आबादी किस पर भारी


राजेंद्र बोड़ा

देश की जनगणना के प्रारंभिक आंकड़े जारी हो गए हैं। जनगणना दशकवार होती है। यह आँकड़े 2001 से 2010 दशक के हालात बयान करते हैं। जनगणना मोटे तौर पर दशकीय आबादी वृद्धि दर का पता देती है। नई जनगणना बताती है कि 2001-2010 के दौरान राजस्थान में जनसंख्या वृद्धि दर में लंबे समय बाद बड़ी गिरावट आई है। वृद्धि दर में यह गिरावट 6.97 प्रतिशत की है। मगर जनसंख्या विशेषज्ञों को इससे संतुष्टि नहीं है। कहते हैं कि इस गिरावट के बावजूद इस मरुप्रदेश की आबादी की वृद्धि दर 1.96 प्रतिशत प्रति वर्ष है और पिछले दशक में यहाँ की आबादी में एक करोड़ 20 लाख से अधिक लोग और जुड़े। यह संख्या इसके पिछले 1991-2001 दशक में नए जुड़े लोगों की संख्या एक करोड़ 25 लाख से थोड़ी ही कम है।

जनसंख्या विशेषज्ञ डॉ. देवेन्द्र कोठारी कहते हैं कि पहली नज़र में जनगणना 2011 के आंकड़े जरूर उत्साहवर्धक नज़र आते हैं मगर राजस्थान के सामाजिक और आर्थिक विकास पर इन आंकड़ो के दीर्घकालीन प्रभाव परेशानी का सबब है। उनकी बातों का लब्बोलुबाब यह है कि बढ़ती आबादी हमारे संसाधनों पर भारी पड़ने वाली है। बढ़ी हुई आबादी के लिए भोजन, पानी, के साथ स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं को मुहैया करना कैसे संभव होगा यह यक्ष प्रश्न है।

आबादी के बढ़ने से विशेषज्ञ जिन चिंताओं को प्रकट करते हैं वे वास्तव में व्यवस्था की समस्याएं हैं। व्यवस्था की समस्या शासन – प्रशासन की होती है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शासन जब सभी को स्वस्थ, आर्थिक रूप से सक्षम, और गौरवपूर्ण जीवन बिताने के साधन मुहैया करा पाने में बुरी तरह असफल रहता है तब वह दोष का ठीकरा आसानी से बढ़ती आबादी पर फोड़ देता है। उसका तर्क यह होता है कि जितनों के लिए वह व्यवस्था करता है उससे कहीं अधिक उपभोग करने वाले पैदा हो जाते हैं। तो बेहतरी का जो सपना दिखा कर जनता के नुमाइन्दे शासन में आते हैं उस सपने को साकार न कर सकने के लिए वे बढ़ती आबादी को एक अच्छा बहाना बना लेते हैं।

सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अकादमिक लोग भी आबादी के तर्क से शासन की असफलताओं का बचाव करने लगते हैं। उदाहरण के लिए जनसंख्या विशेषज्ञों के इस तर्क को लें कि बढ़ी हुई आबादी शिक्षा और स्वास्थ्य के ‘डिलीवरी सिस्टम’ पर दबाव डालेगी। इसका सीधा सदा अर्थ हुआ कि शासन बढ़ी आबादी के लिए स्कूलों और अस्पतालों, शिक्षकों और चिकित्सकों की व्यवस्था कैसे कर पायेगा।
हमारा सवाल यह है कि क्या शासन की व्यवस्था का ढांचा ‘डिलीवर’ कर पा रहा है ? क्या यह ढांचा अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहा है ? पहले शासन का यह ढांचा अपनी पूरी क्षमता से काम करना शुरू करे फिर उसे यह कहने का हक़ बनेगा कि उस पर उपभोग करने वालों की संख्या का दबाव बढ़ रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों कि बात करें। शासन और विशेषज्ञ कहते नहीं थकते कि बढ़ी आबादी को पिलाने के लिए पानी कहां से लाएंगे और खिलाने को अनाज कहां से लाएंगे। खुद शासन के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि राज्य में होने वाली पानी की कुल खपत का केवल चार प्रतिशत घरों में उपयोग में आता है। बाकी का 96 प्रतिशत हिस्सा कृषि, उधयोग और मनोरंजन व्यवसाय के उपयोग में आता है। इसमें भी करीब 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा कृषि के लिए काम में आता है। वहाँ पानी की जो बर्बादी होती है उसकी व्यवस्था शासन से नहीं होती मगर केवल चार प्रतिशत पानी का उपभोग करने वालों से शासन और अकादमिक वर्ग अपेक्षाएं करता है कि वह पानी की बचत करे।

आबादी का पेट भरने के लिए अनाज कहां से आएगा जैसा सवाल करने वालों से कोई यह नहीं पूछता कि हर साल कितना अनाज सरकारी गोदामों में सड़ जाता है ? अनाज का एक-एक दाना लोगों का पेट भरे उसकी व्यवस्था शासन से क्यों नहीं होती।

शासन और जनसंख्या विशेषज्ञों का सारा प्रयास आंकड़ों का मायाजाल रचने का होता है। और अब इन आंकड़ों में एक नया शब्द और जुड़ गया है वह है ‘अनवांटेड चिल्ड्रन’ (अनचाहे बच्चे)। याने गैर जरूरी बच्चे। आबादी के एक हिस्से पर इस तरह का ठप्पा लगा कर उसे उपेक्षित घोषित करना माँ-बाप और शासन दोनों के लिए क्या नैतिक है ? आप कहते हैं यह अनचाही आबादी हमारे ‘डिलीवरी सिस्टम’ पर हमारे पर्यावरण पर बोझ है।

यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्राकृतिक संसाधनों का समान बंटवारा नहीं हो रहा है। जो हैसियत वाले हैं प्राकृतिक संसाधनों पर उनका आधिपत्य है। वे नहीं चाहते कि वे जरूरत से ज्यादा प्रकृति से जो ले रहे हैं उसमें हिस्सेदारी लेने वाली नई आबादी खलल डाले। महात्मा गांधी की उस बात को कोई याद नहीं करता कि प्रकृति के पास मानव की जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत है मगर उसके लालच को पूरा करने के लिए उतना नहीं है।

आबादी के नियंत्रण के उपाय करके आप अपनी जरूरत के मुताबिक बच्चे चाहते हैं। इस तरह की चाहना आधुनिक औद्योगिक सोच का परिणाम है जिसने बच्चे को एक ‘उत्पाद’ मान लिया है। पूंजीवाद अब जब सारे विश्व में अपने पांव पसार चुका है तब दंपत्ति यह तय करने लगें हैं कि वे पहले बच्चा पैदा करें या अपने करियर को आगे बढ़ाएं या पहले बच्चा पैदा करें या अच्छा फ्लैट या बड़ी कार खरीदें। जिस तरह बाज़ार उपभोक्ता को ‘चोइस’ देता है वैसे ही बच्चे का पैदा किया जाना भी वैसी ही ‘चोइस’ बन रहा है जिसे अकादमिक लोग और शासन आज की जरूरत बता रहे हैं।

शासन और अकादमिक लोग आसान रास्ते खोजते हैं। मीडिया की तो फितरत ही ऐसी होती है की वह हर चीज का सरलीकरण करता है। आबादी इतनी सरल नहीं होती। आबादी को समस्या मान कर उस पर नियंत्रण की बात सरल बात है। मगर ऐसे विशेषज्ञ भी हैं जो आबादी को बोझ नहीं बल्कि ‘संपत्ति’ मानते हैं जिसका उपयोग करने के लिए वे निवेश, यंत्रतकनीक, उत्पादकता, वाणिज्य व्यवसाय और स्पर्धा की वकालत करते हैं। दुनिया की एक बड़ी पूंजीवाद की पोषक बहुराष्ट्रीय कंपनी गोल्डमैन साक्स अपने एक अध्ययन में भारत की बड़ी आबादी को महुत बड़ा बाज़ार मानती है। उसके लिए यह आबादी पूंजी है। यहां तक की गोल्डमैन साक्स के साथ साथ अमेरिका की सीआईए भी भारत की आबादी को ‘संपत्ति’ मानती है।

मगर आबादी तभी संपत्ति बनती है जब कोई भूखा नहीं रहे, किसी के साथ संसाधनों के बंटवारे में भेदभाव नहीं हो और हर एक को शिक्षा पाने और इलाज कराने की निर्बाध सुविधा हो। यहां शासन की भूमिका आती है। सैकड़ों बार कहा जा चुका है कि शिक्षा और स्वास्थ्य में राज्य की भूमिका तिरोहित नहीं होने दी जानी चाहिए। निर्वाचित शासन को समता आधारित प्रशासन का अपना वादा निभाना चाहिए। मगर जब शासन ऐसा कर पाने में असफल रहता है तो उसे ऐसे तर्कों की जरूरत होती है जिससे वह अपनी सुशासन देने में अपनी विफलता छुपा सके। अकादमिक लोग उसे यह तर्क मुहैया कराते हैं। आबादी का तर्क भी वैसा ही है।

प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह खुद तय करे कि उसे अपना परिवार कितना बड़ा हो या छोटा चाहिए। मगर यह फैसला वह अपने विवेक से करे न कि शासन और अकादमिक लोगों के तर्कों की मीडिया में बाढ़ में बह कर। आबादी के नाम पर शासन और प्रशासन की विफलताओं से ध्यान नहीं हटाया जा सकता।

जनसंख्या विशेषज्ञ आबादी में जुड़ने वाले बच्चे का मोल आर्थिक आधार पर करते हैं। यह निर्धारण उन लोगों की तरफ से आता है जिन्होंने बाज़ार के जरिये प्राकृतिक संसाधनों पर पहले से कब्जा कर रखा है। इन संसाधनों का समतामूलक बंटवारा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शासन का पहला फर्ज़ होना चाहिए। मगर जो ताक़तें बाज़ार पर कब्ज़ा रखती है वे ही शासन को अपने तरीके से चलाने की क्षमता भी रखती हैं। वे यह समझाती है कि उनके द्वारा निर्धारित सीमारेखा के बाहर की आबादी अनचाही है जिसकी शासन को और समाज को कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। यह फासीवादी सोच है।

लोकतान्त्रिक शासन में कोई भी नागरिक अनचाहा नहीं हो सकता। कोई नागरिक तभी बोझ होता है जब वह भूख और गरीबी में होता है, जब उसमें कौशल नहीं होता, जब वह निरक्षर होता है और जब वह अस्वस्थ होता है। उसे बोझ से संपत्ति में तब्दील करने की जिम्मेवारी शासन और समाज दोनों की होती है। वे आज अपने इस धर्म को निभाने में पूरी तरह विफल नज़र आते हैं। और अपनी विफलता के लिए दोष आबादी पर मंढते हैं जिसे कोई सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता।

शासन कहने को तो राजकोष का बड़ा पैसा ऐसे कार्यक्रमों पर खर्च करता है जिससे लोगों के हालत सुधरे। मगर यह केवल लक्षणों का इलाज है। बीमारी का सही इलाज तभी होता है जब उसके कारकों को समाप्त किया जाय। हमारी समस्या संसाधनों के गैर बराबरी बंटवारे का है। इसी के लिए आज़ादी की लंबी जंग लड़ी गई थी। मगर राज आम अवाम के हाथों में आने के 60 वर्ष से अधिक होने के बाद आज भी गैर बराबरी का दस्तूर कायम है। नई आर्थिक नीतियों ने इस दस्तूर को प्रतिस्पर्धा के नाम पर जायज ठहरा दिया है। इसीलिए पीछे आया बच्चा अनचाहा हो गया है।

(आलेख 'प्रेसवाणी' के मई 2011 के अंक में प्रकाशित)

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