राजस्थान में सामंतवाद

रामचंद्र बोडा

राजस्थान में सामंतवाद की बात की जाती रही है. कर्नल जेम्स टाड़ ने इसको विस्तार दिया है. जेम्स टाड़ ने इसकी तुलना योरूप में मध्य युग में पनपे सामंतवाद से की है. राजस्थान के कतिपय इतिहासकारों ने, जिसमें राम प्रसाद व्यास शामिल हैं, इस राज्य में पनपे सामंतवाद को योरूप में पनपे सामंतवाद से अलग माना है. राजस्थान को लेकर जितनी सामग्री जेम्स टाड़ ने एकत्रित की है उतनी सामग्री किसी अन्य ने नहीं की है. इसलिए उसे ही यहाँ वाद-विवाद का आधार बनाया गया है. कर्नल टाड़ इस सम्बन्ध में संश्कीय होते हुए भी सामंतवादी पद्धति को विस्थापित करने का प्रयास किया है.

कर्नल टाड़ ने ऐसा सामंतवादी परिभाषा देकर नहीं किया है. वे योरूप के उन लेखकों में से हैं जो सामंतवाद को बिना परिभाषित किए सामंती पद्धति की बात करते है. कर्नल टाड़ ने अपनी सामंतवाद की अवधारणा में हेनरी हेलम के अलावा मंतास्क, ह्यूम तथा गिब्बन को आधार बनाया है. सामंतवाद का कच्चा चिट्ठा अपनी कालजयी पुस्तक ‘राजस्थान की वात और ख्यात’ में प्रस्तुत किया है.

राजस्थान में मध्य युग में सामंतवाद की परिरेखायें बनने लगी थी. विशेषकर यहाँ के देवधर्मी पितृस त्तात्मक समाज - रावला समाज - में. इसके पहले की देवधर्मी पितृस त्तात्मक समाज सामंतवाद का रूप लेता मुसलमानों के भारत पर आक्रमण होने लगे थे और उससे सामंतवाद की खिलने वाली कोंपलें बिखर गई और रह गई द्विप्रशासनिक पद्धति. वह सामंतवाद न होकर साम्राज्यवाद था. मुगलिया सामंती साम्राज्यवाद. पूंजीवाद वाला साम्राज्यवाद नहीं. ब्रिटिश साम्राज्यवाद जैसा. भारत में अंग्रेजों के उपनिवेशवाद जैसा, मुग़लों का उपनिवेशवाद भी नहीं. उस द्विप्रशासनिक प्रणाली में मुगलों और अंग्रेजों में आर्थिक, सामजिक और राजनैतिक अन्तर था.

मुग़लों ने भारत पर विजय के बाद जो राज्य स्थापित किया उसमें सामंतवाद की प्रक्रिया, पद्धति और व्यवस्था चलती रही. कर्नल टाड़ ने उस संबंधों में विद्यमान स्रोतों को एकत्रित कर सामंतवाद की पद्धति को देखा. वह लिखता है- It is more than doubtful whether any code of civil or criminal jurisprudence ever existed in any of these principalities; though it is certain that none at this day discoverable in their archives. But there is a martial system peculier to these Rajput states, so expensive in its operationas to embrace every object of society. There is no analogous to the ancient feudal system of Europe that I had not hesitated to hazard a comparision between them, with reference to period when the latter was yet imperfect. ऐसा मानते हुए वह आगे लिखता है – Long and alternative observation enables me to give this outline of a system, of which there exists little written evidence.

कर्नल टाड़ ने योरूप में कबीलों, जातियों में जो नियम जर्मनी के गोथ और फ्रेंक जातियों में देखे थे वे ही नियम उसे राजपूतों के रावलों में देखने को मिले. राजपूतों के रावलों में देवधर्मी समाज के पितृस त्तात्मक परिवारों में. उन्हीं को लेकर टाड़ सामंतवाद की बात करता है. ऐसा करने में वह हेनरी हेलम की पुस्तक मध्य युग (Middle Ages) पर विश्वास करता है. हेनरी हेलम अपनी पुस्तक में रावलों में भी परस्पर ‘कुल बैर’ और पुश्तैनी दुश्मनी को आधार बना कर लिखता है – It has been very common to seek for origin of feuds, or at least for analogies to them, in the history of various countries, but though it is of great importance to trace the similarity of customs in different parts of the world, we would guard against seeming analogies, which vanish away when they are closely observed. It is easy to find partial resemblences to the feudal system. The relations of patron and client in the public of Rome has been deemed to resemble it, as well as the barbanans and vetarans who held frontier lands on the tenure of defending them and frontier; but they were bound to not an individual, but to the state. Such a resemblance of fiefs may be found in the zamindars of Hindustan and the Timaroits of Turkey. The clans of high landers and Irish followed their chieftain into the field but their tie was that of imagined kindered and birth not the spontaneous compact of vassalage.

हेनरी हेलम भी सामंतवाद की परिभाषा देकर नहीं चलता परन्तु उस सामंतवाद को कर्नल टाड़ की तरह समझने का प्रयास करता है. यह प्रयास राजपूत कबीलों में सामंती परम्पराओं को खोजना था. मुसलमानों के आक्रमणों ने सामंतवाद की मूल भूमि उत्पादन की स्थिति को तोड़ दिया था. कर्नल टाड़ को इस बदले परिवेश में मुग़लों के पैर जम जाने के बावजूद उभरते सामंतवाद के नष्ट होने के बावजूद उन परम्पराओं को खोज निकालना चाहा जो अवशेष के रूप में बच रहीं थीं. कर्नल टाड़ कहता है – “ I give this at length to show that if I still persist in deeming the Rajput system a pure relations of feuds, I have before my eyes the danger of seeming resemblance…” और इसे स्थापित करने के लिए वह कहता है – “…But grants, deeds, charters, traditions, copies of which will be found in the Appences, will establish my opinion. I hope to prove that the tribes in the northern regions of Hindustan did possess the system, and that it was handed down and still obtains, notwithstanding seven centuries of paramount sway of the Mogul and Pathan dynasties altogether oppositing to them except in this feature of government where there was an original similarity.” कर्नल टाड़ को यह ग़लतफहमी हो जाती है कि – “Notwithstanding seven centuries of permanent sway of Mogul and Pathan dynasties altogether opposed to them except in the feature of government where there was original similarity.”

भूमि उत्पादन के तरीके में एक बड़ा परिवर्तन आ जाता है. इस आर्थिकता को टाड़ समझता है. तभी तो वह कहता है – “ In some of these states those atleast affected by conquest the system remained freer from innovation.”
इसका सीधा नतीजा यह है कि वह कार्य पद्धति को महत्व देता है चाहे फिर उसका प्रयोजन भूमि उत्पादन से हट ही क्यों न गया हो. वह मूलतः मेवाड़ को अपने अध्ययन का केन्द्र बनता है जिसकी आतंरिक प्रशासनिक व्यवस्था विदेशी निति से प्रभावित होती है जबकि दिल्ली की साम्राज्यवादी शक्ति थी. सामंतवाद कि मूल पीठिका -भूमि उत्पादन- को छोड़ कर इस पद्धति को सामंतवाद मान लेने से पूरे इतिहास का मूल्यांकन झुठला गया है. उसे केवल राजपूत जाति ही दिखाई देने लगती है. वह उसकी प्रशंसा में लग जाता है.

सामंतवाद के इतिहास की भौतिक व्याख्या को कार्ल मार्क्स और उनके अनुयाइयों ने ठीक से समझा. यहाँ मेरा अर्थ मार्क्स की आर्थिक व्यवस्था से नहीं है जिसे मार्क्स ने भौतिकवादी व्याख्या कहा है.

योरूप में नवी शताब्दी से १५ वी शताब्दी और उसके बाद भी जमीन उत्पादन की जोत रही है. Lord (राजा), Vassal (ठिकानेदार) और Fief (जागीर) के रूप में. जमीन ही सिरमौर रही. मुग़लों ने इस पद्धति को तोडा. जागीरदार राजा की सेवा में रहे - बडो हुकुम और घणी खम्मा के रूप में. जमीन की उपज की आय राजा (Lord) अपने पर अपने किलों पर अपने हरम पर अपनी रानियों पर अपनी सेना पर और अपने परिवेश पर खर्च करता था. समाज की आर्थिकता उससे बंधी थी. दास (गोलों) की फौज बनी रहती थी. बदले आर्थिक संबंधों में पहले मुग़लों के हाथ और बाद में अंग्रेजों के हाथ भूमि उत्पादन की पद्धति टूटी और एक प्रकार की द्विशासन प्रणाली (Diarchy) कायम हुई. तरीका काफ़ी अंशों में वही रहा बदले रूप में .

सामंतवाद वह सामजिक परिवेश था जिसमे जागीरदार राजा के लिए लड़ता था और उसके बदले राजा उसे सम्मान देता था. कार्ल मार्क्स ने इस सामाजिक व्यवस्था को प्रागस्थिति माना था. उसने उसे प्राचीन सैनिक आर्थिक पद्धति कहा है. यह व्यवस्था योरूप की मध्य युगीन व्यवस्था थी.

वैसे देखा जाए तो सामंतवाद लेटिन भाषा की संज्ञा FEUDUM-FOEDUM से बना है जिसका अनुवाद जागीर के अर्थ में किया जाता रहा है. जागीर (Fief) का अर्थ जमीन से. उन्नीसवी शताब्दी तक पहुचते पहुचते जमीन पर वंशानुगत (पैतृक) परम्परा चल पड़ी थी. फ्रांस में ऐसा हुआ. वैसे विलियम प्रथम ने इसे चालू किया. कर्नल टाड़ ने इसे विस्तार से समझाया है. इस सामाजिक व्यवस्था का नाम सामंतवाद फ्रांसीसी क्रांति के समय पड़ा था - फ्रांसीसी भाषा के शब्द Feodalism से.

सन १९१२ में ब्लादिमियेर लेनिन ने सामंतवाद को परिभाषित करते हुए कहा था जमीन पर मालिकाना हक और सामंतों का दासों पर मालिकाना हक. अंग्रेजी के तीन शब्द Lord, Vassal और Fief सामंतवाद को प्रकट करते हैं. Lord यानि सामंत, Vassal यानि अधिपति (ठाकुर) और Fief यानि जागीर.

इसके पहले कि सामंत किसी अधिपति (ठाकुर) को जमीन देता उसके पहले उसे एक अनुष्ठान द्वारा अधिपति (ठाकुर) - जैसे मेवाड़ में राणा घोषित किया जाता रहा है - घोषित किया जाता था. (पगड़ी बंधाई रस्म की तरह). यह विधिवत और व्यवस्थित तरीके से किया जाता था जिसे श्लाघा अनुष्ठान (Commendable Ceremony) कहा जाता रहा है. इस अनुष्ठान के दो काण्ड होते थे. एक श्रृद्धा सुमन अर्पण, और दूसरा वफादारी की शपथ. श्रृद्धा सुमन के साथ सामंत और अधिपति एक अनुबंध में बंधते थे जिसमे अधिष्ठाता वायदा करता था कि वह सामंत के आदेश पर लड़ेगा और अपनी जान दे देगा. उसे Fiefty कहा जाता था जो लेटिन भाषा (Fedelitas) से निकला शब्द है इसका अर्थ है स्वामिभक्ति. यही सामंती संस्कृति है. ज्यों ही श्लाघा अनुष्ठान द्वारा सामंत और अधिष्ठाता परस्पर अनुबंध से बंध जाते. अधिष्ठाता सामंत का होकर रह जाता. इस श्लाघा अनुष्ठान के लिए अधिपति नजराना के रूप में पाता था. आय के रूप में तलवार बंधाई लाग की तरह. टाड ने इस परिवेश में समझाया है.

ऐसा कुछ भारत में भी मिलेगा पर सामंतवाद योरूप जैसा परिपक्व रूप नही ले सका. पर भारत के इतिहास में हमें एक दूसरा रूप देखने को मिलता है जिस पर कर्नल टाड का ध्यान नहीं गया है. मोहम्मद बिन कासिम के भारत पर आक्रमण को ही लें. उसे जाटों का और अन्य कृषकों का भरपूर सहयोग मिला था क्योंकि वे यहाँ अपनी स्थिति से ख़ुश नहीं थे. उनका शोषण ब्राह्मण राजाओं द्वारा खुल कर किया जाता रहा था. जीतने के बाद मोहम्मद बिन कासिम ने उसके पहले भारत पर अरब आक्रमणकारियों का अनुशरण किया. इतिहासकार इलियट के शब्दों में “He employes the Brahmins in pacifying the country by taking them into confidence. He allowed them to repair their temples and to follow their own religion as before placed the collection of revenue in their hands and employed them in continuing the traditional system of local administration.”

ऐसी स्थिति में यद्यपि कतिपय ब्राह्मण राजा विजेताओं के साथ हो गए पर तत्कालीन समाज की साधारण स्थिति वैसी ही बनी रही. तत्कालीन समाज विश्रंख्लित हुआ और वहां अराजकता की स्थिति पैदा हो गई जैसी कि प्रतिक्रान्ति के सफल होने पर होती है. प्रतिक्रान्ति किन्ही कारणों से सफल हो सकती है व क्रांति असफल . लेकिन जिन कारणों से क्रांति उठी थी वे कारण प्रतिक्रांति के सफल होने के बाद भी बने रहते हैं. समाज का विश्रंख्लित रूप बना रहता है जिसने क्रांति को जन्म दिया था. जो सामाजिक शक्तियां उसके लिए जिम्मेवार होती हैं. प्रतिक्रान्ति इसलिए सफल हो जाती है कि क्रांति की जिम्मेवार शक्तियां परिपक्व नहीं होतीं जिससे क्रांति सफल होती है. यही मुसलमानों की भारत में विजय के बाद स्थिति रही. और यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भारत में प्राचीन काल में बौद्ध क्रांति के समय भी ऐसा ही हुआ. बौद्ध क्रांति के बाद भारत आर्थिक तौर पर गड़बडा गया, राजनीतिक उत्पीडन गहरा गया, बौद्धिक दिवालियापन फैल गया. सामाजिक व्यवस्था पूर्ण रूप से अव्यवस्थित बनी रही. सारा का सारा समाज क्षतिग्रस्त रहा. यही कारण था कि इस्लामी आक्रमणकारियों का भारत की जनता ने साथ दिया और स्वागत किया. उस समय के सुविधाभोगी वर्ग ने भी आक्रमणकारियों का साथ दिया क्योंकि इस्लामी आक्रमणकारियों ने भारत के उस वर्ग को सामाजिक समता तो दी पर राजनीतिक रूप से उसे परतंत्र रखा. यह सब यही बताता है कि जनता और समाज जब हतोत्साहित होता है तब ऐसा ही होता है. भारत की यह स्थिति अंग्रेजों के आने तक ऐसी ही बनी रही. बौद्ध क्रांति के अपवाहित हो जाने के कारण. कर्नल टाड़ शायद इस स्थिति को नहीं समझ पाया. राजस्थान में राजपूतों का राज रहने के बावजूद वे ब्राहमणों द्वारा प्रदत्त नियमों से ऊपर नही उठ सके. उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ऊपर उठाया और कृष्ण को क्षत्रिय धर्म विस्थापित करने के रूप में. पर मोटे रूप में वे ब्राहमणों द्वारा प्रतिपादित (मनु जैसों के) नैतिकता से ऊपर नहीं उठ सके. वैशम्पायन व्यास कि वाणी गीता में कृष्ण कि वाणी बन कर उभरी. कृष्ण, अर्जुन, धृतराष्ट्र, संजीव - महाभारत के सभी चरित्र - आज के दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र कि तरह वैशम्पायन द्वारा निर्मित चरित्र ही बने रहे. और तो और महाभारत और रामायण के स्त्री पात्र द्रौपदी और सीता का आध्यात्मिक रूप रहा.

कर्नल टाड प्रत्यक्ष में राजपूतों को शौर्य पूर्ण बताते हुए भी उनके पतन का खुल कर वर्णन करता है. उन्हें थर्मोपाली और लेओनिदास की संज्ञा देते हुए उनके युद्ध को अर्थहीन और दिशाहीन बताता है.

भारत में बौद्ध क्रांति विफल नहीं हुई वह आंतरिक कमजोरियों के कारण अपवाहित रही. बौद्ध क्रांति के अपवाहित होने को उसके बाद के हजार वर्ष प्रकट करते हैं. शंकराचार्य ने उसका पूरा लाभ उठाया और प्रछन्न बौद्ध की तरह बुद्ध दर्शन को भारत से साफ कर दिया. और तो और बौद्धों के पवित्र स्थान बौद्ध गया तक में हिंदू के संस्कार की दृष्टि से 'बाकी तीरथ बार बार , गया तर्पण एक बार' की भावना ही नहीं भर दी वरन उसे व्यावहारिक रूप भी दे दिया. बौद्ध क्रांति का अपवाहित (Mis-carriage) होना इतना व्यापक रहा कि भारत अंग्रेजों के पदार्पण तक वह उस निस्तेज स्थिति से ऊपर नहीं उठ सका.

इसी स्थिति को इतिहासकार हावेल ने अपनी पुस्तक भारत में आर्य (Aryans in India)
में लिखता है “Those who did so (embraced Islam) acquired all the rights of a musalman citizen in law courts where the Quran and not the Aryan law and custom decided dispute of all cases. The method of proslytism was very effective among the lower castes of Hindus, specially among those who sufferred from severity of Brahminical Law with regard to the impure classes.”

राजस्थान में यह स्थिति मुग़ल साम्राज्य के पैर जमने से गहरा गई. मुग़ल साम्राज्य में एक विशाल गिरावट का सामजिक परिवर्तन आया पर आय के कारण नहीं. वह तो अकबर बादशाह से लेकर औरंगजेब तक बढ़ती गई ऐश आराम कि जिंदगी ने उसे निस्तेज कर दिया और ज्यों ही दूसरी औधोगिक ताकत अंग्रेजों के रूप में आई, मुग़ल साम्राज्य अपने अंतर्विरोध के कारण ताश के पत्तों से बने घर की तरह ढह गया .

टाड़ ने अपनी सारी “वात और ख्यात” की कल्पना मेवाड़ में उपलब्ध स्रोतों के आधार पर की है. वह यह नहीं बता सका कि बौद्ध दर्शन का ब्राहमणों के हाथ पिट जाने के बावजूद, राजस्थान में अधिकांश राजा राजपूत होते हुए भी बौद्ध क्रांति के अपवाहित होने के बाद वे भारत को आगे नहीं बढ़ा सके. वेदों के समय ब्राहमणों और क्षत्रियों में हुए दस युद्ध के बाद ब्राहमण इस बुरी तरह हार गए कि वे सिछक हो सिघरे जग को, ताको का देती है सिच्छा. औरों को धन चाहिए, बावरी ब्राहमण को धन केवल भिच्छा की स्थिति में आ गए. केवल एक बलशाली राजा रावण लंका में रह गया था. उसकी क्षत्रियों ने ऐसी दुर्गति की कि वह लोक त्योंहार का कुपात्र बन गया और हर वर्ष उसका और उसके परिवार का नैतिक पतन के रूप में दहन किया जाने लगा. राजपूतों ने ब्राहमणों द्वारा प्रतिपादित धर्म और कर्म कांडों को ओढ़ना आरंभ कर दिया और उन्होंने राजऋषि उत्पन्न करने आरंभ कर दिए. संस्कृति और सभ्यता का यह गहरापन अपने तरीके से सारे देश में फैला. वाल्मीकि से लेकर कालिदास और तुलसीदास ने जमकर क्षत्रियों का साथ दिया पर अंग्रेज इसे शिक्षा के माध्यम से व्यवहार में लाने में कोर कसर नहीं रखी. यह तीन लेखकों को छोड़ कर अन्य १०८ रामायणों में एक दम अलग इतिहास मिलता है. ‘राघव राग’ पुस्तक इसका उदाहरण है. वह रावण के चरित्र को बादलों से दबे सूर्य की रोशनी की तरह उठता है. कर्नल टाड की ‘वात और ख्यात: राजस्थान का इतिहास’ बन कर उभरी. इतिहास का सही पहलू लुप्त हो गया.


कर्नल टाड़ सामंतवाद कि प्रशंसा में गिब्बन का उदाहरण भी देता है. वह कहता है - I have sometimes been inclined to agree with the definition of Gibbon, who styles the system of our ancestors the offering of chance and barbarism.” – Le systeme feudal assemblage monstreux de tant de parties que le tems et l’hazard out reunies, none offer un object tres complique: pour l’etudiez taut le decomposer. ( Gibbon Vol.III)

स्मरण रखने कि बात है कि इतिहास में ही नही प्रकृति के हर भाग में कारणता है offering of chance कहीं नहीं है. जिन कारणों का हमें पता नहीं होता उन्हें offering of chance कह दिया जाता है. कर्नल टाड़ के साथ यही रहा .

जिस प्रकार Lord (सामंत), Vassal अधिपति (ठाकुर) और Fief (जागीर) को समझा जा सकता है उसी प्रकार Mugal Feudal Imperialism (मुगलिया सामंतवादी साम्राज्यवाद) और Modern British Imperialism (आधुनिक ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लगाकर मुगलों की द्विप्रशासनिक प्रणाली को भली भांति समझा जा सकता है.

पहले Mugal Feudal Imperialism (मुगलिया सामंतवादी साम्राज्यवाद) को ही लें :
अंग्रेज ही भारत के पहले विजेता नहीं थे. भारत तेरहवीं शताब्दी से ही बाहरी हमलावरों से विजित देश रहा. अंग्रेजों के आने से पहले मुसलमान यहाँ के विजेता रहे. सही बात तो यह है कि आधुनिक अंग्रेजी साम्राज्य और मुगलिया सामंती साम्राज्य में रात - दिन का अन्तर रहा. लेकिन यह बात एक दम सही है कि विजेताओं ने भारत में बस रही सभ्यता के सामान्य विकास को अवरुद्ध किया और भारत को स्वतः एक राष्ट्र के रूप में विकसित नहीं होने दिया.

मुसलमानों के भारत पर आक्रमण तब होने लगे जब भारत में सामंतवाद अपनी पहली अवस्था में था. केवल उत्तरी भारत के राजपूतों में सामंती राज्यतंत्र पूरी तरह विकसित था. शेष भारत में विभिन्न अलग अलग राज्यों में विभाजित रहा. वे या तो देवधर्मी राज्य (Theocratic) थे या आंशिक गैर पितृस त्तात्मक . ऐसी स्थिति में नैसर्गिक था कि समूचे भारत में राष्ट्रीय भावना उत्पन्न होती. यह असंभव सी बात थी. छितराए हुए विभिन्न राज्यों द्वारा अपनी सीमाओं के विस्तार के प्रयास तब तक एक संयुक्त राष्ट्र की भावना से प्रेरित नहीं थे. उन राज्यों के पीछे साफ तौर पर उद्धेश्य अनुवांशिक राज्यों को फैलाना था. और न ही राजपूतों के मुसलमानों विरोध को राष्ट्रीय विरोध कहा जा सकता है, जैसा कि महाराणा प्रताप को लेकर राष्ट्रीय इतिहासकारों ने किया है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि राजपूतों ने मुसलमानों का विरोध अपने सामंती अधिकारों को बनाये रखने के लिए बड़ी बहादुरी से किया जैसा कि कर्नल ताड़ ने उसे थर्मोपाइल और लेओनिदास कि संज्ञा दी है. राजपूतों ने इसके अलावा अपने किलों कि, अपनी स्त्रियों के सतीत्व की , अपने कुलदेवी देवताओं की प्राथमिकता से रक्षा की, उन्हें पवित्र मान कर. अपने राज्यों की रक्षा के लिए अपनी सेना को इस विरोध के लिए बनाए रखा. यद्यपि अकबर तक पहुचते उनहोंने मुसलमानों से विवाह सम्बन्ध बनाने चालू कर दिए. कहीं पर भी भारतीय राष्ट्र को बचाने की बात नही उठी या भारत को बचाने की जैसा की देशभक्त इतिहासकारों ने बिना इतिहास के प्रवाह को समझे ऐसा किया है.

मुसलमान विजेताओं ने नि:संदेह देश के अधिकांश भाग को एकीकृत केंद्रीय राज्य में मिला लिया था पर एक राष्ट्र के रूप में नहीं क्योंकि दिल्ली का न्यायालय या राज्य राष्ट्रीय राज्य के अंतर्गत नहीं था. दिल्ली के सम्राज्ञों का आधार स्थानीय राज घराने नहीं थे. वे स्थानीय राजघरानों की इमारत की ऊपरी मंजिल नहीं थे जो दासों के सामाजिक संगठन के रूप में निर्मित हुआ हो. देश पर स्थानीय सामंतों का अधिकार नही था. बल्कि देश पर विदेशी आक्रमणकारियों और विजेताओं द्वारा नियुक्त प्रतिनिधियों का था. अतः इस तरह नियुक्त प्रतिनिधि सामंती होते हुए भी उन्हें जनता का सहज सहयोग नहीं मिलता था. उस जनता का, जिस पर ये राज करते थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उनका नेतृत्व स्थानीय पैतृक-समाज से नही उभरा था. देश की राज्य सत्ता का आधार स्थानीय सामजिक शक्तियां नहीं थीं वरन किराए की सेना थी. भारतीय समाज की ताकत छितराई हुई ग्रामीण जातियाँ थीं जो बाह्य राजनितिक संगठनों के कारण विश्रन्खलित रूप में रह रहीं थीं. यही कारण था कि भारतीय जनता एक केन्द्र राज्य के अंतर्गत एकत्रित नहीं हो सकीं. किसी भी राष्ट्रीय शक्ति का उदय राष्ट्रीय राजनीतिक जाग्रति से ही होता है. सामन्ती मुसलमान इसलिए भारत पर विजय प्राप्त कर सके क्योंकि जनता ने एकत्रित होकर उनका विरोध नहीं किया. समाज का ऐसा विकास नही हो सका था. केवल राजपूताना में जहाँ सामंतवाद काफ़ी प्रगति कर चुका था को विदेशी पूरी तरह अपने अधिकार में नहीं ले सके. सामंतवाद यहाँ कि जमीनी उपज थी जबकि बाहर से आया मुसलमानी सामंतवाद जबरदस्ती थोपा गया सामंतवाद था जिसने स्थानीय सामंतवाद को आगे अपनापन नहीं दिया. हुआ यह कि देवधर्मी पैतृक हिंदू राज्य जो सामंती राजतंत्र में विकसित हो सकते थे उनको साम्राज्यवादी प्रांतों का रूप दे दिया गया. सामंतवाद, जो बनने की स्थिति में था, राष्ट्रीय संगठन के रूप में स्थानीय रूप से विकसित नहीं हो सका.

मुसलमानों का साम्राज्यीय और प्रांतीय राज्य स्थानीय सामंती सरदारों के ख़िलाफ़ था और यदि वे ताकतवर होते तो मुसलमानी हक़ को खल्श होती. मुसलमान देश के सामंतों को पूरी तरह अपने अधीन नहीं कर सके. यही कारण है कि हम उन स्थानीय सामंतों को बारम्बार विद्रोह करते देखते हैं. पर इन सामंतों के विद्रोह को राष्ट्रीय जागृति नहीं माना जा सकता.

अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक मुसलमानी सामंती साम्राज्यवाद भारत पर करीब पांच सौ राज कर ढह गया. उसका पतन किसी एक वर्ग के कारण नही हुआ. मुसलमानों का राजतंत्री सामंतवाद सेना के बल पर टिका था वह स्थानीय राज्यों के विद्रोह से ढह गया क्योंकि स्थानीय सामंतों के पीछे जन बल था. मुग़ल साम्राज्य और उसकी सेनाओं ने आक्रमणकारिता के साथ लुटेरा रूप ले लिया था. भारत में बसने वाली सभ्यता बारम्बार लूटी जाती रही. उनकी सेनाओं का लुटेरों का रूप अधिक रहा जन रक्षा का रूप कम. मुग़ल सेना का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए लेने लगे. सिख, राजपूत और मराठों के शक्तिशाली होने के कारण भी मुग़ल साम्राज्यवाद का पतन हुआ.

थोड़े में मुगलिया सामंती साम्राज्यवाद की यह रूपरेखा प्रकट की गई है. अब आधुनिक ब्रिटिश साम्राज्यवाद को लेते हैं :

अठारहवीं शताब्दी के प्रथम दशकों में जब मुग़ल साम्राज्य का पतन हुआ तब भारत में व्यापारिक कम्पनी विद्यमान थी जो मुग़ल साम्राज्य के पतन की निर्णायक रही. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत पर राजनीतिक पैर ज़माने में सफल रही. इसका साथ स्थानीय व्यापारियों ने भी दिया.अंग्रेजों ने जिस सरलता से अलग-अलग राजाओं पर विजय प्राप्त की उससे पता चलता है कि भारतीय सामंतवाद पतनोन्मुख हो गया था. इस विजय में अंग्रेजों का साथ स्थानीय सेना ने दिया जिसमें अधिकांशतः कृषक थे. बाहर से आए व्यापारी बाहर से आए विजेताओं को आसानी से हरा सके.

अंग्रेज आभिजात्य वर्ग भारत को उपनिवेश बनाने में अधिक दिलचस्पी रखता था. अंग्रेज आभिजात्य वर्ग राजनितिक सत्ता में आ गया तो यह अवश्यम्भावी था कि भारत में भी अभिजात्य वर्ग उभरता. सम्भावना थी कि यही वर्ग आगे चल कर अंग्रेजी राज्य के लिए खतरा बनता. आभिजात्य वर्ग की पराजय ने सामंतों को पुनर्स्थापन की स्थिति में ला दिया जिससे किसान पुनः दासता की स्थिति में आ गया. समाज का (व्यापारिक) विकास इससे ठप हो गया. स्थिति विपरीत हो गई. सारे देश में राजनीतिक अराजकता फ़ैल गयी. बाहर से आयी अधिक उन्नत ताकत ने कब्जा कर लिया.

१८५७ की प्रथम स्वातंत्र्य क्रांति (जिसे अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह की संज्ञा दी थी) के बाद सामंतवाद समाप्त हो गया - मुगलिया सामंती साम्राज्यवाद और स्थानीय सामंतवाद दोनों. एम.एन.रॉय ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया इन ट्रांसिशन’ (India in Transition) में पृष्ठ २०-२१ पर लिखा है “The revolution of 1857 was nothing but the last effort of the dethroned feudal potentates to regain their power. It was a struggle between the worn out feudal system and newly introduced commercial capitalism for political supremacy. At the same time, when feudalism was crumbling down in Europe before the rising bourgeoisie, a vibration of this great social struggle did not remain unfelt in India.”

अंग्रेजों ने भारत को दो प्रकार की प्रशासनिक पद्धतियों में बाँट दिया. एक रियासती भारत और दूसरा ब्रिटिश भारत. रियासतों में राजाओं को Wards of the British Empire की स्थिति में ला दिया. जैसा कि आज कहा जाता है भारत सामंतवादी देश नहीं रहा. भारत में सामंतवाद किसी भी क्रांति के कारण समाप्त नहीं हुआ ( योरूप कि तरह) वरन शांति और प्रगतिशीलता के कारण हुआ.

सामंतवाद, जिसकी अपनी आर्थिकता रही है, को पहला मरण-धक्का उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य लगा जब राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ से आभिजात्य वर्ग के हाथ में चली गयी. जिस रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अंग्रेजी व्यापारिक पूँजी को भारत में मजबूत बनाया उसी अनुपात में सामंतवाद ढहता गया. परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी को ताक़तवर होनें में सौ साल लगे.

अंग्रेजों का आधुनिक पूंजीवादी साम्राज्य का रूप क्या रहा उसे जानने के लिए हम एम. एन. रॉय की पुस्तक India in Transition 'संक्रान्ति में भारत' का लंबा उद्धरण यहाँ प्रस्तुत कर रहें हैं जो उस स्थिति को अच्छी तरह प्रकट करता है:

“…of the 12,328 big land owners, nearly 700 are classed in the category of Native States. Their chiefs are called Feudalatory or Protected Wards of the British Government. One third of the area of the country, or 20,555 square miles, is governed by these chiefs and is known as native India. The biggest of these is Hyderabad or Nizam’s dominions, which equals Italy in area with 13,500,000population. The smallest is limited to only five villages. The aggregate population of native India is 72,000,000 a little less than one fourth of the entire population of the country. The existence of these native states is responsible for India being called a feudal country. Theoretically the native chiefs enjoy the sovereign power with their respective territories, but practically they have no power whatever much less do they constitute the backbone of the socio economic structure of the country. The internal administration of some of these states is feudal , except a few, none of these feudal states is directly descendent from the feudal nobility of pre-British India . To all intent purposes, they are puppets in the hands of British Government. Besides the local and municipal administration, all these states are governed politically and militarily by the British commercially and industrially by the native bourgeoisie. In fact the native bourgeoisie has more influence in the government of the native states than the Government of India. All these states have legislative councils of their own representing the local commercial and land owning class and lately the industrial bourgeoisie is fast making itself supreme. But the autocrat in whom the absolute power is vested for all practical purposes is the one who is the representative of the British Government. Originally the Residents were sent to the courts of the native princes as administrators of the British Government…but being the representative of the more advanced social class, namely the bourgeoisie, these Residents have in course of time become the arbiters of the states… Therefore we see that even in thesenative states where at least the shadow of feudalism still clings to a certain extent, it is the bourgeoisie which wields the political power.
“In the internal administration of many of the larger native states the progressive tendency of the bourgeoisie is more clearly manifested. In states like Mysore, Travancore, Baroda Cochin etc the percentage of literacy is much lower than in British India.”

यहीं समाप्त होती है राजस्थान में सामंतवाद की गाथा.

सामंतवाद का पहला स्वरूप:

“So long as the surplus product of labour passed, in forms of tax, toll, and rent into the hands of kings and nobles, the church, the orders, and city funds whether consumed, to be consumed in luxury or to be accumulated as a treasure it remained feudalism. It could not give rise to capitalism. (The Evolution of Modern Capitalism By J.Thomson Page-7)

और मुगलिया सामंती साम्राज्यवाद विदेशी शक्तियों का स्थानीय उभरते सामंतवाद का शोषण और भारत के अलग-अलग राज्यों का एकीकरण मातहती के रूप में किया जिसका विरोध स्थानीय राजपूताना के राजाओं ने केवल अपने राज्य को कायम रखने के लिए किया. जबकि आधुनिक अंग्रेजी पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने रियासतों के रूप में अपने स्वार्थों के कारण अर्द्ध सामंतवाद को कठपुतली के रूप में कायम रखा.

इंग्लैंड को, कार्ल मार्क्स के अनुसार, भारत में दो लक्ष्य प्राप्त करने थे. एक विध्वंशंक (विघटनकारी) और दूसरा पुनरुद्धारक- प्राचीन एशियाई समाज का विनाश और एशिया में पाश्चात्य समाज की भौतिक नींव डालना. एशियाई समाज जो पूर्वी सामंतवाद के रूप में विद्यमान था. ब्रिटिश पूँजी ने भारत को एक उत्पादक देश बनाने की ओर प्रेरित किया - रेलों की स्थापना से औधोगिक विकास के रूप में.

इतिहासकारों में, जैसा कि उनका विश्वास रहा, अंग्रेजों का भारत सामंती देश नहीं था. वह पूंजीवादी देश भी नहीं था. यद्यपि अंग्रेजों नें सामंतवाद को रियासतों के रूप में बर्दाश्त किया. कहना होगा कि भारत पूंजीवादी व्यवस्था की कक्षा (धुरी) में था.

Comments

बहुत ही विस्तृत जानकारी पूर्ण लेख. साधूवाद!
कर्नल टॉड के द्वारा बसाये गये गाँव टॉडगढ़ में पापाजी का ननिहाल है और इस नाते कई बार टॉडगढ आना जाना लगा रहता है।
कुछ बरसों पहले कर्नल टॉड के बंगले को देखने गया, देख कर बड़ा अपसोस हुआ, राजस्थान सरकार ने उन विद्वान के बंगले को तेरापंथ संघ को बेच दिया और तेरापंथ ने उस बंगले को पूरा अपने हिसाब से रंग रोगान कर बर्बाद कर दिया।
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