कम जल उपयोग वाले विकास की जरूरत

राजेन्द्र बोड़ा


राजस्थान के लोगों ने सदियों पहले प्रकृति से सहकार करना सीख लिया. उन्होंने प्रकृति से जो सीखा उसे अपनी बुद्धि और कौशल से कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में जीने की राह आसान करने के जतन किये. बुद्धि और कौशल का उपयोग राज करने वालों ने नहीं किया बल्कि सामान्य जन ने अपने अनुभवों से किया. राजस्थान में पानी इंसानी याददास्त में कभी इफरात में नहीं रहा. बरसात के बादल जो बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठते हैं वे इस प्रदेश तक पहुचते-पहुचते शिथिल पड़ जाते है. इसीलिए सूखा राजस्थान के लिए कोई नई बात नहीं है. बरसों बाद कभी-कभी ज़माना अच्छा होता है. इसीलिए पानी की अहमियत को यहाँ के लोगों नें सबसे अधिक जाना. जीवन की पहली शर्त पानी ही होती है. विकट रेगिस्तानी इलाकों में जहां प्रकृति ने पानी की भयंकर किल्लत की स्थिति बनाए रखी वहां लोगों नें प्रकृति से समझौता किया और अपनी बुद्धि और कौशल से पानी के संरक्षण के अनोखे उपाय किये. पीढ़ी-दर-पीढ़ी पानी के संरक्षण और उसके किफायती उपयोग की सीख लगातार जारी रही. यह सब सामान्य जन ने किया. इसीलिए राजस्थान में पानी के पुराने सार्वजनिक स्रोत - कुए, बावड़ी, तालाब - किसी राजा-महाराजा के नाम से नहीं मिलते. वे अधिकतर दूसरों के बनवाये हुए मिलेंगे. पानी के लिए राज पर यहाँ के लोग कभी निर्भर नहीं रहे. अपने पानी के स्रोतों को संजो कर रखना उन्हें खूब आता था. निजी तौर पर भी लोग बरसात के पानी को आगे के महीनों के लिए संजो कर रखने के लिए संरचनाए बनाना सीखे हुए थे. मगर ज़माना बदल गया. लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में जब राज में आम जन की भागीदारी संवैधानिक व्यवस्था के जरिये निश्चित की गयी तब होना तो यह चाहिए था कि पानी को संजो कर रखने और उसके किफायती उपयोग की परंपरा और मजबूत होती. नए किताबी ज्ञान और परंपरागत कौशल के बीच नया रिश्ता बनता और लोगों का जीवन कुछ अघिक सुखद बन पाता. लेकिन आधुनिक युग में विज्ञान के चमत्कारों की चकाचौंध में पानी से हमारा मानवीय रिश्ता ही बदल गया. सारा समाज जो स्वावलंबी था वह पानी के लिए पूरी तरह सरकार पर आश्रित हो गया. लोक के पास जो बुद्धि और ज्ञान का भण्डार था उसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी की अपनी सरकार ने बिसरा दिए. जीवन के लिए महत्वपूर्ण पानी जैसे मुद्दों को प्रशासनिक और वित्तीय आधार पर सुलझा लेने की कोशिशें होने लगी. ऐसी कोशिशें आज भी जारी है.

सरकार में बैठे लोगों का सारा सोच पैसे से पानी के किल्लत की समस्या सुलझानें का हो गया है. पानी प्रकृति की दें है. वह पैसा देकर पैदा नहीं किया जा सकता. पैसे खर्च करने की योजनायें बनाने में शासन में बैठे लोगों ने विशेष योग्यता हासिल कर ली. इससे कईं लोगों की पौ बारह होती है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं कि राजस्थान में पानी की कमी उनकी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. यह चुनौती क्या एक दिन में पैदा हुई है. राजस्थमें कोई बारहमासी नदी नहीं है यह कोई नई जानकारी नहीं है. यहाँ मानसूनी बरसात कम होती है और यहाँ सूखा पड़ना भी कोई अनोखी बात नहीं है. लेकिन पानी की समस्या ने जो विकराल रूप ले लिया है वह नीति निर्माताओं और प्रशासन में बैठे लोगों की बुद्धिहीनता और लापरवाही का नतीजा है. पानी का अंधाधुन्द उपयोग को बढ़ावा देने की नीतियाँ ही आज़ादी के बाद सरकारों ने अपनाई. रेगिस्तान को उसकी प्रकृति के विरुद्ध जाकर हरा-भरा बनाने की जुगत करते हुए शासन में बैठे लोगों ने पानी के संरक्षण की जगह उसकी तबाही के इंतजाम ही किये.

राजस्थान का भूभाग देश के कुल क्षेत्रफल का 10.40 प्रतिशत है जहाँ देश की 5.40 प्रतिशत आबादी रहती है. परन्तु यहाँ देश के कुल सतही पानी का 1.16 प्रतिशत और भूगर्भ जल का केवल 1.70 प्रतिशत हिस्सा इस प्रदेश में उपलब्ध है.

प्रदेश में मानसूनी वर्षा दो-तीन महीने ही होती है. यहाँ पानी के लिए मुख्यतः कमजोर बरसात पर ही निर्भर रहना पड़ता है. प्रदेश का एक तिहाई हिस्सा रेगिस्तान है जबकि 30 प्रतिशत अन्य हिस्सा अर्द्ध शुष्क है. इसका अर्थ यह हुआ कि प्रदेश का करीब दो तिहाई हिस्सा अधिकतर सूखा ही रहता है.

आज हालत ये है कि पानी की मांग और आपूर्ति में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है जबकि उसकी उपलब्धता हमेशा अनिश्चित बनी रहती है. भूजल के स्टार के लगातार नीचे गिरते जाने से पानी की गुणवत्ता खराब होती जा रही है और वह पीने योग्य नहीं रह पा रहा है. ऐसी हालत में पानी का बंटवारा भी गैर बराबरी का हो गया है. शहरी हैसियत वाले वर्ग पानी का बड़ा हिस्सा उड़ा ले जाता है जबकि गावों और निम्न वर्ग के लोगों को पानी की सबसे अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

अपनी परंपरागत जल संरक्षण की विरासत को भुला देने का नतीजा यह हुआ है कि हमारे सभी पारंपरिक जल स्रोत नष्ट हो गए. उन्हें बचाने के हाल ही में हुए सभी प्रयास इसलिए कारगर नहीं हो सके क्योंकि हमने पारंपरिक ज्ञान और बुद्धि से जो सीखा उसे नई नीतियों में शामिल नहीं किया. अभी तक हम पानी के प्रति अपना सोच स्पष्ट नहीं कर पाए हैं इसिलिए सरकारें ऐसे उद्यम ही करती रहती हैं जिनमें पानी का भारी उपयोग होता हो – चाहे वह कृषि का क्षेत्र हो, औद्योगिक क्षेत्र हो या पर्यटन मनोरंजन का क्षेत्र हो.

वास्तव में हम पानी की और नतीजन खुद अपनी तबाही करने को उतारू लगते हैं. राजस्थान की पहली जरूरत पीने का पानी है. मगर उसके लिए 2015 में एक बिलियन क्युबिक मीटर (बीसीएम) पानी की ही जरूरत होगी जबकि कृषि के लिए कुल 40 बीसीएम पानी की जरूरत होगी. क्या रेगिस्तानी राजस्थान के नीतिकारों के लिए यह समझदारी की बात है कि वे फिर भी कृषि को बढ़ावा देते रहें और यहाँ की प्रकृति के विरुद्ध जाते रहें या समझदारी की बात यह है कि वे ऐसी नीतियां बनावें जो इस भूभाग की परिस्थितियों के अनुरूप हों. यह समझदारी किताबों से नहीं आती. हमारे विश्वविद्यालय भी ये समझदारी नहीं सिखाते. राजनैतिक प्रक्रिया के अभाव में और एकाधिकार वाले राजनीतिक दलों के प्रभुत्व के कारण धरती से जुड़े लोग सरकारी व्यवस्था से दूर धकेल दिए जाते हैं.

व्यवहारिक ज्ञान सिखाता है कि हम यह बात नहीं भूल जाएँ कि पिछले पचास-साठ वर्षों के इतिहास में राज्य में केवल पांच-छः वर्ष ही ऐसे गुजरे हैं जब उसका कोई भूभाग सूखे से प्रभावित न रहा हो. यह भी हमारा अनुभव है कि हमें सतही जल के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है और सारे आपसी समझौतों के बावजूद वे हमारे हक का पानी नहीं देते. उनकी अपनी राजनैतिक मजबूरियां हैं. हमें यह भी जानकारी होनी चाहिए कि जिस प्रकार से शहरों का अनंत फैलाव हो रहा है और औद्योगीकरण के लिए हम उतावले हो रहे हैं उससे पानी की उपलब्धता और आपूर्ति के बीच खाई बढती ही नहीं जा रही है बल्कि पानी उपयोग कर्ताओं तक पहुंचाने का खर्च तेजी से बढ़ता जा रहा है.

नीतियाँ बनाते हुए हमारे नीति निर्माताओं की बुद्धि यह सब क्यों नहीं देखती. उनके सामने सारे आंकड़े मौजूद है. वे जानते हैं कि सतही पानी के अभाव में हमारी निर्भरता भूजल पर लगातार बढती जा रही है. भूजल जितना रीचार्ज होता है उससे अधिक पानी का दोहन हो रहा है यह बात भी सरकारी अमला खुद बताता रहता है. फिर उस तरह के उपाय क्यों नहीं होते जिनसे पानी की उपलब्धता के साथ सामंजस्य बिठाया जा सके? क्यों पानी की मांग बढाने वाले अपने उपक्रमों पर कोई अंकुश लगता है?

विकास के नाम पर जो कुछ आज हो रहा है वह हमारे विनाश का कारण बनता जा रहा है. हम बड़ी-बड़ी टाउनशिप बना लेंगे, बड़े-बड़े औद्योगिक क्षेत्र बना लेगे, मनोरंजन के नाम पर वाटर पार्क बना देंगे, और किसानों के नाम पर खेती का विस्तार करते जायेंगे मगर इन सब के लिए पानी कहाँ से लायेंगे? पानी फेक्टरियों में पैदा नहीं होता. उसके लिए तो प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. जब राज में बैठे लोग प्रकृति को समझेंगे और जमीनी हकीकतों से रूबरू होंगे तभी विनाश की तरफ बढ़ते हमारे कदम रुक सकेंगे.

(यह आलेख मासिक पत्रिका 'प्रेस वाणी' के अप्रेल 2010 के अंक में छपा)

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