फिर अशांत है कश्मीर



राजेंद्र बोड़ा 

कश्मीर एक बार फिर अशांत है। हिज़बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की अनंतनाग में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत के बाद घाटी में जैसे हालात बने हैं वे अच्छे संकेत नहीं है। जो स्थितियां कश्मीर घाटी में बनी है वे लंबे समय तक उन ताकतों को दाना-पानी देती रहेगी जो भारत को छिन्न-भिन्न करने को उतारू रहती है।
   
जब भी कश्मीर में तनाव होता है हम उसे सेना के दम पर दबाते हैं, वहाँ कर्फ़्यू लगाते हैं और जब माहौल थोड़ा बहुत शांत हो जाता है तो वहाँ की समस्या को भूल जाते हैं। इस प्रक्रिया में वहाँ की नई पीढ़ी को कट्टरपंथ की ओर धकेल देते हैं। हमें बाज़ार की मंदी, आर्थिक विकास की दर और विदेशी निवेश के झमेलों से ही इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि देश के अंदरूनी मसलों पर गंभीरता से विचार कर सकें, सबके साथ बात कर सकें और कोई आम सहमति बना सकें उनके साथ भी जो हमारे मत से ना इत्तफ़ाक़ी रखते हों। शासन और आम नागरिक के बीच एक ऐसी खाई बनाने लगी है जिससे संवाद के सारे तार टूट रहे हैं। संवादहीनता की स्थिति में शासन ज़मीनी हकीकत से नावाक़िफ़ रह जाता है और गणशत्रुओं के हाथों में खेलने लगता है। भारतीय समाज में आपसी सौहार्द की सदियों पुरानी परंपरा रही है जिसका आधार एक दूसरे पर भरोसा एयहा है। भरोसे की यह ज़मीन दरक रही है।
       
यह स्वीकार करने में हमें परहेज़ होता है कि कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है जिसे राजनीतिक तौर पर हल किए जाने की ज़रूरत है हर कोई कश्मीर को सुरक्षा और ज़्यादा से ज़्यादा आर्थिक समस्या मानता हैं 

कश्मीर से प्रकाशित होने वाले अखबारों को यदि हम वहां के आवाम की भावनाएं उजागर करने वाला माने तो देखिये वे क्या कहते हैं: अंग्रेज़ी अख़बार 'राइज़िंग कश्मीर' ने अपने संपादकीय में लिखा, “मृत लोगों और घायल हुए लोगों की संख्या परेशान करने वाली है... नागरिकों की हत्या अस्वीकार्य है और सेना और प्रशासन की ओर से ऐसी कार्रवाई का कोई औचित्य नहीं हो सकता अख़बार लिखता है, “ये आश्चर्य की बात है कि अगर इसी तरह के प्रदर्शन भारत के दूसरे हिस्सों में होते हैं तो उनसे पेशेवर तरीके से निपटा जाता है और किसी की मौत नहीं होती जैसी (कश्मीर) घाटी में होती है।

कश्मीर के लोगों के दिल की भावनाएं प्रस्तुत करती एक मुस्लिम महिला फ़ातिमा चांद की एक खुली चिट्ठी 'कश्मीर मॉनिटर' में छपी है। अपनी इस खुली चिट्ठी में फ़ातिमा चांद प्रदर्शनकारियों से पत्थरों को छोड़ वापस घर जाने को कहती हैंवो लिखती हैं, “आप अपने पत्थर फेंक दीजिएअपनी भावनाओं पर काबू रखिएहमारे और भाई मारे जा रहे हैंआपकी बहनों, माओं पर लाठियां बरसाई जा रही हैंउनकी आंखें नम हैंउनके आंसू निकल रहे हैं बच्चे यतीम हो रहे हैंप्यारे कश्मीरियों, अपने पत्थर फेंक दीजिए और अपने घरों को लौट जाइए वो लोगों से कहती हैं कि वे अपने कलम के सहारे अपनी बाते कहें न कि पत्थर फेंक करइस चिट्ठी की भावनाओं के साथ हम में से कितने खड़े हैं? 

हम कश्मीर को केवल सुरक्षा के चश्मे से देखते हैसेना का काम सामने वाले को खत्म करना होता है। एक सैनिक से ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वह आम निहत्थे लोगों और चरमपंथियों में भेद करे।

समय-समय पर कश्मीरी लोगों तक पहुंचने और उनसे बातचीत करने की चर्चा जरूर सुनाई देती है। वार्ताकार नियुक्त किए जाते हैं, समितियां बनती हैं लेकिन फिर भी बात जस की तस रह जाती है। बस वार्ताकारों और समितियों के सदस्यों को पद मिल जाते हैं भत्ते मिल जाते हैं। इससे इस आरोप को मान्यता मिलती है कि सरकारें इस समस्या का हल नहीं ढूंढना चाहती या उन्हें यह भरोसा है कि समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा।  

क्या कश्मीर समस्या केवल यही है कि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को हमें हासिल करना है? वर्ष 1947 से लेकर अब तक कश्मीर में कितनी पीढ़ियां आ गई जिनके दिमागों में चरमपंथियों ने ऐसी घुट्टी डाल दी है जो धर्म के आधार वाली राजनैतिक सत्ता की है। सके लिए कैसे और क्या किया जाय इसका रास्ता कोई नहीं सुझाता। सभी बल के भरोसे जीतना चाहते हैं – इधर भी और उधर भी।

कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावनाएं जिस शिद्दत से हैं वह सरकार के लिए ही नहीं हम सब के लिए परेशानी का सबब होना चाहिए। लेकिन हम कश्मीर को अपना तो मानते हैं मगर वहां अमन चैन हो भाई चारा हो इसके लिए बल प्रयोग के अलावा हम और कोई रास्ता खोजने को तैयार नहीं लगते। यह समस्या अपने हल के लिए एक निर्भीक और साहसी राजनीतिक प्रतिष्ठान के पहल की जरूरत रखती है। इस संदेश का इंतज़ार है कि सरकार ऐसा करने को गंभीर है

हम देखते हैं कि कश्मीर में जिस तरह की कार्रवाई होती है उससे पत्थर फ़ेंकने वाले चरमपंथी बन जाते हैं। पाकिस्तान इसी ताक में बैठा है कि हालत फिर बिगड़े और वह सीमा पार से चरमपंथियों को भेजकर 90 के दशक की स्थिति फिर से पैदा कर दे

हम क्यों नहीं ऐसा कोई राजनैतिक या सामाजिक अभियान छेड़ें जिसमें कश्मीरी बच्चों और नौजवानों को जिनका ब्रेनवाश आतंकी विचारधारा करती है को समझा पाएँ कि उनकी कश्मीरियत की पहचान इस्लाम से नहीं बनी है। उनकी पहचान सूफी इस्लाम और भक्ति हिन्दू की संस्कृतियों के बेजोड़ मेल से बनती है और यह पहचान भारत जैसे बहु-संस्कृतियों वाले लोकतान्त्रिक देश में ही सुरक्शित रह सकती है। मगर यह समझाइश ज़ोर-जबर्दस्ती से नहीं हो सकती। स्वतंत्र कश्मीर या पाकिस्तान के साथ इसका विलय यह पहचान खत्म करने का आत्मघाती कदम ही हो सकता है। मगर यह बात गुमराह कश्मीरी नौजवानों को समझाने वाला कोई राजनेता आज नज़र नहीं आता। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपने नए निखरे कद का उपयोग इसके लिए करेंगे इस पर किसी को विश्वास नहीं हो रहा है क्योंकि वे जिस राजनैतिक और संगठनात्मक विचारधारा से आते हैं उसमें जंग की फुंफकार और ईंट का जवाब पत्थर से देने का और अपने पराये का नज़रिया ही स्वीकार्य है।

भरोसा तो फिर भी बनाए रखना है। भरोसे से ही देश को जोड़ने वाली डोर बनी रह सकती है।

(यह आलेख प्रेसवाणी के जुलाई 2016 अंक में प्रकाशित हुआ) 


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