लील रहा है बाज़ार हमारी कला और सांस्कृतिक धरोहरों को

राजेंद्र बोड़ा

राजस्थान अपनी स्थापना के ६० वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. इस मौके पर सरकार एक बड़ा जश्न मना रही है. राजस्थान सदियों से बाहर के लोगों के लिए अजूबा रहा है. जहाँ प्रकृति जीवन के विपरीत रही हो और इंसान को जीने के लिए अपने आस पास के कठोर वातावरण से झूझना पड़ता रहा हो, वहीं खूबसूरत संस्कृति और कलाएं किस भांति पनपी उस पर पूरी दुनिया आश्चर्य करती रही है. मरू भूमि में रहने वालों ने दुनिया को सिखाया कि किस प्रकार प्रकृति से लड़ कर नही उससे सहकार करके ही मानव जी सकता है और अपनी नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवित कर सकता है. इसी सहकार से राजस्थान की संस्कृति में गहरे रंगों की छठा नज़र आती है और यहाँ गीत संगीत और नृत्य की अनोखी बानगियाँ मुखर और हाथ की कलाएं सजीव हो उठती हैं.

यही राजस्थान की पुरातन धरोहर है जिसे यहाँ के लोगों ने बड़े जतन से सहेज रखा है. विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में तप कर ही यहाँ के लोग देश के कोने कोने में गए और अपनी उद्यमशीलता के बलबूते पर सफल हुए और बड़े नाम ही नही कमाए बल्कि देश की आर्थिक उन्नति में योगदान करने वालों में प्रमुख रहे. वे बाहर जाकर सफल हुए और ऊंचे परचम फहराए मगर अपनी भूमि को नही भूले. यहाँ अपना ठिकाना बनाए रखा, रिश्ता बनाए रखा. भले ही यहाँ आने का सिलसिला कम से कमतर होता गया. मगर अब गुजरा ज़माना बहुत पीछे छूट गया है और नई पीढ़ी चाहती है कि राजस्थान आधुनिक हो जाए. सरकार उनके इस सपने को पूरा करने के लिए ऐसे उद्यम कर रही है जिससे नई अर्थ व्यवस्था की भाषा में कहें तो राजस्थान की “मार्केटिंग” की जा सके.

मार्केटिंग बड़ा सुंदर शब्द लगता है. इसका अर्थ सीधे शब्दों में होता है राजस्थान में धन लगाने के लिए पैसे वाले व्यक्तियों और कम्पनियों को लुभाया जा सके. मार्केट यानी बाज़ार. ऐसे जश्नों के जरिये बाज़ार में हम क्या बेचना चाहते हैं ? और फिर कोई चीज बेचने के लिए ग्राहक के मन की तो बात करनी ही पड़ती है. अच्छा सेल्समैन वह होता है जो ग्राहक की पसंद की बात करे. संस्कृति और परम्पराओं के प्रतीकों से राजस्थान की “मार्केटिंग” की जाती है.

राजस्थान की वह क्या संकृति है, वे कौन सी धरोहरें हैं, और कौन सी परम्पराएं हैं जिन्हें हम सहेजे भी रखना चाहते हैं और उन्हें आधुनिक पॉप बाना पहना कर बेचना भी चाहते हैं. यह समस्या उन लोगों की भी है जो हमारी कला, संस्कृति के वाहक बने रहे हैं. कैसे अपनी धरोहर को बचाए रखे जब बाज़ार का दबाव उन्हें ग्राहक की पसंद के अनुसार माल देने का हो. इसका एक उदाहरण पिछले दिनों मिला जब जैसलमेर जाना हुआ और वहां एक सर्द शाम 'सम' के धोरों पर राजस्थानी लोक संगीत के मानीते कलाकारों की कला के जादू के प्रभाव में खो जाने का मौका मिला. राजस्थान के पर्यटन विभाग सम पर शाम को ऐसी महफिलें पर्यटकों के लिए आयोजित करता है जो मार्केटिंग की दृष्टि से खूब सफल भी है. सम की उस शाम की महफ़िल में हिन्दुस्तान के हर कोने से आए लोग थे. गुजराती, पंजाबी, बंगाली, मराठी और दक्षिण भारतीय. साथ में विदेशी भी राजस्थानी लोक संगीत का लुफ्त उठाने को वहां मौजूद थे. बाज़ार की दृष्टि राजस्थानी लोक गीत, संगीत और नृत्य की ये शाम सफल थी. लोक संगीत का जादू ऐसा चढ़ा कि अधिकतर पर्यटक लोक गायकों और संगीतकारों की धुनों पर नाचने से अपने को नहीं रोक सके. कार्यक्रम के बाद मांगंनियार लोक गायकों से चर्चा हुई और मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने जो चीजें पेश की क्या वे ठेठ राजस्थानी है? क्यों उन्होंने वे श्रोताओं को बहलाने वाली चीजें प्रस्तुत की? ऐसी चीजें जो राजस्थानी संस्कृति और परम्पराओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती . हाँ उनका पॉप संस्करण जरूर है. उनका जवाब था "क्या करें सा’ब करना पड़ता है. ये जो सामने लोग बैठे है कितने ऐसे है जो असली राजस्थानी लोक संगीत को सुन कर लाजवाब होंगें".

उन्होंने सच कहा. वहाँ जो दर्शक थे वे ऐसे ग्राहक थे जो बस तमाशा चाहते थे और तमाशा करके उनका मनोरंजन करना हमारे कलाकारों की मजबूरी थी क्योंकि बाजार यही चाहता था. यही हम 'राजस्थान दिवस' के जलसों में देखते है. तमाशे है, मनोरंजन है. जिस कला संस्कृति और परम्पराओं के नाम पर राजस्थान की 'मार्केटिंग' की जा रही है उसमे यही चीजें जो राजस्थान की पहचान है कही खोती जा रही है. यहाँ राज्य का दायित्व आता है. जब रियासती जमाने के दरबारों में कलाओं और हुनरों को इज्जत बख्शी जाती थी तब उन्हें तमाशा नही बनाया जाता था. इसीलिए ये धरोहरें बच गई. क्या आज के मार्केटिंग के जमाने में ये धरोहरें बचाई जा सकेगीं ?

धरोहरें केवल पत्थर की इमारतें नहीं होती जिन्हें ईंट-गारे से लेप कर बचा सकते है. कला, हुनर, संस्कृति और परम्पराएं बड़ी नाजुक होती है. उन्हें बड़े जतन से सहेजना होता है. राजस्थान की मार्केटिंग के लिए वे ही कुछ प्रतीक बार-बार पकड़े जाते हैं जिन्हें बाज़ार ने राजस्थान की एक मात्र पहचान के रूप में स्थापित कर रखा है. क्या सबसे कम उम्र का शहर जयपुर ही राजस्थान की धरोहर है ? क्या काले कपड़े पहन नाच करने वाली लड़कियों का "कालबेलिया" नृत्य ही राजस्थान के लोक नृत्यों का प्रतिनिधित्व करता है ? बाज़ार “नीम्बूडा” जैसे गानों को राजस्थान का प्रतिनिधि लोक संगीत बना देता है.

सरकार में बैठे लोग कला और संस्कृति के मर्मज्ञ हों जरूरी नही है. मगर शासन चलने वाले ऐसे लोगों से राय तो कर ही सकते है जिनके कला और संस्कृति के सरोकारों से जग परिचित है. मगर शायद ऐसा बाज़ार को नही भाता. सरकार के पास आधुनिक राजस्थान की पहचान की छवि उस काफ़ी टेबल बुक की तरह है जो बड़ी महंगी होती है मगर उसका काम खूबसूरत ड्राइंग रूम की सजावट बनना होता है और जिसे कोई पढता नहीं.

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