स्मृति शेष : संगीत रसिक बलदेव सिंह कछवाह


                                  
मेरे बायें कछवाह साहिब और दायें एक अन्य संगीत रसिक स्मृतिशेष शिवप्रकाश पुरोहित साहिब 

उड़ गया भंवरा...


राजेंद्र बोड़ा 

बलदेव सिंह कछवाह नहीं रहे। वे कभी अपने नाम के आगे आज़ाद का तखल्लुस लगाते थे। वे अपनी शिथिल होती 86 वर्ष की देह से बुधवार 20 अक्तूबर को आज़ाद हो गए। उनकी देह भले ही शिथिल होने लगी थी, परंतु उनका संगीत का जज़्बा अंत तक पूरे यौवन पर रहा। उनके निधन के चार दिन पहले ही मैं और मुकुट सिंह नरुका साहिब उनसे मिलने और उनका हाल जानने के लिए उनके घर गए थे। जिस अवस्था में वे शैया पर लेटे थे उससे यह तो लग गया था की अब उनकी चला चली की बेला आ गयी है। परंतु मन और मस्तिष्क से वे तरो ताज़ा थे और सुर संगत के अगले माह होने वाले समागम की चर्चा के बारे में अपने सुझाव दे रहे थे कि सिने संगीत के शुरुआती दौर के किन-किन गानों को इस बार शामिल करना है।

मगर उन्हें सबसे अधिक व्यग्रता महान गायिका यूथिका रॉय के आत्मकथा की बंगला में छपी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद वाला संस्करण निकालने के बारे में थी। यह हम लोगों की ढील रही कि यह काम पूरा नहीं हो सका। उस दिन मैं हिन्दी अनुवाद और यूथिका रॉय के गानों की गानों के रिकोर्ड्स की सम्पूर्ण सूची का अंतिम प्रिंट आउट लेकर गया था। उस दिन तय यह ही तय हुआ कि प्रस्तावित किताब में कौन-कौन से चित्र लेने हैं। साथ ही किस प्रकार का कवर डिजाइन होगा। मैंने वादा किया था कि इस उदबोधन को तथा कछवाह साहिब की भूमिका को किताब के ड्राफ्ट में शामिल करके तथा डिजाइनर से कवर के तीन-चार डिजाइन बनवा कर वापिस उनसे बुधवार या बृहस्पतिवार को फिर मिलूंगा और किताब के प्रारूप को अंतिम रूप से ओके करके उसे छपने के लिए देंगे। मगर बुधवार को कछवाह साहिब हम सब को छोड़ कर चले गए।

यहां यह भी याद आता है कि उन्हीं के कारण हम महान गायिका यूथिका रॉय को जयपुर बुला कर उनका अभिनंदन कर सके और उनसे मुलाक़ात ही नहीं कर सके बल्कि उनका 91 वां जन्म दिन यहां मना सके। वह समारोह अद्भुत था। विविध भारती के अनुपम उदघोषक भाई युनूस खान और उनकी पत्नी उतनी ही ख्यातिनाम उदघोषिका ममता सिंह मुंबई से खास तौर पर आए और भाई युनूस ने मंच पर यूथिका जी का इंटरव्यू किया। उस सारे समारोह की कल्पना और आयोजकीय सहयोग कछवाह साहब का रहा। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं इसलिए बताया जा सकता है कि यूठोका रॉय को को एक लाख रुपये की सम्मान राशि भेंट की गई वह उन्होंने ही दी थी। मगर कछवाह साहिब ने यह बात उजागर कराने से साफ इन्कार कर दिया कि वह राशि उन्हों ने दी थी।

     
कछवाह साहिब महान गायिका यूथिका रॉय के साथ 

वे हिन्दुस्तानी फिल्म संगीत के शुरुआती दौर के गवाह थे। पिछली सदी का तीसरा और चौथा दशक जब फिल्में बोलने ही नहीं गाने भी लगी थी और भारतीय फिल्में और संगीत फारसी थियेटर की छाया में उभर रहा था। यह वह समय भी था जब हिंदुस्तानी फिल्में रंगमंच से इतर अपना वजूद बना रहा था और साथ ही उसका संगीत भी अपनी अलग राह पकड़ कर लोकप्रियता की पायदानें चढ़ रहा था और परंपरागत भारतीय संगीत के बंधे बंधाए खांचे से बाहर निकाल कर अपना आकाश बना रहा था। न्यू थियेटर, रणजीत, और बॉम्बे टाकीज़ ने फिल्म संगीत की जो परम्पराएँ डाली जिस पर चल कर भारतीय फिल्म संगीत ने बुलंदियाँ छूई कछवाह साहिब उन परम्पराओं में रचे बसे थे। न्यू थियेटर की फिल्मों और उनके संगीत जो उन्हों ने अपने किशोरपन में सुना उसके प्रति उन्हें ता उम्र गहरा लगाव रहा। सुर संगतके प्रतिमाह होने वाले समागम में वे सदैव उपस्थित रह कर उस संगीत को एप्रिसिएट करने का आग्रह बनाए रखते थे।सुर संगतमें उनकी हम से यही अपेक्षा रहती थी कि समागम में हम चाहे किसी भी संगीत के दौर की चर्चा करें, 1930 और 1940 के दशक के चार गाने जरूर उसमें शामिल करें। सुर संगत की प्रत्येक बैठक से कुछ दिन पहले इंका फोन आता और वे पूछते इस बार क्या-क्या ले रहे हो? मैं बताता। फिर वे अपनी राय देते और पूछते कि क्या मेरे पास अमुक गाना है? मैं कहता ये तो नहीं है तो वे कहते मैं लेता आऊंगा। संगत में वे फिल्म संगीत के शुरुआती दौर की नई नई जानकारियां देते। उस जमाने की बातें करते। जैसे जोधपुर के सबसे पुराने सिनेमा हालों में एक स्टेडियम सिनेमा जिसे जोधपुर महाराजा ने बनवाया था का जब निर्माण चल रहा था तब उसकी खुदी हुई नींवों में वे अपने बालकपन में खेलते थे।

उनका रचनात्मक स्वभाव स्कूली जीवन से ही झलकने लगा। वे तब हाथ से लिखा पत्र निकालते थे जिसकी एक दो प्रतियाँ उन्हों ने संभाल रखी थी। बचपन में बंगाली फिल्मों ने उन पर जो असर डाला वह ता उम्र उन के साथ रहा। बंगला भाषा की कोई विधिवत शिक्षा न होने पर भी वे बंगला गीतों के अर्थ समझ लेते थे और बंगला लिपि पढ़ लेते थे। नए जमाने में जब पुरानी फिल्में डिजिटल मीडिया पर आने लगी तो वे उन्हें मँगवा कर उन्हें देख कर यादों के गलियारे में जाते रहते थे। अपने अंतिम समय तक उन्हों ने अपने दौर की बंगला फिल्मों के डीवीडी मँगवाने नहीं छोड़े। उनका इन फिल्मों और संगीत का संकलन दुर्लभ है।

वे ऑटोमोबाइल क्षेत्र में व्यवसायी रहे। इस क्षेत्र मे राज्य स्तर के संगठन के वे बरसों तक सर्वोच्च पदाधिकारी रहे। व्यावसायिक झमेलों में भी उनका संगीत का प्रेम बना रहा।

कोई छह साल पहले उन्होंने खोजा कि गुजरे जमाने के महान गायक विद्यानथ सेठ अभी मौजूद हैं और दिल्ली में रहते हैं। उनसे उन्हों ने बात की। वे 90 से अधिक वर्ष के हो चले थे इसलिए जाइपुराने में असमर्थ थे। तो उन्हों ने योजना बना ली कि हम लोग दिल्ली जाएँगे और उनके घर जाकर उनका सम्मान करेंगे। जिस दिन जाना था उसके कुछ दूँ पहले उनके हाथ का फ्रेक्चर हो गया। मगर हाथ में पट्टा बांधे वे दिल्ली चले और हमने उस गायक को राजस्थानी साफा पहनाया और सम्मानित किया। भाई एम डी सोनी के प्रयासों से विद्यानाथ सेठ के पुराने गानों की खोज हुई और उन्हें संकलित कर एक सीडी बनाई गई जिसे उस गायक को भेंट किया गया। सेठ और उनके परिवार वालों की खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है जब उन्हें वो भूले बिसरे गाने फिर मिले। बाद में जब विद्यानाथ सेठ का 99 वें वर्ष में निधन हुआ तब उनको श्रद्धांजलि देते हुए उनके परिवार के लोगों ने उसी सीडी की प्रतिया बना कर उनकी श्रद्धांजलि सांभा में आए लोगों को वितरित की।
बाद में कछवाह साहिब एक बार अपने किसी काम से दिल्ली गए तब भी विद्यानाथ सेठ के घर जाकर उन से मुलाक़ात कर के आए।  


कछवाह साहिब महान गायक विद्यानाथ सेठ के साथ 

उम्र दराज होने पर भी प्रति माह होने वाली सुर संगत के समागम का वे बेसब्री से इंतज़ार करते थे। संगत का कोई साथी उन्हें अपने साथ स्कूटर या कार में बैठा कर ले आता था और वापस छोड़ देता था। कभी ऐसा संभव नहीं होता तो वे टैक्सी कर के आ जाते थे मगर बैठक मिस नहीं करते थे। इतने बरसों में तीन माह पहले पहली बार जब वे अस्पताल में भर्ती थे तब उनकी अनुपस्थिति रही। अगले माह फिर वे नहीं आ सके क्यों कि उनकी हालत चलने फिरने लायक नहीं थी। मगर फोन करके हर बार आगे की सुर संगत पर चर्चा करते और बाद में फोन करके फीड बेक लेते। दो महीने पहले उन्हों ने कहा बोड़ा जी अगली बार यदि मैं नहीं पाया तो फिर कभी नहीं आ पाऊँगा। अगली बार याते अक्तूबर में भी वे नहीं आ सके और वही हुआ। अब वे कभी नहीं आएंगे।

उनकी स्मृति को नमन ।           

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कछवाहा साहब उन चन्द लोगों में से थे जिनकी उपस्थिति से यह दुनिया सुरीली बनती है. उनकी पावन स्मृति को नमन.

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