अकादमियाँ बदहाल : कैसे बचाएँ कला और संस्कृति की पहचान

राजेन्द्र बोड़ा

कला और संस्कृति की पहचान बनाए रखना भी मानव अधिकारों में आता है। मानव अधिकारों की गारंटी देने की जिम्मेवारी राज्य की होती है। राजस्थान अपनी कला और संस्कृति के लिए दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। यह पहचान बनाई रखने में इसीलिए राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। देश की आज़ादी के बाद अपनाई गई संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब लोक की प्रतिनिधि सरकारें बनीं तब अन्य बातों के अलावा लोक कला और संस्कृति के संरक्षण की जिम्मेवारी स्वतः ही उन पर आ गई। राजस्थान में राज्य’ने स्थानीय कला और संस्कृति को बचाए रखने का अपना दायित्व निभाते हुए विभिन्न अकादमियाँ स्थापित कीं। इनकी स्थापना के पीछे सोच यह था कि इनको राज्य की वित्तीय मदद मिले मगर उनका संचालन लोकतान्त्रिक हो। राजस्थान में स्थापित कीं गईं अकादमियों के संविधान इसी के अनुरूप बनाए गए। माना गया कि अपने-अपने क्षेत्र के कुशल लोग, जानकार लोग और कला-संस्कृति से सरोकार रखने वाले लोग इनमें आएँगे जिससे न केवल प्रदेश की कला और संस्कृति का संरक्षण हो सकेगा बल्कि उन्हें बढ़ावा भी मिलेगा। कला और संस्कृति के संरक्षण में राज्याश्रय की अवधारणा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। मगर पुरानी राजाशाही में एक राजा की पसंद या नापसंद और उसकी सनक पर सब कुछ चलता था। इसीलिए पुराने सामन्ती युग में कला और संकृति के उजले और अंधेरे दौर हमें इतिहास के पन्नों में देखने को मिलते हैं। आज़ादी के बाद जब भारत के संविधान में लोक के शासन की व्यवस्था की गई तब यह सपना देखा गया कि अब क्योंकि ‘लोक’अपने भाग्य का विधाता खुद है इसलिए ऐसी लोकतान्त्रिक संस्थायें बनेंगी जिन्हें राज्याश्रय प्राप्त होगा मगर वे किसी की पसंद, ना पसंद या सनक से काम नहीं करेंगी। वे सरकारी विभाग नहीं होंगी और उन पर नौकरशाही का कोई दबाव नहीं होगा। वे स्वतंत्र रूप से काम करेंगी और सरकार का मुँह नहीं ताकेंगी। ऐसे ही जज़्बों के साथ राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, और राजस्थानी भाषा एवं संस्कृति अकादमी जैसी संस्थायें स्थापित हुईं। बाद में इसी तरह अन्य अकादमियाँ बनाईं गईं जैसे उर्दू अकादमी, बृज भाषा अकादमी और नवीनतम पंजाबी अकादमी। लेकिन पिछले साठ वर्षों से अधिक का आज़ादी के बाद का अनुभव हमें बताता है कि हम लोकतान्त्रिक संस्थाओं को पल्लवित नहीं कर सके। ऐसी संस्थाएं बनाई जरूर हमने पर उन्हें संवारना तो दूर रहा हम उन्हें सँभाल कर भी नहीं रख सके। बड़ी अपेक्षाओं के साथ बनीं सभी अकादमियाँ आज मृतप्राय: हैं।
स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए अकादमियों की स्थापना का श्रेय कॉंग्रेस को जाता है जिसने आज़ादी के बाद लंबे समय तक प्रदेश में लगातार सरकार चलाई। सन 1977 के बाद बीच-बीच में यदा-कदा विपक्ष के लोग सरकारें चलाते रहे मगर वर्चस्व कॉंग्रेस का ही बना रहा है। अब प्रदेश में फिर कॉंग्रेस का शासन है और उसका नेतृत्व अशोक गहलोत कर रहें हैं जो पहले भी पाँच वर्ष का कार्यकाल मुख्यमंत्री के रूप में बिता चुके हैं। इसीलिए उनसे राजस्थान के लोग स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे अपने पिछले कार्यकाल के अनुभवों की सीख से शासन की बागडोर और अधिक बेहतर तरीके से थाम कर चलेंगे। लोग उनमें गांधी का सोच देखते हैं इसीलिए उनके लिए “राजस्थान का गांधी” का नारा तक लगाते रहते हैं। जमीन से जुड़े हुए इने गिने राजनेताओं में उनका शुमार होता है। प्रदेश की लोक संस्कृति और कलाओं से वे अपना सरोकार का सार्वजनिक रूप से वे इज़हार करते रहते हैं। उन्हीं के नेतृत्व वाली सरकार ने पिछली बार राज्य विधान सभा में राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखने का प्रस्ताव पारित करवा कर केंद्र सरकार को भिजवाया था। मगर इसे क्या कहें कि उन्हीं के मौजूदा कार्यकाल में कला, संस्कृति और भाषा अकादमियाँ ठप पड़ीं हैं।
अकादमियों का यह हश्र एक दम या रातों-रात नहीं हुआ है। पहले इनमें राजनीति घुसी। सत्ता के निकट रहने या सत्ता का मुँह ताकने वालों को इन संस्थाओं में पदों पर बिठाने का खेल बहुत पहले शुरू हो गया था। इससे अकादमियों के पद मात्र श्रंगारिक बन कर रह गए। इनके पदों पर रुतबे वाले लोग नहीं बल्कि पद से रुतबे की चाह रखने वाले लोग आसीन होते गए। ये संस्थाएं स्वतंत्र हैसियत वाली बनने की बजाय आत्म समर्पण वाली संस्थाएं बन कर रह गईं। जब उनकी हैसियत ही नहीं रही तब नौकरशाही कब उन्हें बक्षने वाली थीं। आज इन अकादमियों का कोई रुतबा नहीं है, कोई स्वतंत्र वजूद नहीं है। रही-सही कसर सरकार के उस उदासीन रवैये ने पूरी कर दी जिसके तहत नए शासन के डेढ़ वर्ष का कार्यकाल पूरा हो चुकने के बाद भी किसी को यह सुध नहीं है कि वैधानिक व्यवस्थाओं के अनुरूप उनका गठन भी किया जाना है। अकादमियाँ सरकार की प्राथमिकताओं में कहीं कोई स्थान रखती है इसका प्रमाण नहीं मिलता। कला और संस्कृति के सरोकारों से विमुख होकर कोई लोकतान्त्रिक सरकार किस तरह अपने को लोक हित वाली सरकार होने का दम भर सकती है? मगर शासन में बैठे लोग पिछली चुनावी जीत के जश्न से उठे गुबार में इस तरह घिरे रहते हैं कि दीवार पर उकरी इबारत उन्हें पढ़ने में नहीं आती। वरना क्या कारण हो सकता है कि जब बाज़ार सभी क्षेत्रों में अपनी घुसपैठ कर चुका हो और कला और संस्कृति को उत्पाद बना देने पर आमादा हो तब भी उनके संरक्षण की तरफ सरकार का ध्यान नहीं जाता। सरकार चलाने की अपनी लोकतान्त्रिक मजबूरियां हो सकती है। परंतु अकादमियों को पंगु बनाए रखने का खेल इन मजबूरीयों का हिस्सा नहीं हो सकता। यदि ऐसा है तो और भी बुरा है।
मुद्दा यह नहीं है कि इन अकादमियों का पुनर्गठन करके उनमें अध्यक्षों की कुर्सियों पर बैठा कर किन्हीं लोगों की शोभा बढ़ाई जाय या किन्हीं लोगों के राजनैतिक हित सँवारे जाय। मुद्दा यह है कि इन अकादमियों को जीवंत, लोकतान्त्रिक और स्वतंत्र संस्थाओं के रूप में विकसित होने दिया जाय। यह तभी संभव है जब उन्हें नौकरशाही के चंगुल से आज़ाद किया जाय और उन्हें वित्तीय रूप से सक्षम बनाया जाय। इन संस्थाओं की कमान जिन किन्हीं के हाथों में सौंपी जाय उन पर भरोसा किया जाय और सरकार का काम सिर्फ निगरानी का हो हस्तक्षेप का नहीं। आज की परिस्थितियों में ऐसा तभी हो सकता है जब मुख्यमंत्री सीधे इस काम को देखे। सरकार की असली दखलंदाजी अकादमियों को दी जाने वाली वित्तीय मदद से होती है। कुछ ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमे अकादमियों को भरपूर वित्तीय मदद मिले और एक बार उन्हें बजट दे देने के बाद उनके काम में टाँग नहीं अड़ाई जाय। जिन लोगों को इनकी कमान सौपी जाय उन्हें काम की आज़ादी तभी मिल सकेगी। यदि ऐसा हो जाय और अच्छे लोग इन अकादमियों को संभालने आ जाएँ तभी संभव है कि प्रदेश की कलाओं और संस्कृति के दिन फिरें। मगर यह दिवास्वप्न जैसा लगता है। जिस बुरी हालत में आज प्रदेश की विभिन्न अकादमियाँ पड़ी हुईं है और जिनकी तरफ ध्यान देने की फुर्सत शासन में नहीं है उसके चलते कोई बड़ा उपाय होता नहीं दीखता। कहा जा सकता है कि कला और संस्कृति के संरक्षण के लिए सरकार पर ही क्यों आश्रित रहा जाय। गैर सरकारी प्रयास भी तो हो सकते हैं। हमारे जीवन के हर क्षेत्र में राज्य’की दखलंदाजी भरपूर है। उसका सारा कारोबार जनता के पैसों से ही चलता है। इसलिए यदि उससे इमदाद मांगी जाती है तो यह माँगना हमारा हक है। अपनी कलाओं और संस्कृति को बचाए रखने का हक हमारा मानव अधिकार है। और इस अधिकार की रक्षा करना राज्य’ का दायित्व है। शासन को उसका दायित्व याद दिलाना हमारा फर्ज़ भी है और अधिकार भी।

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