भाजपा के लिए बोझ साबित हुई वसुंधरा राजे


राजेंद्र बोड़ा

राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजे अनपेक्षित नहीं हैं. किसी को यह अपेक्षा नहीं थी कि चुनाव के नतीजे किसी एक पार्टी के समर्थन या विरोध में लहर के से परिणाम देंगे. भारतीय जनता पार्टी बहुत बुरी तरह से नहीं हारी है तो कांग्रेस भी बहुत शानदार तरीके से नहीं जीत पायी है. मतदाताओं ने बहुत ही समझबूझ से अपने मताधिकार का प्रयोग किया है. उन्होंने हरेक जगह अपने हिसाब से अपने प्रतिनिधियों का चयन किया है और अपने मुद्दे ख़ुद तय किए हैं. सबसे दिलचस्प बात तो यह रही कि अनेक सीटों पर तो ख़ुद प्रत्याशी ही प्रमुख मुद्दे बन गए थे.

लोकतान्त्रिक चुनावों के इतिहास में राजस्थान में यह दूसरा मौका है जब कांग्रेस सत्ता में तो आ रही है मगर 200 सदस्यों की विधानसभा में 96 सीटों पर जीत दर्ज कर पूर्ण बहुमत के जादूई आंकडे से पाँच सीटों से पीछे है. ऐसा ही 1967 के चुनावों में हुआ था जब आजादी के बाद से लगातार सत्ता में रही कांग्रेस पूर्ण बहुमत से पाँच सीटें पीछे रह गयी थी. तब संगठित विपक्ष का दावा राज्यपाल द्वारा नहीं मानने पर राजधानी जयपुर में हिंसक आन्दोलन छिड गया था और पुलिस गोलीबारी में कईं जानें गयीं थी. पूरे 44 दिन के राष्ट्रपति शासन और कुछ विपक्षी विधायकों के कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद ही मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिया सरकार बना सके थे. लेकिन इस बार कांग्रेस बहुत ही सुविधाजनक स्थिति में है. जो 26 निर्दलीय तथा अन्य प्रत्याशी जीत कर विधान सभा में पहुंचे हैं उनमें से कईं ख़ुद आगे बढ़कर समर्थन का प्रस्ताव कर रहे हैं. जिस प्रकार का जनादेश जनता ने दिया है उसको चुनौती देने की हालत में भारतीय जनता पार्टी नहीं है और उसने तथा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मतदाताओं के फैसले को स्वीकार कर लिया है.

मतदाताओं ने इन चुनावों में जिस प्रकार अपने विवेक से जनादेश दिया है वह सामंती पृष्ठभूमि वाले इस प्रदेश में लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है. चुनावी नतीजे स्पस्ट तौर पर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के राजसी स्वभाव को अस्वीकार करने वाले हैं. राजे ने ये चुनाव पूरी तरह अपने पाँच साल के काम और अपनी करिश्माई छवि के आधार पर लड़ा था. उनकी व्यवस्थाओं में भारतीय जनता पार्टी संगठन का वैसा ही मामूली स्थान चुनावों में भी रहा जैसा उनके पूरे शासन काल में था. इसी कारण चुनावी नतीजों पर पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं में संतोष का भाव ही नज़र आता है. राजे राजस्थान की पहली मुख्यमंत्री थीं जो उच्च वर्ग - शाही परिवार- से आयीं थी. अब तक यहाँ मध्यम वर्ग से ही मुख्यमंत्री बनते आए है. उन्होंने अपना शासन कारपोरेट तर्ज पर चलाया और पूँजी जगत के प्रमुखों को हर जगह तरजीह दी. वे शायद इसी दुनिया में अपने को सहज पाती थी इसीलिए पार्टी संगठन से उनका संबंध असहज रहा. पूँजी जगत के दिग्गजों से नजदीकियों के चलते उन पर और उनकी सरकार पर भ्रस्टाचार के तथा अपने करीबियों को मदद पहुचाने के आरोप लगते रहे मगर वे हमेशा अपनी ठसक में उन्हें नज़रअंदाज करती रहीं. अशोक गहलोत अकेले नेता रहे जिन्होंने राजे को इसी मुद्दे पर पूरी तरह घेरा और चुनाव में उन्हें
पटखनी दी. गहलोत के पिछले कार्यकाल की बात राजे ने की तो मतदाताओं ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

ख़ुद अपनी मुख्यमंत्री से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और नेता कितने असहज थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वे ही सबसे अधिक संशय में नज़र आ रहे थे. दिल्ली से आए भाजपा नेता जानते थे कि राजे सरकार पर भ्रस्टाचार के आरोपों का वे जवाब नही दे सकते हैं इसलिए उन्होंने आर्थिक मंदी और आतंकवाद पर केन्द्र की कांग्रेस सरकार नरमी को चुनावी मुद्दा बनाने की भरसक कोशिश की. चुनाव प्रचार के अन्तिम चरण में मुंबई में आतंकी हमलों ने भाजपा नेताओं के चेहरों को खिला दिया. मगर राजस्थान के मतदाताओं ने इन मुद्दों पर नज़र ही नही डाली.

राज्य के मतदाताओं की परिपक्वता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बावजूद जातिवाद की जटिलताओं के उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों के दिग्गजों को ठिकाने लगा दिया. विधानसभा अध्यक्ष के अलावा राजे मंत्रिमंडल के 13 सदस्यों तथा छः बोर्डों और निगमों के अध्यक्षों को उन्होंने समर्थन देने से इनकार कर दिया. इसी प्रकार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष, दो पूर्व प्रदेश अध्यक्षों और आधा दर्जन से अधिक नेताओं को भी मतदाताओं ने नकार दिया. दल बदलुओं को भी इन चुनावों में शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा भले ही वे भाजपा छोड़ कर कांग्रेस के टिकट पर मैदान में थे या कांग्रेस छोड़ कर भाजपा के प्रत्याशी के रूप में चुनावी जंग में उतरे थे.

अशोक गहलोत एक सोची समझी रणनीति के तहत पिछले एक साल में जिस तरह परिवर्तन की बयार लाने के लिए पूरे प्रदेश में घूम रहे थे वह रंग लाई और चुनाव आने तक वे कांग्रेस संगठन को एकजुट करने में सफल रहे. यदि गहलोत का अंदरूनी तौर पर विरोध नही होता तो कांग्रेस की झोली और बड़ी होती जिसे भरने को मतदाता तैयार थे. कांग्रेस को एक ऐसी धुरी की
जरूरत थी जिसके गिर्द कार्यकर्ता काम कर सकें. अशोक गहलोत ने आगे बढ़कर यह रिक्त स्थान भरा जिससे उनकी पार्टी शासन में आने का सफर तय कर सकी. चुनाव के नतीजे यह भी बताते हैं कि अपने रुतबे से कोई समझौता नहीं करने वाली मजबूत मुख्यमंत्री भारतीय जनता पार्टी के लिए बोझ साबित हुई.

चुनावी नतीजे यह भी संकेत देते हैं कि जाट और मीणाओं के अलावा अन्य जातियाँ भी अब अपना राजनैतिक हक़ माग रही है. बड़ी पार्टियों का वैचारिक आधार पर कमजोर होने से भी जातियों के नए समीकरण बन रहे हैं. राजे ने अपने तरीके से सोशल इंजीनियरिंग करके अपना और अपनी पार्टी का राजनैतिक आधार बढाने का प्रयास किया वही उनके लिए उल्टा पड़ा. वे दक्ष प्रशाशक के रूप में ऐसी उभरी कि उच्च स्टार की सारी प्रशासनिक मशीनरी उनके खिलाफ हो गयी. राजे की हार का जश्न ऊंचे पदों पर बैठे उन भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों ने मनाया जिन्हें राजे मौके बेमौके सार्वजनिक रूप से डपटती रहीं.

भारतीय जनता पार्टी की पराजय किसी एक क्षेत्र में नही है. उसकी सीटें राजस्थान के हर संभाग में कम हुईं हैं. कांग्रेस ने 40 सीटें बधाई है तो भाजपा ने 42 सीटें खोई हैं. बहुजन समाज पार्टी ने अपना वजूद बढाया है तो बागी लोगों ने भी अपने तेवर इन चुनावों में दिखाए हैं. सबसे अधिक 50 सीटों वाले जयपुर संभाग में कांग्रेस ने 20 तो भाजपा ने 19 सीटें हासिल की है. जोधपुर संभाग में 33 सीटें है जिनमें से कांग्रेस ने 15 और भाजपा ने 16 सीटें जीती हैं. बीकानेर संभाग की 24 में से दोनों पार्टियाँ दस दस सीटें ले सकीं हैं. भाजपा को उदयपुर में सबसे अधिक नुकसान हुआ है जहाँ कांग्रेस 28 में से 20 सीटें लेने में सफल रही है जबकि भाजपा छः पर सिमट गयी. कोटा की 17 में से दस कांग्रेस के खाते में गयी जबकि सात भाजपा
को गयी. केवल भरतपुर संभाग में कांग्रेस को 19 में से पाँच सीते मिली जबकि भाजपा दस सीटें ले गयी. अजमेर संभाग में 29 में से 15 सीटें कांग्रेस को और 11 सीटें भाजपा को मिली.

चुनावों में मतदाताओं ने कांग्रेस को राज तो सौपा है मगर उसके सामने एक शशक्त विपक्ष भी खड़ा करदिया है. यह लोकतंत्र की मजबूती ही कहा जायेगा.

(जनसत्ता के दिनांक 11 दिसम्बर 2008 के अंक में प्रकाशित)

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