भारत के अमीर विश्व सूची में, मगर गरीबी नहीं मिट रही
राजेंद्र बोड़ा
बाज़ार आधारित अर्थ व्यवस्था का प्रादुर्भाव औद्योगिक सभ्यता के साथ हुआ। जब उत्पादन संगठित क्षेत्र में होने लगा और अधिकतम मुनाफे के लिए श्रम का शोषण एक जरूरत बन गई। इसी के साथ आधुनिक अर्थशास्त्र भी स्वतंत्र विषय के रूप में स्थापित हुआ। इससे पहले अर्थशास्त्र दर्शन शास्त्र का हिस्सा हुआ करता था। तब अर्थ के साथ जीवन के नैतिक सबब की बात भी होती थी। जीवन का नैतिक सबब खुशी पाना होता है। हर एक के अपने जीवन मूल्य होते हैं जिन्हें पाना सच्ची खुशी होती है। पूंजी की व्यवस्था इस खुशी को बाज़ार के हित में परिभाषित करती है। जीवन दर्शन से अर्थ को अलग करके बाज़ार के समर्थकों ने पश्चिम में उसे व्यक्तिवादी बना दिया। धर्म, जो समाज में ‘सम’ की अवधारणा पुष्ट करता था उसे भी नए पूंजी समर्थित अर्थशास्त्र ने संकुचित कर मुनाफे के लिए व्यवसाय बना दिया। धर्म को भी प्रतिस्पर्धी बना दिया। यहां तक कि इस युग में खुद पूंजीवाद एक प्रकार का धर्म बन गया। पहले के धर्म कहते थे अपने लिए नहीं दूसरे के लिए जियो। दूसरे की मदद करो। जीवन का मकसद सच्ची खुशी पाना है जो दूसरे के चेहरे पर मुस्कराहट लाने से मिलती है। मगर आज का बाज़ार संचालित धर्म कहता है जो करो अपने के लिए करो। अपना हित साधना ही सर्वोच्च मूल्य है। इसमें धन को बढ़ाने की लालसा, लोभ, और लालच कोई बुरी बात नहीं है। पहले जो जीवन मूल्य अवगुण माने जाते थे वे ही आज मानव के लिए श्रेष्ठ गुण बन गए हैं। लोकतन्त्र में सरकारें भले ही उनके बहुमत से चुनी जाती हो जिनका बाज़ार शोषण करता है मगर निर्वाचित प्रतिनिधि बाज़ार के ही हुए रहते हैं और उन्हीं के कार्य साधते हैं। सरकारें आम जन की होकर भी गणशत्रु के रूप में व्यवहार करने लगतीं हैं। कहने को उसकी सारी नीतियां और सारे कार्यक्रम “जनहित” के लिए होते हैं। बाज़ार को प्रोत्साहन जनहित के नाम पर ही दिया जाता है। अकूत मुनाफा कमाने का के लिए लालच, लोभ और वैसी ही महत्वाकांक्षा की जरूरत होती है। नई अर्थ व्यवस्था इसके लिए नैतिक आधार देती है। संचार के माध्यम व्यवसायजनित होकर मुनाफे के लिए होते हैं इसलिए वे भी सारा जतन यह करते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति को इसके लिए लुभाया जाय। वे लोगों के इस भरोसे का फायदा उठाते हैं कि वे उनकी बात करते हैं, उनकी आवाज हैं और उनके लिए लड़ते हैं। वे राज्य की भूमिका के बारे में कोई गंभीर और गहरे सवाल नहीं उठाते और न ही ऐसी कोई बहस छेड़ने में रुचि दिखाते हैं। सतही मुद्दों पर चिल्ला कर बहस प्रस्तुत कर अपने जनहितकारी होने का ढोंग वे जरूर कर लेते हैं। बाज़ार की शक्तियां आज विजेता है और गरीब की हालत बद से बदतर हो रही है। एक व्यक्ति राष्ट्रीय संपत्ति का जो हिस्सा अपनी अमीरी के इजाफे के लिए लेता है वह ऐसा किसी न किसी को गरीब करके ही करता है। मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने एक गीत में खूब लिखा था “गरीब है वो इस लिये के तुम अमीर हो गये/ के एक बादशाह हुआ तो सौ फ़कीर हो गये”। गरीब का जब धीरज टूटता है तो वह अपराध की और प्रवत्त होता है। ऐसे में उस गरीब का शोषण आतंकी राजनैतिक विचारधारा के पोषण के लिए तो कभी संकीर्ण धार्मिक प्रसार के लिए होने लगता है। ऐसे माहौल में खुशी पाने का जीवन का नैतिक सबब मृग मरीचिका बन जाता है। पूंजी आज इस हद तक सफल है कि सारे ही राजनैतिक दल अपनी मूल विचारधाराओं से च्युत होकर सत्ता पाने की होड में लगे रहते हैं ताकि उनके नायक अपना और अपनों का हित साध सकें। राजनीति में लोग जन सेवा के लिए नहीं अपनी और अपनों की सेवा के लिए आते हैं। लोकसेवा का तंत्र इन्हीं नायकों के लिए होकर रह गया है। संविधान का आमुख और उसके प्रावधान कागजों पर रह गए हैं। संविधान के नीति निर्देशक तत्वों को तो पूरी तरह भुला दिया गया है। आज के बच्चों से पूछें कि क्या वे जानते हैं कि संविधान के दस्तावेज़ में नीति निर्देशक तत्व भी शामिल हैं तो इसका जवाब उनकी आंखों का सवालिया निशान ही होगा। इसीलिए ज़मीनी स्तर पर बदलाव की संगठनात्मक राजनीति तिरोहित हो चुकी है और बाज़ार नियंत्रित सत्ता प्रबंधन शैली ने सबको मोह लिया है। नतीजन राज्य सत्ता का रुतबा खत्म हो रहा है और संवैधानिक मर्यादाओं, लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं और कानून के शासन को बार-बार आघात लग रहे हैं।
(राष्ट्रदूत के 05 सितंबर, 2020 अंक में अतिथि संपादकीय)
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