साक्षर भारत : टूटते सपनों की कहानी

राजेंद्र बोड़ा

वर्ष 2012 तक देश की समूची आबादी को साक्षर बना देने की केंद्र सरकार की महत्वकांक्षी योजना "साक्षर भारत" के क्रियान्वयन में अभी विभिन्न एजेंसियां जुटी है. देश में कोई भी अशिक्षित नहीं रहे इसके लिए विगत में सरकारों द्वारा कईं बार तिथियाँ निश्चित की गयीं कि अमुक समय तक सबको पढ़ा लिखा बनाने का सपना पूरा हो जाएगा. आज़ादी को साठ साल होने को आये हैं. मगर बावजूद सारे प्रयासों के देश में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो अक्षर नहीं पढ़ पाते.

आज़ादी के इतने सालों बाद प्रौढ़ साक्षरता के प्रयासों की कोई जरूरत नहीं रह जानी चाहिए थी यदि प्रारंभिक शिक्षा हम सभी तक पंहुचा पाते. क्योंकि प्रारम्भिक शिक्षा से उन सभी नए जन्मे बालक - बालिकाओं को, जिन्होंने आज़ाद भारत में आँख खोली, नहीं जोड़ा जा सका इसीलिए नयी पीढियां आती गयीं और पुरानी पीढी के प्रौढ़ों को साक्षर बनाने का काम कम होने की बजाय बढ़ता ही गया और वह आज़ादी के बाद के छठे दशक में आज भी जारी है.

आज़ादी का संग्राम जिन सपनों को सच बनाने के लिए लड़ा गया इन पिछले दशकों में हमने उन सपनों को टूटते हुए ही देखा है. आज़ादी की लड़ाई में जो लोग कूदे और अन्य जिन्होंने उनको जज्बाती समर्थन दिया उन सबकी एक बड़ी आकांक्षा यह थी कि आज़ाद भारत में एक समता मूलक ऐसा समाज रचा जाय जिसमें वर्ण, जाति, धर्म, और धन से लोगों में विभेद न हो. व्यक्ति, व्यक्ति का शोषण नहीं करे और विकास की अवधारणा में मानव केंद्र में हो. इसके लिए जरूरी था कि हम हजारों वर्षों के सामंती युग के संस्कारों का बोझ अपने सिर से उतार फैंकें और आज़ादी के नवप्रभात में कोरी स्लेट पर नयी इबारत लिखें. इस सपने को पूरा करने के लिए सर्वमान्य रास्ता था शिक्षा का. सोचा था ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होगा त्यों-त्यों मानव मुक्त होता चला जाएगा और अपने भाग्य का नियंता खुद बन जाएगा. इसीलिए आज़ाद भारत का संविधान बनाने वालों ने उसकी शुरुआत ही "हम भारत के लोग" उदघोषणा से की. माना गया कि हम भारत के लोग जब शिक्षित हो जायेंगे तो अपनी चुनौतियों से खुद निबट लेंगे और एक ऐसा खूबसूरत समाज बनायेंगे जहाँ भूख और गरीबी के लिए कोई जगह नहीं होगी और जहाँ हर इंसान के लिए इज्जत से रहने की जगह होगी. इसके लिए 'राज्य' की भूमिका महत्वपूर्ण थी. नयी लोकतांत्रिक व्यवस्था में 'राज्य' की बागडोर जनता के प्रतिनिधियों के हाथों में सौपी गयी. कहा गया जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा चुनी हुई सरकार जन सरोकारों के प्रति संवेदनशील होगी और आज़ादी के संग्राम के दौर में देखे गए सपनों को साकार करने में अधिक देर नहीं लगेगी. लेकिन जैसा कि हमने पहले कहा आज़ाद भारत का इतिहास सपनों के टूटने का इतिहास बन कर रह गया है. इक्कीसवीं सदी के आते -आते हमारा रास्ता कब बदल गया हमें पता ही नहीं चला और हमें कहाँ जाना था और हम कहाँ पंहुच गए इसके लिए आज सोचने की भी फुर्सत किसी के पास नहीं है. देश के हर व्यक्ति को साक्षर करके ऐसी शिक्षा देना था जो लोगों के मन के कषायों को दूर करती एक को दूसरे के नज़दीक लाती. एक तरफ हम न तो सभी को साक्षर या शिक्षित कर सके और न वह समाज बना सके जिसे शिक्षा के जरिये रचना था. शिक्षा को डिग्रियों के पुलिंदों में डुबो दिया गया जिससे आपसी होड़ की संस्कृति पैदा हुई जिसने प्रतिस्पर्धा वाली नयी आर्थिक नीतियों का रास्ता सरल कर दिया और नए आर्थिक भेद को स्थापित कर दिया.

आज़ादी के बाद के समय में शिक्षा के महत्व को समझदार लोगों ने बार - बार दोहराया स्वयंसेवी संस्थाएं बना कर उनसे जो बन पड़ा मन से किया. मगर जनता के मत से शासन के नियंता बने लोगों ने ऐसी संस्थाओं को गैर सरकारी संस्थाओं में तब्दील करने का अनोखा खेल खेला जिसने सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इन संस्थाओं में भी धकेल दिया. आज सारा खेल पैसे का हो कर रह गया है. सरकार जब 'साक्षर भारत' की नयी महत्वकांक्षी योजना लेकर आती है तो उसे लेकर सभी केवल बजट की बात करते हैं. कितने लोग इस योजना से मिलने वाले पैसे से अपनी कच्ची नौकरी पक्की कर सकते हैं यही सबका सरोकार है. एक बड़ी व्यवस्था करनी है. उसके लिए ढांचा तैयार करना है. उसके लिए अमुक वितीय प्रावधान है इसी पर सबका ध्यान है. इससे आगे जाकर कोई नहीं सोचता. राज्य सरकारें इस फ़िराक में है कि नयी योजना में कैसे केंद्र से आने वाले पैसे से काम चल जाए और उसे खुद कम से कम खर्च करना पड़े. नयी व्यवस्था और ढाँचे में कितनों को रोजगार के अवसर मिल सकते हैं यही खोज प्रौढ़ शिक्षा के काम में अपने को पुराने अनुभवी बताने वाले अभी कर रहे है. सबको व्यवस्था बनाने की फ़िक्र है क्या शिक्षा देनी है कैसी शिक्षा देनी और वैसी शिक्षा क्यों देनी है इस पर चिन्तन-मनन का काम सरकारी अहलकारो का नहीं है.

‘साक्षर भारत’ को शुरू हुए डेढ़ वर्ष होने को आये हैं मगर अभी उसकी तैयारियों के दौर ही चल रहे हैं. उसमें अंततः क्या होना है उसकी ‘फाइन ट्यूनिंग’ अभी तक चल रही है जबकि यह योजना 2012 तक के लिए ही है. दिल्ली में बड़े सरकारी आफिसों में कागजों पर जबरदस्त कसरत चलती है जिसके पसीनों से शिक्षा की खेती लहराने का उद्यम किया जाता है. इस उद्यम में लगे लोगों को यह भी लगता है की चल रही जनगणना की रिपोर्ट में साक्षरता दर फिर वैसी ही बड़ी छलांग लगाती नज़र आएगी जैसी पिछले दशक मंह आई थी इसलिए राजकोष का पैसा कैसे भी उड़ाया जाय हर्ज़ नहीं क्यों कि बढ़ी साक्षरता दर से शासन में बैठे लोगों को अपनी पीठ ठोकने का सबब मिल ही जाएगा.

इक्कीसवीं सदी में हम पाते हैं कि शिक्षा आदमी को मुक्त नहीं कर रही है. उसे संकुचित कर रही है. उसे आत्म केन्द्रित कर रही है. उसे अनचाही होड़ में धकेल रही है. वह एक ऐसा समाज रच रही है जो भेद करता है. तनाव और हिंसा हमारे जीवन के जरूरी हिस्से बन गए हैं. लेकिन जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं वह उन सपनों को साकार करने की तरफ नहीं ले जाता जो साठ साल पहले हमने देखे थे. कोई नेतृत्व नहीं है जो चेता सके, रोक सके और रास्ता दिखा सके. धार्मिक, सामजिक, व्यावसायिक और राजनैतिक नेतृत्व सब बाज़ार के लिए हो कर रह गए हैं. बाज़ार निर्मम होता है. मगर उसमें मानव मन को लुभाने की जबरदस्त क्षमता होती है. इसीलिए वह भुलावे का संसार रचता है. शिक्षा इस धुंधलके को हटा सके और ऐसा प्रकाश ला सके जिसमें सब साफ़-साफ़ दिखाई दे सके उस सुबह का इंतज़ार है. मशहूर शायर साहिर ने कहा था 'वो सुबहा कभी तो आएगी'. शिक्षा के असली यज्ञ में लगे लोगों को शायर के इस कथन पर भरोसा है.

(यह आलेख समकालीन शिक्षा-चिंतन की पत्रिका ‘अनौपचारिका’ के मई-जून, 2010 के अंक में प्रकाशित हुआ)

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