जोधपुर से जुडी हैं उस्ताद अली अकबर खां साहेब की यादें

राजेंद्र बोड़ा

सरोद के बेताज बादशाह उस्ताद अली अकबर खान साहेब का इंतकाल शास्त्रीय संगीत के एक युग पुरुष का हमारे बीच से उठ जाना है. उनके सरोद के तारों की धुन के दीवाने हिंदुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. उनके निधन की खबर सुन कर खान साहेब की स्मृतियों में खो जाने वालों में राजस्थान के जोधपुर शहर के संगीत के रसिक भी हैं. बहुतों को नहीं मालूम होगा कि खान साहेब का तत्कालीन मारवाड़ की राजधानी जोधपुर से गहरा रिश्ता रहा. वास्तव में इस सरोदवादक को अपनी पहली असली कामयाबी इसी मरू भूमि पर मिली. वे जोधपुर दरबार में संगीतज्ञ के रूप में नियुक्त होकर आये और इस शहर में करीब सात बरस रहे. जोधपुर दरबार में ही उन्हें उस्ताद की उपाधि मिली. ये वो ज़माना था जब राज दरबारों में संगीतकारों की प्रतिभा को बुलंदियां मिलती थीं. जोधपुर में अपने जीवन की पहली असली उपलब्धि हासिल करने के बाद सरोद के तारों के इस जादूगर ने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा. वे संगीत में सफलताओं के एक के बाद एक बड़े शिकार चढ़ते ही गए.

उस्ताद अली अकबर खान साहेब का जोधपुर प्रवास के दिलचस्प किस्से स्वर्गीय संगीतकार रामलाल माथुर सुनाया करते थे.

खान साहेब के जोधपुर प्रवास काल में रामलाल जी का अधिकांश समय उनके सानिध्य में गुजरा. खान साहेब से रामलालजी ने औपचारिक रूप से संगीत की तालीम ली थी. इसलिए उनके पास अपने उस्ताद के साथ बिताये दिनों की लम्बी खुशगवार यादें थीं. रामलाल जी के शब्दों में उस्ताद को मोटर कार चलने का बेहद शौक था. जब वे जोधपुर आये ही थे तब दरबार की और से उस्ताद के लिए हर समय एक बग्गी तैनात रहती थी. फिर उन्हें एक मोटर साईकिल और बाद में उन्हें एक कार भेंट की गयी. कार ख़राब हो जाने पर उसे स्वयं ठीक करना उस्ताद का पसंदीदा काम था.

उस्ताद को तेज रफ़्तार से गाडी चलाना अच्छा लगता था. कभी खान साहेब अपने नजदीकी लोगों जिनमें रामलालजी जरूर होते थे अपनी कार में बिठा कर पाली के पास जसवंत सागर बंधे तक चले जाते थे और वहां घंटों बैठे रहते . चलती कार में ही उस्ताद गाकर अपने शागिर्दों को रागों के भेद बताते थे. अधिकतर उनके साथ कार में रामलालजी और संगीतकार जयदेव हुआ करते थे. कभी कभी उस्ताद की पत्नी बऊदी भी साथ हो लेती थीं.

रामलालजी ने एक किस्सा सुनाया कि एक रात लगभग नौ बजे उस्ताद की पत्नी खाना लगाने की तैयारी कर रहीं थीं. उस्ताद ने उसी दिन सरोद पर नया चमडा लगाया था अतः वे चौक में खाट पर केवल यह देखने के लिए बैठ गए कि घुड़च और तार ठीक से जमे हैं या नहीं. साज को जांचते जांचते उनका मन बजाने में लग गया और वे घंटों बजाते रहे. उस्ताद को बीच में कौन टोके ? सभी चुपचाप सुनते रहे. रात एक बजे उन्हें सुधि आयी. उस रात उस्ताद ने तन्मयता से अपने लिए जो बजाय वह ता उम्र रामलाल जी के मानस पटल पर अंकित रहा.

उस्ताद अली अकबर खान साहेब के जोधपुर प्रवास काल में पंडित रविशंकर कईं बार वहां आये. उन दिनों साले - बहनोई में खूब पटती थी. दोनों ज़िन्दगी को उत्सव की तरह जीते थे. वे एक दूसरे से बच्चों की तरह हंसी मजाक करते और एक दूसरे को बनाते भी खूब थे. दोनों में गज़ब की आपसी सूझ बूझ थी जिसकी झलक उनकी जुगलबंदी में मिलती थी. एक बार जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में हुई महफिल में दोनों ने मिल कर रात भर बजाया. तबले पर उनके साथ संगत की थी पंडित किशन महाराज ने.

सितार के एक अन्य प्रमुख घराने के उस्ताद विलायत खान भी खान साहेब के मेहमान बन कर जोधपुर रहे. उनके कार्यक्रम महाराजा के यहाँ तो होते ही थे उस्ताद के घर पर भी महफिल जुटती रहती थी. दोनों दिग्गज कलाकार बड़े प्रेम से एक साथ बजाते थे. रामलालजी ने बताया कि महाराजा हनुवंत सिंह ने इन दो दिग्गजों की जुगलबंदी की एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड भी बनवाई थी जिसमें दोनों ने राग मेघ बजाया था.


महाराजा उम्मेद सिंह के ज्येष्ठ पुत्र हनुवंत सिंह को शास्त्रीय संगीत बहुत प्रिय था. कभी कभी तो वे घंटों उस्ताद का सरोद वादन सुनते. एक बार किले के शीश महल में उस्ताद का कार्यक्रम हुआ जिसमें उन्होंने राग पूर्वी बजाया. हनुवंत सिंह ने सुन कर कहा उस्ताद आज तो बिलकुल नया राग बजाया, बहुत मीठा था. अब कोई हमारा राग भी बजाइए. हनुवंत सिंह को पीलू, खमाज, तिलक, कामोद, बिहाग, देश एवं भैरवी राग बहुत भाते थे. उस्ताद ने तिलक कामोद बजाया. इस राग की अवतारणा कुछ ऐसी करवट से हुई कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो गए. दाद देते हुए हनुवंत सिंह ने कहा "उस्ताद हम बाजी हार गए. आपसे आधा सरोद भी बजाना आता तो हम सब कुछ छोड़ कर हिमालय पर जा बसते."

हनुवंत सिंह ने उस्ताद अली अकबर खान साहेब के निर्देशन में एक वृन्दवादन दल भी बनाया. उस्ताद ने शास्त्रीय और लोक धुनों के वृन्दवादन (आर्केस्ट्रा) तैयार किये जो बहुत लोकप्रिय हुए.

हनुवंत सिंह जब गद्दी पर बैठे तब उन्होंने जोधपुर में पहला अखिल भारतीय संगीत सम्मलेन आयोजित करवाया. उस्ताद अली अकबर खान के प्रयासों से सम्मलेन में देश भर के सभी विख्यात संगीतकारों ने हिस्सा लिया. इस सम्मलेन की एक विशेषता यह भी थी कि इसमें उत्तर भारत के अलावा दक्षिणी भारत के सुविख्यात वीणा तथा मृदंगम के कलाकारों ने भीं प्रस्तुतियां दीं. साथ ही सुगम संगीत के गायकों संगीतकारों ने भी इसमें शिरकत की. इनमें सचिन देव बर्मन भी थे जिन्होंने बाद में हिंदी फिल्मों में बड़ा नाम कमाया. इस सम्मलेन में ध्रुवपद एवं कत्थक का भी समावेश था.

कोलकाता के एक सम्मलेन में रामलाल जी भी साथ गए थे. राय बोराल स्ट्रीट के उस सम्मलेन में देश के सभी चोटी के संगीतज्ञ भाग ले रहे थे. उस्ताद ने वहां राग मुल्तानी बजाया और सबको मानो सम्मोहित कर दिया. कार्यक्रम की समाप्ति पर 'आफ़ताब-ए-मौसिकी' उस्ताद फैयाज़ खान मंच पर आये और अली अकबर खान को गले लगा कर बोले "बेटा तूने हक अदा कर दिया. हम तेरे बाबा के ज़माने के हैं. उनका सुर तो बहुत सुना था पर तेरे ज़वे की चोट तेरी ही है. इल्म-ए-मौसिकी का चिराग रोशन रखना बेटे. खुदा की रहमत हो तुझ पर."


एक दिलचस्प घटना को सुनाये बिना हमारी बात अधूरी रहेगी. एक बार दिल्ली से लौट कर उस्ताद ने यह किस्सा रामलाल जी को सुनाया था. उस्ताद दिल्ली में रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में सरोद के तार मिला रहे थे. तभी एक नयी अनाउंसर आयी और पूछा आप ही अली अकबर हैं ? आपको देशकार राग बजाना है. समझे ? उस्ताद अपने मूड में थे. उससे कहने लगे “इस वक्त तो मैं राग देसी ही बजाऊंगा”. वह बोली “आप देसी या परदेसी कुछ नहीं बजा सकते. आपको देशकार ही बजाना पड़ेगा”. उस्ताद ने मुस्करा कर कहा मैं तो देसी ही बजाऊंगा. वह बोली “तो यह कहिये कि आपकी देसकार बजाना नहीं आता. मैं अभी रिपोर्ट करती हूँ”. उस्ताद बोले “जरूर करिए. मगर अपने डाइरेक्टर को यह कहना न भूलियेगा कि अली अकबर को देसकार बजाना नहीं आता. और हाँ अगर आप पांच मिनट में नहीं लौटी तो मैं यहाँ से चला जाऊंगा”. तीन मिनट में ही डायरेक्टर दौड़ा दौड़ा आया और उस्ताद से माफ़ी मांगी और नई अनाउंसर को तमीज सिखाई.

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