एक थे कलानुरागी मुख्यमंत्री

 -    राजेंद्र बोड़ा

आज यह सुन कर किसी को यकीन नहीं होगा कि कोई राजनेता ऐसा भी हो सकता है जो न सिर्फ समाज सुधार और सामाजिक उत्थान के लिए अपना जीवन लगा देता हो बल्कि जो कला और संस्कृति की गहरी समझ रखने वाला खुद एक अप्रतिम कलाकार भी हो और जिसमें अद्भुत प्रशासनिक दक्षता के साथ सच्चाई से सादगी भरा जीवन जीने की विराट क्षमता भी हो।

वह एक ऐसा लौह पुरुष था जिसने अपने उसूलों से न डिगते हुए कभी किसी प्रकार का कोई राजनैतिक समझौता नहीं किया और संत कबीर की तरह ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया का अनुगमन करते हुए मुख्यमंत्री का पद छोड़ कर रवाना हो गया। राजस्थान दिवस पर ऐसे विरले राजनेता का स्मरण हमारा फ़र्ज़ बनता है। ऐसा राजनेता राजस्थान में हुआ उसका इस प्रदेश वासियों के लिए गर्व की बात है।   

आज़ादी की ज़ंग का यह अग्रणी सिपाही था जयनारायण व्यास (18 फरवरी 1899 – 14 मार्च 1963) था, जिसे लोगों ने प्यार से शेरे राजस्थान’, राजस्थान केसरी और लोक नायक कह कर पुकारा। वह केवल कहने भर को महान व्यक्तित्व का धनी नहीं था। उसने अपने व्यवहार और काम से अपने व्यक्तित्व को प्रमाणित किया। अपने जीवन में वो अंग्रेजों से लड़ा, राजा महाराजाओं से लड़ा, समाज की कुरीतियों से लड़ा, अछूतों की सवर्णों से बराबरी के लिए लड़ा। मगर इस आलेख में हम इस अनोखे व्यक्तित्व के कला और सांस्कृतिक पक्ष की बात करेंगे जिस पर कभी ठीक से बात नहीं हुई।

जोधपुर के एक सामान्य निम्न मध्यम वर्ग से आया जयनारायण व्यास देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई और समाज सुधारक के काम अपने को खपा देने वाला राजनेता था। साथ ही वह कविताएं भी रचता था, वह गायक भी था, वह वाद्य भी बजाता था, वह विलक्षण नर्तक भी था, और वह रंगमंच का कलाकार भी था। लेखक और पत्रकार तो वह था ही। यही कारण है कि वह जब उसने आज़ादी की अल सुबह लोकतान्त्रिक राजस्थान में मुख्यमंत्री का पद संभाला तब रियासतों के विलय के बाद नये बने प्रदेश की प्रशासनिक और विकास की चुनौतियों के बीच भी वह सामान्य जन और अपनी कला से कभी दूर नहीं हुआ। राजस्थान के नवनिर्माण की महत्ती ज़िम्मेदारी निभाते हुए वह यहां की कला और संस्कृति के संरक्षण और कलाकारों के उत्थान लिए जितना सचेष्ट रहा उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। कला और संस्कृति में वह रचा-बसा था शायद इसीलिए इतिहास में उसका नाम एक ऐसे खरे और सुलझे हुए राजनेता के रूप में स्वर्णिम अक्षरों से दर्ज रहेगा जो छल-कपट की राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था। जो सबसे प्रेम करता था। जिसके लिए लोगों का जीवन संवारना ही अकेला उद्धेश्य था।

जयनारायण व्यास की कलात्मक अभिरुचि केवल आनंदोनुभूति तथा कलाप्रियता तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उसके पीछे एक गहरी और सामाजिक चेतना थी। मारवाड़ में होली पर अश्लील गीतों की परंपरा को खत्म करने के लिए इस कवि राजनेता ने श्लील गालियां लिख कर उन्हें होली पर टोलियों के साथ चंग की थाप लगाते हुए मोहल्ले मोहल्ले खुद जाकर गाईं और होली की श्लील गालियां लिखने के लिए औरों को भी प्रेरित किया। उसी का नतीजा है कि होली पर अश्लील गालियों का चलन समाप्त हुआ।

राज्य के प्रतिभाशाली और उपेक्षित कलाकार हमेशा ही इस राजनेता की संवेदना और आश्रय पाते थे। जय नारायण व्यास ने राजस्थान की सरकार का नेतृत्व करते हुए कला और संस्कृति के लिए राजकीय संरक्षण की परंपरा डाली। कलाकारों का अपने निवास पर आतिथ्य करना इस राजनेता को बहुत प्रिय था। उसके घर पर रात-रात भर कलाकारों और साहित्यकारों के कार्यक्रम चलते थे तथा कलाकारों व अन्य मेहमानों का भोजन और आतिथ्य उनके निजी खर्च से होता था। 

अपने ज़माने के जाने-माने रंगमंच कलाकार माणिकलाल डांगी ने जयनारायण व्यास ने निधन के बाद लिखे अपने संस्मरण में लिखा था कि रंगमंच पर नाटक देखने और कलाकारों से चर्चा करने में व्यास जी की विशेष रुचि रहती थी। “मेरा अनुभव यह है कि वे खेल देखने की अपेक्षा कलाकारों की कला का अध्ययन कुछ अधिक बारीकी से करते थेकईं बार ऐसे प्रसंग भी आये जब उन्होंने कलाकार को उसकी भूल बताई और गीतकार की लय ठीक कारवाई। संगीत और अभिनय दोनों विधाओं के वो मर्मज्ञ थे। इतनी गहराई से संगीत और अभिनय देखने व समझने वाला मुझे कोई दूसरा दर्शक दीख नहीं पड़ा। सचमुच ही वे कला और कलाकार दोनों के पारखी थे।”

जैसा कि हमने कहा कि यह राजनेता कई कलाओं में पारंगत था। वह एक कुशल नर्तक था। बेगार नृत्य, हिटलर नृत्य’, और तांडव नृत्यआदि उसकी मौलिक प्रतिभा के उत्कृष्ट नमूने माने जाते हैं। दिल्ली में जब एशियाई देशों के प्रमुखों का पहला सम्मेलन हुआ तब उसके प्रतिनिधि वापस अपने अपने देश लौटने से पहले जोधपुए भी आए थे। उन प्रतिनिधियों के सम्मान में रखे गए सांस्कृतिक कार्यक्रम में उन्होंने अपना प्रसिद्ध बेगार नृत्य ही प्रस्तुत नहीं किया बल्कि अन्य कलाकारों के कार्यक्रमों में उनके साथ खड्ताल बजाने में भी शामिल हुए।  

राजनैतिक उठा-पटक के खेल के चलते जब उन पर एक विशेष अदालत में संगीन मुकदमा चला तब एक दिन माणिकलाल डांगी ने उनसे पूछा लिया कि यदि मुकदमे में सजा हो गई और उन्हें राजनीति से पृथक होना पड़ गया तो आप क्या करोगे? उनका जवाब डांगी अपने इन शब्दों में बयान करते हैं: “व्यास जी ने सहज मस्ती से उत्तर दिया कि अपने पुराने साथियों की मंडली जुटा कर नाटक कंपनी खड़ी करूंगा और सारे देश का दौरा करके नाटकों के माध्यम से जनता को राजनैतिक प्रशिक्षण दूंगा। मेरे लिये यह काम राजनीति की शतरंज के खेल से कहीं अधिक मनोरंजक होगा।” बाद में जोधपुर की विशेष अदालत में उन पर चलाया जा रहा मुकदमा जब वापस ले लिए गया तब नई दिल्ली के फिरोज़शाह रोड के अपने निवास स्थान पर उन्होंने तांडव नृत्य का जो प्रदर्शन किया उसे देखने वाले उसे जीवन भर नहीं भूल सके। उसूलों की राजनीति करते हुए जब यह कद्दावर राजनेता मुख्यमंत्री पद से हट कर बाहर निकला और किसी ने उससे सहानुभूति जताई तो उसने कविता में जवाब दिया “मैंने अपने हाथों अपनी चिता जलाई, तूं क्यूं रोता भाई।”

जाने माने रंगमंच और सिने अभिनेता पृथ्वीराज कपूर जब अपना मशहूर नाटक दीवार लेकर जोधपुर आए तब मुख्य मंत्री रहते हुए भी व्यास जी ने अपने नृत्य से अतिथि कलाकारों का कलात्मक अभिनंदन किया।

ऐसा ही एक अन्य प्रसंग उनके मुख्य मंत्री काल का है। एक आयोजन में पुलिस बैंड ने राष्ट्रगीत की धुन बजाते हुए कुछ भूल कर दी तो यह कलामर्मज्ञ मुख्य मंत्री पुलिस की बैंड पार्टी के बीच जा खड़ा हुआ और अपने निर्देशन में उसकी धुन ठीक कराई।

एक बार भरतपुर राज्य प्रजा परिषद के वार्षिक अधिवेशन में हारमोनियम और खड्ताल की लय नहीं मिल रही थी तो मंच पर बैठे-बैठे उन्होंने खड्ताल स्वयं संभाल ली और लय मिला कर गाना शुरू कर दिया। बीकानेर में भी राजनैतिक कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में एक बार उनके बेगार नृत्य का ऐसा प्रदर्शन हुआ कि देखने वालों ने दांतों तले उंगली दबा ली।

वे मानव हृदय की उन सहज भावनाओं की कद्र करना जानते थे जो किसी का दिल छू लेती हैं। कला उन्हें अधिक प्रिय थी। वे अच्छे संगीतज्ञ भी थे। राजस्थानी गीतों में उन्हें गोरबंद और मूमल बहुत पसंद थे जिनमें मानवीय रिश्तों की गर्माहट महसूस होती है। लोक नृत्यों में उनकी विशेष रुचि थी। अनेक लोकगीत उन्हें कंठस्थ थे। राजकीय बैंड में उन्होंने राजस्थानी लोक गीतों की अनेक धुने शामिल कारवाई। उनके मुख्यमंत्री काल में राज्य की विविध सांस्कृतिक प्रवत्तियां निरंतर विकसित हुई। राजस्थान दिवस के अवसर पर राजस्थानी नृत्यों, गीतों और अभिनयों का भव्य प्रदर्शन वे अपने निरीक्षण में करवाते थे।      

दक्षिण भारत में एम जी रामचंद्रन और एन टी रामाराव और जयललिता जैसे सिने अभिनेता राज्यों के मुख्य मंत्री बने हैं मगर उनमें और व्यास जी में एक फर्क है। अन्य सभी मनोरंजन की व्यावसायिक दुनिया से थे मगर राजस्थान का यह सपूत व्यावसायिक नहीं था, कला मर्मज्ञ था।        

राजस्थानी भाषा के वे प्रबल समर्थक थे। संविधान सभा के सदस्य के रूप में हिन्दी को राष्ट्र भाषा की संवैधानिक मान्यता दिये जाने का समर्थन करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि “हिन्दी का समर्थन वे राष्ट्रीय एकता के लिए कर रहे हैं मगर इसका अर्थ राजस्थानी भाषा का निरादर नहीं है।” उन्होंने राजस्थानी भाषा के समर्थन में एक पुस्तिका भी लिख कर प्रकाशित की जिसमें अनेक अकाट्य तर्कों से बताया गया कि राजस्थानी भाषा की मान्यता और प्रचार प्रसार से ही राजस्थान की सर्वांगीण उन्नति संभव है।  

व्यास जी जैसे खरे राजनेता की जरूरत लोकतान्त्रिक भारत में सबसे अधिक होगी इसे दूरदृष्टा  बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने पहचान लिया था। भले ही व्यास जी की लड़ाई अंग्रेजों के साथ राजाओं के खिलाफ भी थी मगर जब बीकानेर महाराजा को जब पता चला कि अपनी बुरी आर्थिक हालत के चलते व्यास जी बंबई में जाकर फिल्मों में नृत्य निर्देशक का काम करने को तत्पर हो गए हैं तो गंगासिंह ने मारवाड़ राज्य के तत्कालीन अंग्रेज़ रेजीडेंट डोनाल्ड फील्ड को पत्र लिख कर कहा कि किसी प्रकार व्यास जी को रोका जाये। भले ही वो हमारे खिलाफ हैं मगर भावी आज़ाद हिंदुस्तान में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जो लोग शासन संभालेगे उनमें व्यास जी जैसे सच्चे और खरे राजनेता का होना बहुत जरूरी है। 

यह दीगर बात है कि उसके व्यक्तित्व के कला और संस्कृति के इस आयाम पर किसी ने गंभीर चर्चा नहीं की। उनके नाम पर जोधपुर विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ मगर इस विश्वविद्यालय ने भी व्यास जी के बहुविध आयामों पर गंभीर अध्ययन कराने की जरूरत नहीं समझी।

व्यास जी की थाती को लेकर राजस्थान के विकास की राह बनाई गई होती तो आज पूरे प्रदेश में उसकी लोक कलाओं और संस्कृतियों की सुवास फ़ैली मिलती। इसलिए राजस्थान की नई पीढ़ी को इस विराट व्यक्तित्व के कला और सांस्कृतिक अवदान से अवगत कराना हमारा फर्ज़ बनता है।

(स्वर सरिता के अप्रेल, 2023 अंक में) 

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