दास्तान कागज़ के फूल की











राजेंद्र बोड़ा


जिस प्रकार सफ़ेद कागज़ पर पेन या पेंसिल से लिखा जाता है वैसे ही सिनेमा में सफ़ेद परदे पर कैमरे से लि-खा जाता है. एक मायने में सिनेमा का पर्दा सफ़ेद कागज़ का बड़ा रूप है. कागज़ पर क्या लिखा गया है यह लिखने वाले पर निर्भर करता है. एक अनाड़ी का शब्दजाल भी उस पर लिखा जा सकता है तो शब्दों और अनुभूतियों का कोई धनी उस पर कोई कालजयी रचना भी उकेर सकता है. कागज़ पर लेखक लिखता है और सिनेमा के परदे पर छायाकार लिखता है. मगर सिनेमा साझेदारी वाली कला है जिसमें कई कलाओं का संगम होता है. विभिन्न कलाओं के महारथी मिलकर एक नयी सिनेमा कला का सृजन करते हैं. मूर्त, अमूर्त चित्र कलाओं के आयामों से आगे जाकर छायाचित्र और उससे भी आगे जाकर चलचित्र अपना यथार्थ रचता है. सिनेमा में यह यथार्थ कैमरे से उकेरता तो छायाकार है मगर उसका सृजक निर्देशक होता है. निर्देशक की कल्पना परदे पर तभी पूरी साकार होती है जब छायाकार और उसकी समझ में सम्पूर्ण साझा हो. ऐसी ही साझेदारी निर्देशक गुरुदत्त और छायाकार वी. के. मूर्ति के बीच थी जिसने गुरुदत्त की कालजयी फिल्मों की रचना की. मूर्ति को इस साल के दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया है. इस पुरस्कार के बहाने गुरुदत्त का रचनाकर्म भी फिर एकबार रेखांकित हुआ है.

'कागज़ के फूल' गुरुदत्त की महत्वाकांक्षी फिल्म थी. इस फिल्मकार की शुरुआत 'क्राइम थ्रिलर' विधा से हुई. 'बाज़ी', 'जाल', 'बाज़', 'आर-पार', 'मिस्टर एंड मिसेज 55' और 'सी आई डी' जैसी फ़िल्में निर्देशित करने और निर्माण करने के बाद उन्होंने 'प्यासा' जैसी गंभीर फिल्म बना कर अपनी धारा बदली थी.

'कागज़ के फूल' देश की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी. इसके लिए गुरुदत्त ने हॉलीवुड की ‘ट्वेटियथ सेंचुरी फोक्स’ कम्पनी से सिनेमास्कोप फार्मेट का उपयोग करने का कापीराईट लाइसेंस प्राप्त किया था. यह फिल्म छायाकार मूर्ति के लिए गुरुदत्त की विशेष सौगात थी. गुरुदत्त की फिल्म 'बाज़' असफल रही थी जिससे उन्हें काफी घाटा हुआ था. 'बाज़' के बाद गुरुदत्त ने 'आर-पार' फिल्म शुरू की. मूर्ति के शब्दों में "गुरुदत्त 'आर-पार' को जल्द से जल्द पूरा कर लेना चाहते थे. कईं बार वे मुझ पर चिल्ला पड़ते थे कि मैं शॉट की तैयारी में इतना समय क्यूँ लगा रहा हूँ. एक बार लंच से पहले मैं एक शॉट के लिए लाइटिंग कर रहा था. सारा काम हो जाने के बाद में उसमे बेहतरी के लिए कुछ फेर बदल करने लगा. मगर गुरुदत्त अड़ गए. नहीं कुछ नहीं करना है. जैसा है वैसा ही शॉट लेंगे. और उन्होंने मुझसे वैसे ही शॉट लिवाया. उसके बाद सभी लंच के लिए स्टूडियो से बाहर चले गए. मैं वहीँ बैठ गया और मेरे आंसू निकल आये क्योंकि मैं जैसा चाहता था वैसा शॉट नहीं ले सका था. मेरे मन में आया मैं फिल्म छोड़ दूं . पंद्रह मिनट बाद गुरुदत्त मुझे खोजते हुए स्टूडियो में आये. मेरी आँखों में आंसूं देख मुझे कहने लगे मूर्ति तुम्हें मेरी पोजीशन मालूम है. कितने पैसों का घाटा हुआ है. इसलिए में तुम पर दबाव डाल रहा हूँ.फिर कहने लगे अब यहाँ बैठे बैठे लड़की की तरह टेसुए मत बहाओ. यह क्या पागलपन है. चलो मैं ख़ास तौर पर तुम्हारे लिए एक फिल्म बनाऊंगा. वह फिल्म डायरेक्टर के किरदार पर होगी जिसमें स्टूडियो का खूबसूरत वातावरण होगा. इसलिए प्लीज अभी मेरे साथ कोआपरेट करो. गुरुदत्त ने बाद में अपना वादा निभाया और 'कागज़ के फूल' में मूर्ति को अपना कौशल दिखाने की पूरी स्वतंत्रता दी.


'कागज़ के फूल' 2 अक्तूबर 1959 को रिलीज हुई.

फिल्म इंडिया में समीक्षक ने टिप्पणी की : "कागज़ के फूल अत्यंत ही मामूली फिल्म है सिवाय इस एक बात के कि वह सिनेमास्कोप में बनी है. यह एक अवसादकारी, ढीली कहानी है जिसे बहुत ही उबाऊ तरीके से कहा गया है".

फिल्म का दिल्ली में भव्य प्रीमियर हुआ जिसमें तत्कालीन उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी शिरकत की. मगर समीक्षकों और दर्शकों दोनों ने फिल्म को तत्काल ख़ारिज कर दिया. कईं शहरों में तो यह फिल्म एक हफ्ते में सिनेमाघरों से उतर गयी.

भले ही दर्शकों को फिल्म पसंद नहीं आयी मगर फिल्म के कलात्मक पक्षों को सर्वत्र प्रशंसा मिली. इसके छायाकार वी. के. मूर्ति को इस फिल्म की श्रेष्ठ फोटोग्राफी के लिए उस साल का 'फिल्मफेयर पुरस्कार' मिला. फिल्म के कला निर्देशन के लिए पुरस्कार भी इसी फिल्म के लिए एम. आर. अचरेकर को मिला.

कुछ बरस बाद 1963 में 'फिल्मफेयर' में गुरुदत्त का एक इंटरव्यू छपा जिसमें उन्होंने अपनी इस फिल्म के बारे में कहा : "वह टुकड़ों-टुकड़ों में अच्छी थी. वह बहुत धीमी भी थी और वह दर्शकों के सिर पर से गुजर गयी".

कैफ़ी आज़मी, जिन्होंने कागज़ के फूल के गीत लिखे, की टिप्पणी थी कि यह फिल्म तकनीकी रूप से गुरुदत्त की सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी. "मैं समझता हूँ यह उनका सर्वश्रेष्ठ काम था. मगर फिल्म में वे क्या कहना चाहते थे वह स्पस्ट नहीं हो पाया. उस समय उनकी मानसिक स्थिति ऐसी ही थी. उनकी घरेलू ज़िन्दगी में जबरदस्त उथल-पुथल मची हुई थी.यही कारण था कि वे फिल्म की स्क्रिप्ट में लगातार बदलाव करते रहे. जितने सीन आख़िरकार फिल्म में रहे उससे अधिक निकाल दिए गए. बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की असफलता ने उनके आत्मविश्वास को हिला कर रख दिया".

'कागज़ के फूल' के बाद गुरुदत्त का नाम किसी फिल्म के टाइटल में निर्देशक के रूप में फिर कभी नहीं आया.

फिल्म 'कागज़ के फूल' की बात हो और वी. के. मूर्ति के उस फिल्मांकन की चर्चा नहीं हो जिसमें उन्होंने सूरज की रोशनी की बीम का लाजवाब शॉट लिया था संभव नहीं है. हुआ ऐसा कि एक दिन सुबह के समय महबूब स्टूडियो में किसी छत की किसी दरार से सूरज की रोशनी कहीं आकर पड़ रही थी. स्टूडियो के वातावरण में रेत के कणों से रोशनी की एक रेखा बन रही थी. गुरुदत्त मूर्ति से बोले क्या तुम मुझे ऐसा इफेक्ट दे सकते हो? मूर्ति ने कहा क्यों नहीं अगर हम दिन के खास समय पर शूट करें. गुरुदत्त ने कहा नहीं तुम्हें और किसी तरह से यह प्रभाव पैदा करना होगा. हम यहाँ अगले दस दिन तक शूटिंग कर रहे हैं. जब भी तुम्हें इसका रास्ता सूझे हम सीन शूट कर लेंगे. रोशनी की बीम का प्रभाव फिल्म के उस अंतिम सीन के लिए रचा जाना था जहाँ फिल्म के नायक की मृत्यु होती है. बाद में यही प्रभाव ‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम’ गीत के फिल्मांकन के दौरान भी उपयोग में लिया गया. इस दृश्य को फिल्माने के लिए उन्होंने दो बड़े आईनों के जरिये सूर्य की रोशनी को रिफ्लेक्ट करके स्टूडियो की जमीन पर उतारा. फिर हल्का सा धुंआ करके रोशनी की बीम बनायी और उसे शूट किया.

‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम’ गाने की भी दिलचस्प कहानी है. फिल्म के लिए एस. डी. बर्मन ने एक धुन बनाई जो सभी को पसंद आयी. मगर गाने के लिए फिल्म में कोई सिचुएशन ही नहीं थी. गुरुदत्त गाने की कोई सिचुएशन बनाना चाहते थे पर उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था. कैफ़ी आज़मी ने बर्मन की धुन पर बोल लिख कर सुनाये तो वे गुरुदत्त को पसंद नहीं आये. कैफ़ी ने पूछा भई सिचुएशन तो बताओ तो वैसा लिखू. गुरुदत्त कहने लगे मैं इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता. सच तो यह है कि फिल्म में गाने कि सिचुएशन है ही नहीं. वहां आफिस में और लोग भी मौजूद थे. कैफ़ी सब की तरफ पीठ करके बैठ गए और धुन पर नए बोल लिखने लगे. पूरा करके वे मुड़े और सुनाया "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम" जो गुरुदत्त को तुरंत पसंद आ गया. गाने की गीता दत्त की आवाज़ में रेकॉर्डिंग भी हो गयी मगर गुरुदत्त को फिर भी लगता रहा कि इस गाने की सिचुएशन फिल्म में नहीं है. मगर गाना इतना बढ़िया बना कि उसने खुद फिल्म में अपनी सिचुएशन पैदा करवा ली. गुरुदत्त ने बड़ी ही खूबसूरती से मूर्ति के कैमरे से वह कालजयी गाना फिल्माया. बाकी सब इतिहास है.

(जयपुर के पिंक सिटी प्रेस क्लब ने फिल्म फैन्स सोसाइटी' के साथ मिलकर 13 फरवरी 2010 को 'कागज़ के फूल' फिल्म का प्रदर्शन किया. इस फिल्म के छायाकार वी के मूर्ति को इस साल के दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया है. यह फिल्म प्रदर्शन मूर्ति को समर्पित था.)

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