बर्बाद गुलाबी गुलशन, बनाने चले वर्ल्ड सिटी


राजेंद्र बोड़ा

जयपुर को वर्ल्ड सिटी बनाने की घोषणा के साथ कांग्रेस ने दो दशक बाद राजधानी की लोकसभा सीट जीती थी। इस शहर को “वर्ल्ड सिटी” बनाने का सपना राजीव और सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी ने अपनी चुनावी सभा में लोगों के सामने रखा था। राहुल गांधी की बात को पकड़ते हुए ऊपर से नीचे तक के कांग्रेसजन इस झुंझुने को पकड़ कर बैठ गए। प्रदेश की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के प्रमुख सदस्य भी यह जताने में पीछे नहीं रहे कि बस अब उनकी सरकार इस शहर को “वर्ल्ड सिटी” बना कर दिखाने ही वाली है। जिस शहर का ‘गुलाबी नगरी’ का दर्जा भी जो प्रशासन बचा के नहीं रख सका वह उसे ‘विश्व नगरी’ का दर्जा कैसे दिला पाएगा यह किसी ने नहीं पूछा।

किसी ने यह भी नहीं पूछा कि “वर्ल्ड सिटी” बनाने कि घोषणा करने वालों का इससे आशय क्या है। जयपुर को विश्व पर्यटन के मानचित्र पर लाना ही क्या उसे “वर्ल्ड सिटी” बना देना होगा? पर्यटकों के लिए कुछ सुविधाएँ जुटा देना और उन्हें अपना कुछ माल बेच देने की जुगत कर लेना ही क्या जयपुर को ‘विश्व नगरी’ बना देना होगा?

जयपुर को “वर्ल्ड सिटी” बनाने के दावे करने वालों ने कभी यह नहीं बताया कि ‘विश्व नगरी’ के रूप विकसित करने के लिए इस शहर की उनकी कल्पना क्या है। जिस शहर की बसावट के लिए बने ‘मास्टर प्लान’ की रोज धज्जियाँ उड़ती हों, जहाँ की गलियां और सड़कें पूरी तरह साफ नहीं हो पाती हों, जहाँ के ट्रेफिक की समस्या दिन ब दिन बद से बदतर होती जा रही हो जहाँ पीने का पानी दिन में एक बार एक घंटे के लिए सप्लाई होता हो, जहाँ के सरकारी अस्पताल जानवरों के बाड़ों की तरह हों उस शहर को “वर्ल्ड सिटी” बनाने का सपना दिखाने वाले राजनेताओं की हिम्मत की दाद देनी होगी कि वे किस सफाई से ऐसा फरेब लोगों को दे सकते हैं।

जयपुर पुरातन राजस्थान का सबसे नया शहर है। इसे बसाने वाले सवाई जयसिंह और इसे बनाने वाले विद्याधर ने बड़े विधि विधान से इस नगरी की रचना की थी। बाद के रियासती शासकों ने भी इसमें कुछ न कुछ जोड़ा। दो सदी से अधिक समय तक इस शहर की खूबसूरती ने इसे विश्व में इसके नाम का परचम फहराया। लोक गीतों में इसके गुणगान किए गए। यहाँ की हस्त कलाओं तथा जवाहरात के कारीगरों ने इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाए। कभी यह शहर “हिंदुस्तान का पेरिस” भी कहलाया। दुनिया के कोने- कोने से आए पर्यटकों ने इसकी शान में लेख लिखे, किताबें लिखीं। एक माने में यह आधुनिक शहर होने के खिताब का हकदार बना।

जयपुर नगरी की ख्याति चहुँ ओर फैली वह बेसबब नहीं थी। यहाँ का नगर नियोजन, यहाँ की सार्वजनिक सुविधाएँ, यहाँ का वाणिज्य व्यवसाय और यहाँ की कला और संस्कृति ने इस शहर को पहचान दी। गुलाबी नगरी का पुराना वैभव देवयोग से नहीं था। वह था यहाँ के लोगों के इस शहर से प्यार के कारण। बरसों तक ‘राजस्थान पत्रिका’ में ‘नगर परिक्रमा’ कालम में इस नगर के इतिहास का मनोयोग से लेखा जोखा प्रस्तुत करने वाले नंदकिशोर पारीक ने एक किस्सा सुनाया था। सवाई रामसिंह के जमाने की बात है। महाराजा सवाई रामसिंह के काल में ही जयपुर में आधुनिक सुविधाएँ आयीं। शहर में पक्की सड़कें बनीं, सार्वजनिक रोशनी का प्रबंध हुआ, रामनिवास बाग जैसे सार्वजनिक स्थान और रामबाग जैसी तामीरें हुई और शहर गुलाबी रंग में रंगा। रामसिंह एक शाम घोड़े पर सवार होकर शहर का मुलाहजा कर रहे थे। साथ में घोड़े पर उनके वजीर चल रहे थे। वे जिस सड़क पर चल रहे थे वह सफ़ेद पत्थरों की बनी थी। एक जगह महाराजा ने देखा कि सड़क पर पान की पीक थूकी हुई है। सफ़ेद पत्थरों पर पीक का लाल रंग अधिक ही उभर कर दिख रहा था। महाराजा ने साथ चल रहे वजीर की तरफ मुँह करके कहा देखो सड़क कैसी गंदी हो गई है। वजीर ने जवाब दिया हुजूर ये तो आम सड़क है। यहाँ तो ऐसा ही होता है। इस पर सवाई रामसिंह ने जो जवाब दिया वह बताता है कि इस शहर का वह वैभव क्यों था। महाराजा ने कहा “आम सड़क व्हेगी थ्हांकी। म्हाको तो यो घर छै”।

यह शहर विश्व नगरी तब बन सकती है जब इसे संभालने वाले इसे अपना घर समझें। मगर अब कौन इसे अपना घर समझता है। न शहर को संभालने वाले और न शहर के अधिकतर वाशिंदे। सभी को अपने हित लाभ की फिक्र है। बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियों ने सभी को चूहा दौड़ का धावक बना दिया है। सभी आँख मूँदे दौड़े चले जा रहे है। कुछ भौतिक साधन पा लेने की जुगाड़ में ही पूरा जीवन गुजर जाता है। दशकों से जयपुर में रहने वालों से यदि पूछा जाये कि रोज हवामहल के सामने से गुजरते हुए उन्होंने कभी दो मिनट ठहर कर इस इमारत को नज़र भर के देखा भी है। क्या जयपुर के अधिकतर वाशिंदों को जानकारी है कि शहर में बालानन्द जी के मठ नाम का कोई ऐतिहासिक स्थान भी है। कितने लोगों को मालूम है की फिल्म गीतकार हसरत जयपुरी जिनके गानों ने आज भी दुनिया भर में हिन्दी फिल्म संगीत के चाहने वालों को दीवाना बना रखा है की हवेली चार दरवाजे के पास मौजूद है। कितने लोगों के दिल में उस समय कोई पीड़ा उठी जब उनकी नज़रों के सामने ताल कटोरे का पानी सूख गया और कंक्रीट का जंगल उस पर उगा दिया गया।

कोई भी शहर विश्व नगर बनने से पहले वहाँ के वाशिंदों का आशियाना बनता है। उसकी पहली शर्त होती है वह रहने लायक हो। जहाँ हर एक की जरूरतों को पूरा करने का सामान हो। सब के लिए खुला आसमान हो। साँस लेने के लिए खुली हवा हो। बच्चों के खेलने के लिए उद्यान हों। अंग्रेजी में एक शब्द है ‘सस्टेनेबल’। शहर ‘सस्टेनेबल’ हो। याने वह इस प्रकार से व्यवस्थित हो जो अपने श्रेष्ठ स्तर को थामे रख सके। विश्व नगरी गुणवत्ता वाली होती है, चलताऊ नहीं। वह ऐसी नगरी होती है जहाँ लोग अपने आप को सहज महसूस कर सकें। विश्व स्तर के शहर की सबसे बड़ी पहचान उसकी फुटपाथें होतीं हैं। वे पैदल चलने वालों को कितनी जगह देतीं हैं उससे शहर का वैभव झलकता है और लोगों के प्रति सरोकार प्रदर्शित होता है। शहर सिर्फ कारों और अन्य वाहनों के लिए नहीं होता। वह जीवित लोगों के लिए होता है।

कोई शहर ‘वर्ल्ड सिटी’ के रूप में कई अर्थों में मशहूर होता है। कला और संस्कृति के लिहाज से जैसे पेरिस, मनोरंजन उद्योग के लिहाज से जैसे लास एंजिल्स, मोटर वाहनों के निर्माण के लिए जैसे डेट्रोइट। इसलिए पहले हमें यह तय करना होगा कि जयपुर को हम किस लिहाज से ‘वर्ल्ड सिटी’ बनाना चाहते हैं। राजनेताओं और सरकार में बैठे प्रशासकों की मोटी बुद्धि में एक ही बात आती है पर्यटन की। चलें पर्यटन की दृष्टि से ही जयपुर को वर्ल्ड सिटी बनानी है तो यह तय करना पड़ेगा कि दुनिया भर से यहाँ आने वाले पर्यटकों को हम कैसा शहर दिखाना चाहते हैं? क्या एक ऐसा शहर जहाँ पैदल चलने के लिए सड़क पर कोई जगह नहीं है। क्या ऐसा शहर जिस पर हर तरफ पैबंद ही पैबंद लगे नज़र आते हों। जहाँ की सीवेज लाइनें जगह जगह उबल रही हो। पर्यटक चैन से इस शहर को देखने के लिए कहाँ जाये? जयपुर शहर की सफाई की पुराने जमाने की बानगी देखनी हो तो 1932 में इस शहर पर बनी एक डाकुमेंट्री फिल्म देखे जो अभी इंटरनेट पर यूट्यूब पर उपलब्ध है। उसमें एक दृश्य है त्रिपोलिया बाज़ार में मुख्य सड़क पर एक हाथी निकाल रहा है। चलते-चलते यह विशालकाय जानवर लीद कर देता है। वह नो-चार कदम ही आगे निकला होगा कि एक जामदार हाथ में झाड़ू और टोकरा लिए आता है और साक पर से लीद साफ कर देता है। सत्तर के दशक तक जयपुर नगर परिषद का प्रशासक मुँह अंधेरे दौरे पर निकलता था और शहर की गलियों और सड़कों की धुलवाई पर नज़र रखता था।

लेकिन प्रशासकों और लोगों के मन में इस शहर के प्रति कहीं कोई लगाव नज़र नहीं आता। सभी लोग इस शहर को छीनने-झपटने और इसके वस्त्र तार-तार करने में लगे हैं। हर कोई, जिसकी जितनी भी चलती है, शहर की जमीन को अपनी मिल्कियत बना लेने के उपाय करने में लगा है। अपने घर दुकान का कचरा बाहर खुले में बिखराने की लगता है होड़ लगी है। कचरा उठाने की जिम्मेवारी जिनकी है उन्हें अपने काम के बिलों को पास करवाने से फुर्सत नहीं है।

जयपुर को वर्ल्ड सिटी बनाने से पहले उसे ‘नेशनल सिटी’ और उससे भी पहले ‘स्टेट सिटी’ बनाने के तो उपाय कर लें। फिर वर्ल्ड सिटी की बात करना। जयपुर शहर का आज महत्व सिर्फ इतना है कि वह राजस्थान की राजधानी है। प्रशासनिक तकलीफ़ों से ग्रस्त लोगों का यहाँ मुख्यालय पर आना मजबूरी है। भले ही यहाँ उनकी तकलीफ़ों का निबटारा अधिकतर नहीं होता हो। शहर किसी को सुकून नहीं देता क्यों कि शहर को खुद को सुकून नहीं है।

वर्ल्ड सिटी बजट के आँकड़ों से नहीं बनता। वह लुभावने नारों से भी नहीं बनता। वह किसी देवयोग से खुद-ब-खुद भी नहीं बन जाता। उसके लिए सबको मिल के कुछ करना होता है। उन सब को जो इस शहर से प्रेम करते हैं। राहुल गांधी से चली बात एक अच्छा सपना भी नहीं है क्योंकि वह इतनी धुंध से भरा है कि उसमे भविष्य की कोई तस्वीर देखना बेमानी होगा।

(आलेख प्रेसवाणी पत्रिका के नवम्बर 2010 अंक में प्रकाशित)

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