूर्ण मंच कवि तो थे ही साथ ही मध्य प्रदेश शासन में मंत्री तथा लोक सभा के सदस्य भी रहे। बैरागी का एक अनुपम गीततू चंदा में चांदनी, तू तरुवर मैं पात रेसुनील दत्त की राजस्थान के रेगिस्तान की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म रेशमा और शेरा (1975) में जयदेव के संगीत से सज कर ऐसा गूँजा कि आज भी भुलाया नहीं जा सकता। एक बार फिर राजस्थान की रेतीली धरती की पृष्ठभूमि पर बनी ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म दो बूंद पानीमें जयदेव की धुन पर ही बैरागी का गीत बन्नी तेरी बिंदिया की लेले रे बलैयांभी तो कहां भुलाया जा सका है। तितली उडी की गायिका शारदा के संगीत से सजी फिल्मक्षितिज (1974) में बैरागी का गीत सुनिए जो फिल्म गाना नहीं कविता ही लहता है। किशोर कुमार की आवाज़ में यह खूबरूरत गीत है अंधे सफर में हम भी तुम भी, जीवन की राहें लंबी/ क्या तेरा क्या मेरा, माया का है फेरा, काहे को भूले धरम 
भी

साहित्य और राजनीति में दाखल देने वाली राजस्थान की एक कवियित्री प्रभा ठाकुर ने भी 1974 से 2006 के बीच कई फिल्मों के लिए गीत लिखे। वे लोक सभा तथा राज्य सभा की सदस्य रहीं। शंकर जयकिशन के संगीत में फिल्म पापी पेट का सवाल है के लिए प्रभा ठाकुर ने अपना ही लिखा गीत मोसे चटनी पिसावे, छैलो चटनी पिसावे/ कैसा बेदर्दी समझे ना मेरे जी की बातगाया भी था। उनकी कुछ प्रमुख फिल्में रहीं: अलबेली (1974), दुनियादारी (1977), आत्माराम (1979), घुंघरू (1983) और कच्ची सड़क (2006)। 
    
हमारे अपने जयपुर के हिन्दी और संस्कृत साहित्य के पुरोधा हरिराम आचार्य के गीत भी कुछ फिल्मों में गूँजे। सबसे पहले उनसे गीत लिखवाये विलक्षण संगीतकर जयपुर के ही दानसिंह ने फिल्म भूल ना जाना के लिए। मगर यह फिल्म डिब्बों में बंद रह गई और कभी रिलीज़ नहीं हुई। मगर उसके गानों के रिकॉर्ड बाज़ार में आए और लोगों पर छा गए। इस फिल्म में आचार्य ने दो नगमें लिखे। दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों नगमें उर्दू में हैं। एक है गीता दत्त का गाया कालजयी गीत मेरे हमनशीं मेरे हमनवां, मेरे पास आ मुझे थाम ले और दूसरा है मुकेश का गाया गम-ए-दिल किससे कहूं, कोई भी गमख़्वार नहीं/ हैं सभी गैर यहां।बाद में 1982 में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने आचार्य के गीतों को धुनों में बांधा फिल्ममेहंदी रंग लाएगी(1982) में। 

आचार्य ने एक बार फिर वर्ष 2000 में दानसिंह के ही संगीत निर्देशन में जगमोहन मूंदड़ा की फिल्मबवंडर के लिए गीत लिखे। 
              
हरिवंश राय बच्चन जिनकी लंबी कवितामधुशाला ने समूचे देश में धूम मचा दी थी का एक अत्यंत भावपूर्ण गीत 1977 की फिल्मआलापमें लिया गया था जिसे येशुदास ने जयदेव के संगीत निर्देशन में गाया था :कोई गाता मैं सो जाता/ संसृति के विस्तृत सागर में, सपनों की नौका के अंदर/ सुख दुख की लहरों में उठ गिर/ बहता जाता, मैं सो जाता। हालांकि इस कवि के नाम से एक गीत फिल्मसिलसिला(1981) में भी है जिसे उनके ही अभिनेता पुत्र अमिताभ बच्चन ने आवाज़ दी थी। मगर वह उत्तर प्रदेश का एक लोकप्रिय लोक गीत हैरंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे

हिन्दी और डोगरी भाषा की बड़ी कवियित्री और उपन्यासकार पद्मा सचदेव जिन्हें साहित्य का बड़ा सम्मान साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है और जो पद्मश्री से भी अलंकृत है के कुछ गीत फिल्मों में भी आए। वर्ष 1979 की फिल्मआंखिन देखीमें सुलक्षणा पंडित तथा मोहम्मद रफी का गाया और जे. पी. कौशिक का संगीतबद्ध किया गीतसोना रे तुझे कैसे मिलू आज भी ज़ुबान पर आ जाता है।

साहित्य के क्षेत्र से ऐसे ही एक कवि थे पद्मश्री से अलंकृत इंद्रजीत सिंहतुलसीजिन्हें पंजाब सरकार ने राजकवि की पदवी से सम्मानित किया था जिन्होंने 1972 से 1982 के बीच करीब एक दर्जन से अधिक फिल्मों के लिए गीत लिखे। राज कपूर के लिए फिल्मबॉबी के लिए नरेंद्र चंचल का गाया और लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल का संगीतबद्ध किया गीत बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो बुल्ले शाह है कहता/ पर प्यार भरा दिल कभी ना तोड़ो, इसमें रब रहता कौन भूल सकता है। वैसे तुलसी से मनोज कुमार ने सबसे पहले अपनी फिल्मशोर (1972) के लिए गाने लिखवाये थे – पानी रे पानी तेरा रंग कैसा और जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहों शाम। 

फिल्म कादंबरी (1976) में अमृता प्रीतम का एक अत्यंत ही खूबसूरत गीत हमें सुनने को मिलता है: अंबर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर/ घूंट चांदनी पी है हमने, बात कुफ़्र की की है हमनेफिल्म के लिए इसे गाया था आशा भोसले ने और संगीत में निबद्ध किया था प्रसिद्ध सितार वादक विलायत अली खान ने जिन्होंने सत्यजित रॉय की बेहतरीन फिल्मजलसाघर(1958) और मर्चेन्ट-आइवरी की अंग्रेजी फिल्म द गुरु (1969) के लिए भी संगीत कम्पोज़ किया था। विलायत अली खान अपने समकालीन रविशंकर के पाये के सितार वादक थे और उनकी चर्चा इसलिए भी होगी कि देश के बड़े नागरिक अलंकरण पद्मश्री और पद्म विभूषण उन्हें देने की घोषणा की गई गर उन्होंने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसी प्रकार उन्होंने संगीत नाटक अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार लेने से भी इंकार कर दिया। खान साहिब जिन्होंनेनाथ पियाउप नाम से खयाल की कई बन्दिशें रची ने सिर्फ दो पुरस्कार स्वीकार किए। एक था आर्टिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया काभारत सितार सम्राटऔर दूसरा राष्ट्रपति फख़रुद्दीन ली अहमद के हाथों मिला खिताबआफताब-ए-सितार।  

राजस्थान की धोरों की धरती के अनूठे गीतकार हरीश भादानी का एक गीत: सभी सुख दूर से गुज़रें गुज़रते ही चले जाएं/ मगर पीड़ा उम्र भर साथ चलने को उतारू है1976 की फिल्मआरंभ में उपयोग में लिया गया जिसे गाया था आनंद शंकर के संगीत निर्देशन में दर्द भरे गीतों के बादशाह मुकेश ने।    

मध्य काल के संत कवियों और कवियित्रियों को हिन्दी साहित्य जगत पूरा मान देता है। उनकी अनेकों प्रचलित रचनाओं को हिन्दुस्तानी फिल्मों में भरपूर स्थान मिला है। जैसे मीरां व कबीर। इन दो संत कवियों पर तो फिल्में भी बन चुकी हैं।


यहां हमने शैलेंद्र, भारत व्यास, राजेंद्र कृष्ण जैसे अनेकों हिन्दी के कवियों को शुमार नहीं किया है क्योंकि ये सभी पूरी तरह फिल्मी गीतकार बने रह कर केवल अपना नाम कमाया बल्कि साहित्य जगत को भी जबूर किया कि वे उनका नोटिस ले।   

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