नहीं चला अशोक गहलोत का जादू

राजेंद्र बोड़ा
मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने जयपुर में मेट्रो, किशनगढ़ में हवाई अड्डा, बाड़मेर में रिफाइनरी परियोजना, करीब डेढ़ हज़ार पत्रकारों और एक लाख से अधिक छात्रों को लैपटॉप, गरीबों को साड़ियाँ और कंबल के नाम पर प्रत्येक को 1500 रुपये नकद, वृद्धों और महिलाओं को पेंशन, सरकारी क्षेत्र में एक दर्जन नए विश्वविद्यालय और न जाने क्या क्या नकद और अन्य सहायताओं का पिटारा खोल कर चुनाव की वैरतरणी पार करने का जतन किया मगर उनकी पिटारे की नांव कागज की साबित हुई जो मतदाताओं का थपेड़ा नहीं झेल सकी और डूब गई। मतदाता उनकी मुट्ठी से छिटक गया और उनकी पार्टी 200 सीटों वाली विधानसभा में 20 पेर सिमट गई। यह राजस्थान में कॉंग्रेस की अब तक की सबसे बुरी हार रही। ऐसी हार इस पार्टी को आपातकाल के बाद हुए विधान सभा चुनावों में भी नहींम हुई थी।  

ऐसा क्या हुआ की इतना कुछ करने के बाद भी गहलोत फिर से सरकार बनाने का जनादेश नहीं पा सके?  राजस्थान के लोगों का मन परंपरागत रूप से कॉंग्रेस के साथ रहा है। इसके ऐतिहासिक कारण हैं जिनकी जड़ें देश के स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी हैं। मगर क्या हुआ की कॉंग्रेस का राजस्थान की जनता से टार टूट गया? 

राज्य में कॉंग्रेस के पतन और अशोक गहलोत के अभ्युदय की बीच एक अद्भुत समानता देखने को मिलती है। ज्यों ज्यों गहलोत राजस्थान की राजनीति में ऊपर बढ़ते गए कॉंग्रेस पतनशील होती गई, इसके परंपरागत मतदाता उससे मुंह मोड़ने लगे। गहलोत ने अपनी छवि हमेशा लो प्रोफाइल रखने वाले एक सीधे सच्चे नेता की बनाए रखी। उनकी जादूगरी इसी बात की रही कि वे दिल्ली में बैठे उन लोगों को अपना सरपरस्त बनाने में सफल रहे जो कॉंग्रेस में आला कमान की आँख कान बने रहते हैं। उन्हों ने ऐसा जादू रचा कि दो से अधिक दशक तक वे पार्टी की मजबूरी बने रहे। एक विश्लेषक की यह टिप्पणी है कि वास्तव में अशोक गहलोत का राहतों का पिटारा मतदाताओं के लिए नहीं कॉंग्रेस पार्टी की आला कमान को रिझाने के लिए था।

इन चुनावों के बाद शायद अब उनकी पार्टी यह समझ पाये कि अशोक गहलोत उनकी मजबूरी हैं।
पिछली बार जब वे 2003 का चुनाव हारे तब उनकी सरकार दो तिहाई हुमत से सत्ता में थी। कॉंग्रेस हाई कमान को भनक थी कि इतने बड़े बहुमत के साथ भी गहलोत कुछ भी डिलीवर नहीं कर पा रह हैं। मगर वे पार्टी की मजबूरी बजे रहे और स्थिति को जातिवाद के समीकरणों से संभालने के लिए चुनाव से पहले दो उप मुख्य मंत्री  बना दिये गए। मगर कोई चाल काम नहीं आई और भारतीय जनता पार्टी पहली बार अपने बूते पर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। इस बार भी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में बीजेपी अशोक गहगलोट को पीट कर ही अपनी जबर्दस्त सफलता हासिल की है।

इस बार भी हालात बार बार कॉंग्रेस हाई कमांड को संकेत देते रहे कि राजस्थान में सत्ता हाथ से छिटक रही है मगर गहलोत पार्टी के लिए मजबूरी बने रहे जिसका परिणाम 2013 के चुनाव परिणाम हैं। गहलोत सारे समय अपनी सत्ता बनाए रखने का प्रपंच करते रहे और अच्छा शासन देने का काम अपने प्रति पूरी तरह समर्पित अफसरों पर छोड़ दिया और भूल गए कि अच्छे शासन राजनैतिक नेतृत्व से आता है। मगर गहलोत में यह परिपक्वता सिरे से नहीं है। जिस बात ने विपक्षी दल बीजेपी की लहर बनाई वह थी लोगों की यह धारणा कि वे प्रशासनिक रूप से अक्षम हैं, कुछ नहीं करते निर्णय नहीं लेते। इसी के चलते राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था संवेदनहीन हो चली थी जो और सबको दिख रही थी। पार्टी आला कमान को जब हालात समझ में आने लगे तो गहलोत ने मतदाताओं को लुभाने के लिए राहतों का पिटारा खोल कर चतुराई से यह बात उसके गले उतार दी कि इन राहतों और योजनाओं से एंटी इन्कम्बेंसी का सफाया कर दिया है। मगर मतदाता उनसे भी चतुर निकले। चुनाव प्रचार में आम जन यही कहता सुना गया कि राहतें दी है तो क्या गहलोत ने अपने घर से दी हैं।आखरी छह महीनों में जिस प्रकार से मीडिया में सरकार के कसीदे पढ़ते हुए विज्ञापनों की घनघोर बरसात की गई उसने लोगों को चिढ़ाने का काम किया।  

गहलोत अपने चारों ओर अपने समर्पित अफसरों, राजनीति से इतर लोगों और चंद पत्रकारों का घेरा बना कर चलते रहे और इस घेरे के बाहर उन्हें दीवार पर लिखी मतदाता की नाराजगी की इबादत नज़र नहीं आई। गहलोत ने मजबूरी में सरकार चलाई और पार्टी की खुद मजबूरी बन गए।   

पिछले चुनावों में वे वसुंधरा राजे की सरकार को च्युत कर सत्ता में तो आए थे मगर वह कॉंग्रेस की शानदार जीत नहीं थी। वह वसुंधरा राजे की बहुत बुरी हार भी नहीं थी। गहलोत के नेतृत्व कॉंग्रेस को चुनावों में 200 सदस्यों की विधान सभा में साधारण बहुमत भी नहीं मिला था। उसे भारतीय जनता पार्टी को मिली 79 सीटों के मुक़ाबले 96 सीटें मिली थी। बाद में बहुजन समाज पार्टी के सारे विधायकों को मंत्री पद देकर गहलोत को सरकार बनानी पड़ी थी। सरकार में शामिल हुए बीएसपी सभी विधायकों को कॉंग्रेस में शामिल कर कर लिया गया।  इस प्रकार बनी गहलोत सरकार अपनी साख कभी बना ही नहीं पाई। गहलोत ने राजनैतिक चतुरता तो खूब दिखाई मगर प्रशासनिक स्टार पर पूरी तरह असफल रहे। प्रशासन तंत्र में राजनैतिक रूप से सोशल इंजीनियरिंग करके उन्हों ने कुर्सी बचाए रख कर आगे की जीत की राह खोजी। यहीं वे पिट गए।

जिस प्रकार का जनादेश सामने आया है वह यही दर्शाता है कि मतदाता के मन में गुस्सा था। यह वसुंधरा राजे की यात्राओं या नरेंद्र मोदी की सभाओं से नहीं भड़का। आम जनता जिस प्रशासन तंत्र से रोज रूबरू होती है और वहां उसे दुत्कार मिलती है उसके खिलाब उनमें गुस्सा था। सरकारी सेवाओं का जिस प्रकार से ह्रास हुआ बावजूद इसके कि सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए ज़िम्मेवार कर्मियों के वेतन भत्ते भरपूर बढ़े उस पर गुस्सा था।

मोदी का फायदा बीजेपी को हुआ मगर इन चुनाव परिणामों के लिए वे एकमात्र कारण नहीं हैं। मगर लोगों के सारे सवाल उनमें उतार आए और सब मुद्दों को उन्हों ने कॉंग्रेस के खिलाफ मोड दिया। उन्हों ने बीजेपी को एक उछाल दी। अपनी पार्टी की कमजोरियों ....
बीजेपी के कार्यकर्ताओं को संगठित किया पार्टी में बिखराव और घटकों को जोड़े रखा। कॉंग्रेस और बीजेपी दोनों दलों में संगठनिक कमजोरियां घर की हुई है। बीजेपी में मोदी ने इस कमजोरी को ढांप दिया मगर कॉंग्रेस में राहुल गांधी ऐसा नहीं कर पाये।

राजस्थान के चुनाव यह तथ्य भी प्रकट करते हैं कि कॉंग्रेस की वैचारिक जमीन खिसक रही है। इस शून्यता की भरपाई लक्षित लोगों को वित्तीय मदद और लोक लुभावनी योजनाओं पर सरकारी कोष
लुटाने से नहीं हो पाती।



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