पत्रकारिता का दायित्व और अभिव्यक्ति की आज़ादी

राजेंद्र बोड़ा 



अभिव्यक्ति की आज़ादी भले ही हमें कानूनी रूप से अपने संविधान से मिली है मगर वास्तव में यह हमारा मानवीय अधिकार है। लोकतन्त्र में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। लोकतन्त्र की सफलता अहिंसक समाज में ही संभव हो सकती है। ऐसे समाज में जहां फैसले शारीरिक या आयुध की ताकत से नहीं बल्कि तर्क से, बहस से और विमत के अधिकार की रक्षा करते हुए न्यायसंगत आम सहमति से होते हों।

लोकतंत्र की मर्यादा तभी बनी रह सकती है जब पत्रकारिता स्वतंत्र हो और वह अपना दायित्व पूरी मर्यादा से निबाहे। इसीलिए लोकतान्त्रिक समाज पत्रकारों से अपेक्षा रखता है कि वे एक  तर्कवान संवाद स्थापित करने के वाहक बनेंगे।    

पत्रकारिता का पहला दायित्व सच्ची सूचना देना होता है। सूचना किसी एक पक्ष की नहीं – सब की। यही उसकी मर्यादा है। वह सूचना खुद पैदा नहीं करता। सूचना उसे कहीं न कहीं से मिलती है। यह उसका दायित्व है कि वह उन स्रोतों की विश्वसनीयता की पड़ताल करे जहां से उसे सूचनाएं मिलती हैं। पत्रकारों का यह भी दायित्व है कि वह सूचना के स्रोतों के हाथों में न खेल जाये। पत्रकार का दायित्व अपने पाठकों के प्रति होता है न कि किसी व्यक्ति, संस्थान, या विचार के प्रति। यहां तक कि अपने उस संस्थान के प्रति भी नहीं जहां वह मुलाजिम है। यही सबसे कठिन काम है।

पत्रकारिया का दायित्व केवल सूचना देना ही नहीं बल्कि सूचनाओं का विश्लेषण करना और उन्हें आम पाठक 

के लिए संदर्भ देना भी होता है। और यह खांडे की धार पर चलने जैसा है।

सूचना में खोट नहीं हो यह दायित्व भी पत्रकारों का होता है। पत्रकारिता एक पेशा भी है और वह एक कारोबार भी है। मगर यह कारोबार अन्य कारोबारों और पेशों से अलग है। पत्रकार एक साथ कई भूमिकाएँ निभाता है। वह सूचनाओं का हरकारा है तो वह शिक्षक भी है, वह रक्षक भी है, और वह खल्क की ज़ुबान भी है।

पत्रकारिता आम आदमी की आवाज़ होती है जिसमें उसकी अपेक्षाएँ, आकांक्षाएँ और सपने मुखरित होते हैं। 

जहां आम आदमी खुद लड़ नहीं सकता वहाँ उसके लिए पत्रकारिता लड़ती है। यह लड़ाई 

अन्याय और वहशी ताकतों के खिलाफ मानव मूल्यों के लिए होती है। 

पत्रकारिता के महत्व और दायित्व को हम महात्मा गांधी के जरिये ठीक से समझ सकते हैं। उन्होंने कहा था पत्रकारिता का काम पाठक के दिमाग में चाही-अनचाही चीजें थोपना नहीं है बल्कि आम जन के दिमाग को जाग्रत करना है। उनका कहना कि आधुनिक पत्रकारिता में सतहीपन, एकपक्षता, गलतियां, और यहां तक कि बेईमानी भी, प्रवेश कर गई हैं आज कितना सटीक लगता है। इसके बावजूद गांधी अखबार की आज़ादी के पूरे पक्षधर थे। उन्होंने कहा अखबार की आज़ादी इतनी अनमोल है कि कोई भी देश उसे छोड़ नहीं सकता। गांधी ने एक और बड़ी बात कही : प्रेस लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहलाता है। वह निश्चित रूप से एक ताकत है। मगर यदि इस ताकत का दुरुपयोग किया जाता है तो वह अपराध है। 

गांधी ने ये बातें अपने करीब चार दशक लंबे पत्रकारिता के अनुभव से कही। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने पहली बार इंडियन ओपीनियनअखबार निकाला। फिर भारत आकर यंग इंडिया और नवजीवन का सम्पादन-प्रकाशन किया। उन्होंने अंग्रेजी में हरिजन’, हिन्दी में हरिजन सेवकऔर गुजराती में हरिजन बंधुअखबार भी निकाले। उन्होंने समाचार माध्यमों की ताकत को पहचाना और उन माध्यमों का सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और देश की आज़ादी के प्रयासों में भरपूर उपयोग किया।

गांधी ने कहा: अखबारों के बिना सत्याग्रह जैसा अभियान संभव नहीं हो सकता था। उनके अपने अखबार खुद उनके शब्दों में उनके लिए आत्म-संयम के प्रशिक्षण स्थल बने। और माध्यम बने मानव की प्रकृति को उसके सभी भेदों और विविधताओं सहित समझने में।

मूल रूप से पत्रकारिता के तीन दायित्व होते हैं - सामाजिक, विधिक और पेशेगत हैं। पत्रकारिता में अपने समाज की छवि परिलक्षित होती है। इसलिए पत्रकारों में अपने समाज की जीवंत परम्पराओं की समझ होनी चाहिए। परम्पराएँ जड़ नहीं होती। जड़ होने पर वह रूढ़ि बन जाती है। पत्रकारों को परंपरा और रूढ़ि में फर्क का बोध होना जरूरी है। पत्रकारिता को विधिक दायित्व का भी निर्वहन करना होता है। लोकतन्त्र विधि का शासन होता है। उसकी आत्मा में आम सहमति होती है। पत्रकार कानून से ऊपर नहीं होता। फिर आता है पेशेवर दायित्व। पत्रकार की प्रतिबद्धता किसी और के प्रति नहीं अपने पेशे के प्रति होती है। इस प्रतिबद्धता की कुंजी सच्चाई और निष्पक्षता में होती है।

पत्रकारिता की एक लक्ष्मण रेखा भी होती है। इस लक्ष्मण रेखा की सीमा कोई और तय नहीं कर सकता। मौका आने पर पत्रकार ही अपने व्यक्तिगत स्तर पर यह तय करते हैं कि वे लोगों को सच्ची और निष्कपट जानकारी देने के अपने दायित्व के निर्वहन के लिए यह रेखा कहां खींचें।

पत्रकारिता को मिली आज़ादी उसकी अपनी मिल्कियत नहीं है। यह आज़ादी उसे सर्व जन को प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तहत मिली है। अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन के जरिये प्रैस की आज़ादी सुनिश्चित की गई है। मगर हमारे यहाँ पत्रकारिता की आज़ादी आम नागरिक को मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही हिस्सा है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से ही पत्रकारिता का दायित्व पूरा होता है। पर यह आज़ादी निर्बाध भी नहीं है। उसकी सीमाएं हैं। लोकतन्त्र के तीन संवैधानिक स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – की भी सीमाएं हैं।

लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाली पत्रकारिता की विशेष स्थिति है। वह इन तीनों स्तंभों पर नज़र रखती है, उनकी खबर लेती है और उनकी खबर देती है। तीन संवैधानिक स्तम्भ एक दूसरे को बैलेंस करते हैं। पत्रकारिता इस बात पर निगाह रखती है और लोगों को सचेत रखती है कि लोकतान्त्रिक मूल्य बने ही नहीं रहें बल्कि वे और मजबूत हों। मगर इसके लिए खुद पत्रकारिता को लोकतान्त्रिक होना पहली शर्त है। ऐसा उसकी निष्पक्षता से सुनिश्चित होता है।

गलती सबसे होती है। पत्रकार भी गलती कर सकता है। पत्रकार को गलती करने की आज़ादी भी है। क्योंकि गलती नहीं हो जाये इसके सारे जतन करने के बाद भी पत्रकारिता में असत्य चला आता है। मगर पत्रकारों का यह गुरुत्तर दायित्व बनता है कि पता चलते ही वे अपनी गलती सुधार लें। पत्रकारिता को गलती सुधारने की बड़ी आज़ादी है।

कई बार सत्य श्वेत-श्याम नहीं होता। वह साफ और स्पष्ट भी नहीं होता। उसके कई पहलू हो सकते हैं। इसीलिए पत्रकारों का दायित्व बनता है कि वे सिक्के के दोनों पहलुओं की जानकारी अपने पाठकों को दे। बीबीसी टेलीविज़न का एक प्रोमो है जिसमें यह संचार माध्यम दावा करता है कि सत्य के कई रंग होते हैं और हम सभी रंग प्रस्तुत करते हैं।

पत्रकारिता का दायित्व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से ही संभव है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है तो ही पत्रकारिता है। लोकतन्त्र में यह अधिकार रोटी कपड़ा और मकान, बेहतर, स्वास्थ्य और इज्जत वाला जीवन जीने के अधिकार से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि ये सारे अधिकार पाने का यह हथियार होता है। जनता के लिए, जनता का, जनता द्वारा जिस शासन की कल्पना लोकतन्त्र के लिए की गई है वह इसी हथियार से सुनिश्चित होता है। विधायिका में जनता अपने जिन प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है उनके काम-काज के बारे में जानकारी मतदाता को समाचार माध्यमों से मिलती है। इसीलिए अखबार को वाच डॉग कहा जाता है।

अखबार की आज़ादी दुनिया में बड़े संघर्ष से मिली है। यह मान के नहीं चलना चाहिए कि एक बार यह आज़ादी मिल गई तो वह हमेशा बनी रहेगी। इसकी सुरक्षा के लिए हमेशा जागरूक बने रहना होता है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी बहुतों को नहीं सुहाती। जिन्हें यह नहीं सुहाती वे लोकतन्त्र के हितैषी नहीं हो सकते। मगर उन्हें अपने किसी न किसी काले कारनामे पर पर्दा बनाए रखना होता है। लोकतन्त्र पूरी पारदर्शिता की मांग करता है। वह सबकी भागीदारी से फलता-फूलता है। इसमें सामंती या तानाशाही प्रवत्तियों का कोई स्थान नहीं होता। पत्रकारिता का दायित्व इन प्रवत्तियों का शमन करने में मदद करना होता है।

पत्रकारिता मनोरंजन नहीं होता। इन्फोटेनमेंट पत्रकारिता नहीं होती। अखबार केवल स्याही से काले किए हुए कागज़ नहीं होते। पत्रकारिता केवल-आय अर्जन का साधन नहीं होती। वह नौकरी नहीं होती। पत्रकारिता एक प्रवत्ति होती है। यह किसी में होती है या नहीं होती है। इसमें बीच की कोई स्थिति नहीं होती।

आज इस दुआ की सबसे ज्यादा जरूरत है कि पत्रकारिता में ऐसी प्रवत्ति  वाले लोग अधिक से अधिक आयें और उसे सबल बनाएँ। पत्रकारिता सबल होगी तो लोकतन्त्र सबल होगा, आम आदमी सबल होगा। 

(यह आलेख पिंक सिटी प्रेस क्लब के मुखपत्र पाती के अप्रेल 2013 के अंक में प्रकाशित हुआ)

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