गाँधी और नेहरू के मतभेद उजागर करता एक ख़त


(आजाद भारत का नक्शा कैसा होगा इस पर गाँधी और नेहरू के बीच गहरे मतभेद को गाँधी का 5 अक्टूबर 1945 को लिखा पत्र स्पष्ट रूप से इंगित करता है. गाँधी इस पत्र में अपने 'हिंद स्वराज' के विचारों का खुलासा करते हैं. ख़त का प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है जो आज भी उतना ही मौजूं है.)

चि. जवाहर लाल,

तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ. अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में, वह भी मेरे सामने सवाल था. आखर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया.

पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है, उसकी है. अगर ये भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए, क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रुकता है. मैंने कहा कि 'हिंद स्वराज' में मैंने लिखा है, उस राज्य-पद्धति पर मैं बिल्कुल कायम हूँ. यह सिर्फ़ कहने की बात नही है. लेकिन जो चीज मैंने 1908 के साल में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है. आख़िर में मैं एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, उसका मुझको जरा भी दुःख नहीं होगा, क्योंकि मैं जैसा सत्य पाता हूँ, उसका मैं साक्षी बन सकता हूँ. 'हिंद स्वराज' मेरे सामने नहीं है. अच्छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खींचू. पीछे वह चित्र सन् 1908 जैसा है या नहीं, उसकी मुझे दरकार न रहेगी, न तुम्हें रहनी चाहिए. आखर में तो मैंने पहले क्या कहा था, उसे सिद्ध करना नहीं है. आज मैं क्या कहता हूँ, वही जानना आवश्यक है. मैं यह जानता हूँ कि अगर हिंदुस्तान को सच्ची आज़ादी पानी है तो हिन्दोस्तान के मारफत दुनिया को भी, आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा , झोंपडियों में, महलों में नहीं. कई अरब आदमी शहरों में और महलों में सुख से और शान्ति से कभी रह नहीं सकते, न एक दूसरों का खून करके, मायने हिंसा, न झूठ से - यानि असत्य से. सिवाय इस जोड़ी के (याने सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा भी शक नहीं है. उस सत्य और अहिंसा का दर्शन हम देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं. वह सादगी चरखा में और चरखा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है. मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उलटी ओर ही जा रही दिखती है. यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है. हो सकता है कि हिन्दोस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके. मेरा फ़र्ज़ है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं. मेरे कहने का निचोड़ यह है के मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए - अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है. आखिर में तो जगत व्यक्तियों से ही बना है. बिन्दु नही है तो समुद्र नहीं है. यह तो मैंने मोटी बात ही कही - कोई नई बात नहीं कही.

लेकिन हिंद स्वराज में भी मैंने यह बात नहीं की है. आधुनिक शास्त्र की कदर करते हुए पुरानी बात को मैं आधुनिक शास्त्र की निगाह से देखता हूँ तो पुरानी बात इस नए लिबास में मुझे बहुत मीठी लगती है. अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज की देहातों की बात करता हूँ तो मेरी बात नहीं समझोगे. मेरा देहात आज मेरी कल्पना में ही है. आखर में तो हरेक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है. इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा - शुद्ध चैतन्य होगा. वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिंदगी बसर नहीं करेगा, मरद और औरत दोनों आज़ादी से रहेंगे और सरे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे. वहां न तो हैजा होगा, न मरकी होगी, न चेचक होगी. कोई आलस्य में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा. सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी. इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी-ऐसी बहुत सी चीज का ख्याल कर सकता हूँ जो बड़े पैमाने पर बनेगी. शायद रेलवे भी होगी, डाकघर भी होंगे. क्या होगा, क्या नहीं उसका मुझे पता नहीं. न मुझको उसकी फिकर है. असली बात को मैं कायम कर सकूं तो बाकी आने की और रहने की खूबी रहेगी. और असली बात छोड़ दें तो सब छोड़ देता हूँ.

उस रोज हम आखर के दिन वर्किंग कमेटी में बैठे थे तो ऐसा कुछ फ़ैसला हुआ था कि इसी चीज को साफ़ करने के लिए वर्किंग कमेटी 2-3 दिन के लिए बैठेगी. बैठेगी तो मुझे अच्छा लगेगा. लेकिन न बैठे तब भी मैं चाहता हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझ लें. उसके दो सबब हैं. हमारा सम्बन्ध सिर्फ़ राजकारण का ही नहीं है. उससे कई दर्जे गहरा है. उस गहरे का मेरे पास कोई नाम नहीं है. वह सम्बन्ध टूट भी नहीं सकता. इसलिए मैं चाहूँगा हम एक दूसरे को राजकारण में भी भली-भांति समझें. दूसरा कारण यह है कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझते हैं. हम दोनों हिन्दोस्तान की आज़ादी के लिए ही जिंदा रहते हैं और उसी आज़ादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा. हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है. तारीफ हो या गालियां - एक ही चीज है. खिदमत में उसे कोई डिगा ही नहीं सकता. अगरचे मैं 125 वर्ष तक सेवा करते करते जिंदा रहने की इच्छा करता हूँ तब भी मैं आखर में बूढा हूँ और तुम मुकाबले में जवान हो. इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारस तुम हो. कम से कम उस वारस को मैं समझ तो लूँ. और मैं क्या हूँ, वह भी वारस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा...

बापू के आशीर्वाद

(प्रस्तुति : राजेंद्र बोड़ा)

(जनसत्ता के दिनांक 25 जनवरी 2009 के अंक में प्रकाशित)

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