अशोक गहलोत रखते हैं फूँक-फूँक कर कदम, मगर कदम के निशां तक नहीं


राजेंद्र बोड़ा

राजस्थान पत्रिका ने आज (12 फरवरी, 2011) के अंक में अपने पूर्व संपादक विजय भण्डारी का एक लेख “फूँक-फूँक कर कदम” प्रकाशित किया है। भण्डारी कहते हैं कि राज्य में अब तक हुए कुल 11 मुख्य मंत्रियों (नौ कांग्रेस, दो भाजपा) में अशोक गहलोत “पहले ऐसे मुख्य मंत्री हैं, जो आम आदमी की बोली बोलने में गुरेज नहीं करते हैं”। इसके लिए वे गहलोत के उस सार्वजनिक वक्तव्य को आधार बनाते हैं जिसमें कहा गया है कि पुलिस के थानेदारों की जानकारी में है कि उनके क्षेत्र में कौन चोर है, मगर वे उन्हें पकड़ते नहीं। भण्डारी गहलोत के इस वक्तव्य से खुद “चकित” हैं। वे कहते हैं कि “थानेदारों को राज्य के पदासीन मुख्य मंत्री द्वारा इससे बड़ा काला प्रमाणपत्र क्या हो सकता है? मुख्य मंत्री ने उनका चेहरा काला पोत के रख दिया है, लेकिन उन्हें (थानेदारों को) शर्म नहीं आती है”।

भण्डारी बाद में यहाँ तक लिख बैठे कि “अशोक गहलोत ने अपने द्वितीय कार्यकाल के 26 महीनों में प्रशासन के अनेक लोगों के मुँह काले पोत दिये मगर उनके कान में जूँ नहीं रेंगी”।

ऐसे वक्तव्यों में वे अशोक गहलोत के बड़े सुकोमल रूप को देखते हैं। वे यह भी कहते हैं कि “हालांकि नए कार्यकाल में कोई विशेष परिवर्तन हो गया हो ...ऐसा तो नहीं है, लेकिन चेष्ठा दिखाई देती है”।

यह सवाल उठाते हुए कि “गहलोत को अपनी कमीज ही चमकाने की चिंता क्यों है? भण्डारी खुद ही जवाब देते हैं गहलोत समझ गए हैं कि “राजनेताओं से अधिक आमजन जागरूक है। उसके सामने आपकी चोरी छिपती नहीं”।

भण्डारी आमजन की जागरूकता की बात तो करते हैं मगर गहलोत की चमकती कमीज पर कोई छाया नहीं पडे इसका भी ध्यान रखते हैं। गहलोत के प्रति ऐसा मोह दिखाने वाले वे अकेले पत्रकार नहीं है।

राज्य के सारे अख़बारों, जिसमें राजस्थान पत्रिका भी शामिल हैं, के पन्ने रोजाना ऐसे समाचारों से भरे रहते हैं जिसमें कानून, व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ छिन्न भिन्न हुई साफ दीखती है। मगर भण्डारी उन पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें इन सारी प्रशासनिक असफलताओं से गहलोत का दामन बचाने का मोह है। वरना क्या कारण है कि जिन प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की अपराधियों से मिलीभगत की ओर गहलोत अपने वक्तव्य में बात कर रहे हैं उसके लिए लिए उन्हें साधुवाद दिया जाता है।

मुख्यमंत्री की यह साफ़गोई नहीं है। वरना गहलोत अपने मातहत अफसरों का मुँह काला पोतने वाला सार्वजनिक वक्तव्य देने से पहले अपनी भूमिका पर ध्यान देते। लोकतंत्र में शासन में बैठे राजनेता जनता के नुमाइन्दे होते हैं। जनता उन्हें राज में इसलिए भेजती है कि वे उनकी आकांक्षाएं और अपेक्षाएं पूरी करेंगे। आमजन जो जानता है उसकी मुख्य मंत्री से ताईद की जनता को दरकार नहीं है। आमजन चाहते हैं कि जो गड़बड़ी मुख्यमंत्री की जानकारी में आ गई है वह तो कम से कम दूर हो। राज्य के शीर्ष पर बैठा कोई राजनेता अपनी इस जिम्मेदारी से सिर्फ इसलिए नहीं बच सकता कि वह तो खुद ही जनता की समस्या बता रहा है। जनता चाहती है मुख्यमंत्री जी समस्याएँ बताना छोड़ें उनके समाधान की बात करे और उसे करके बताएँ। जनता अपने प्रतिधियों को इसलिए नहीं चुनती है कि वह कुर्सी पर बैठ कर उन्हें उपदेश देने लगे या वह कुछ कर नहीं पा रहा है उसके लिए अपनी कमजोरी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ता रहे और बहाने बनाता रहे।

गहलोत शासन के प्रमुख हैं इसलिए वे अपने प्रशासनिक अफसरों के बारे कुछ भी कह सकते हैं। मातहत उन्हें जवाब भी नहीं दे सकते। प्रशासन तंत्र में बैठे लोगों को संवैधानिक और सेवा नियमों की मर्यादाओं का पालन करना होता है। राजनेता के लिए सब छूट है। इसलिए गहलोत तो अपने प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों का “काला मुँह” कर सकते हैं पर खुद उनसे जवाब कौन माँगे। लोकतंत्र में जनता यह जवाब पाँच साल बाद माँगती है। मगर पाँच साल के कार्यकाल के दौरान निर्वाचित प्रतिनिधियों से सवाल करने का दायित्व अखबारों का होता है क्योंकि लोकतांत का ‘चौथा स्तंभ’ कहलाने वाले पत्रकार भी जनता के नुमाइन्दे होते है जिनका काम केवल सूचना देना नहीं होता बल्कि लोग जो बोल कर कह नहीं सकते उसे अभिव्यक्ति देना। अभिव्यक्ति की आज़ादी हमें अपने संविधान से मिलती है। किसी के रहम-ओ-करम से नहीं। मगर जब हम कहते हैं “मीडिया” तब सूचना के सभी स्रोत – अख़बार, रेडियो, टीवी समेत – व्यवसायगत हो जाते हैं। मीडिया बाज़ार की चाल चलता है और उसी के लिए हो रहता है। बाज़ार सिर्फ पूंजी के लिए होता है मगर वह यह भ्रम पैदा करने में सफल रहता है कि वह ग्राहक के लिए है। खुले बाज़ार के पैरोकार ग्राहक को चुनने की छूट देने का लोकतान्त्रिक ढोंग रचते हैं। उसी प्रकार आज के अख़बार, जो अब प्रिन्ट मीडिया कहलाने लगे हैं, यह भरम बनाए रखते हैं कि शासन-प्रशासन पर खोजी निगाह उनकी है और वे जनता की बात करते हैं। मगर वास्तव उनका सरोकार अपने मुनाफे से होता है जिसे वे उंन स्रोतों से भी पाते हैं जिसका उनके सूचना के व्यवसाय से कोई संबंध नहीं होता। अख़बार से मुनाफा पाने के साथ वे इसके प्रभाव का उपयोग अपने इतर व्यवसायों के हित साधने का बड़ी चालाकी से करते है। यह चालाकी हमें मौजूदा राजनैतिक दौर में साफ नज़र आती है। यदि यह चालाकी नहीं होती तो तो प्रशासनिक असफलता के लिए गहलोत से सवाल क्योंकर नहीं होता। आज के मीडिया में भण्डारी अकेले नहीं हैं जो यह तो कहते हैं कि आम आदमी तकलीफ में है, हर ओर भृष्टाचार का आलम है मंत्री नाकारा हैं और सबसे बढ़ कर राज का कोई रुतबा नहीं रह गया है मगर इसके लिए वे मासूमियत से गहलोत को सुरक्षा कवच भी देते हैं और कहते हैं कि गहलोत तो बड़े स्वछ हैं मगर उनकी टीम ठीक नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि गहलोत कमजोर व्यक्ति या नेता हैं। सभी उनकी राजनैतिक ताकत को हिमालय जैसी मानते हैं। यदि वे ऐसे ताकतवर हैं तो उन्होने कमजोर और भृष्ट टीम क्यों चुनी। इसका जवाब उनकी पैरवी करने वाले मीडियाकर्मी यह कह देते हैं कि उनकी राजनैतिक मजबूरी है। मजबूरी वाला नेता ताकतवर हुआ या कमजोर हुआ? एक तरफ सभी गहलोत को एक ताकतवर नेता मानते हैं मगर उन्हें अपने मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के सामने लाचार भी मानते हैं। यह अंतर्विरोध किसी को नहीं दिखता या देखना नहीं चाहते।

गहलोत का सत्ता व्याहमोह अनोखा है। उनका सच सिर्फ अपनी कुर्सी का सच है। उन्होंने अपने आभामंडल का एक सुरक्षा घेरा बना रखा है। मगर इस घेरे से बाहर वे खुद भी कुछ नहीं देख पा रहे है, यह कड़वा सच कोई उन्हें नहीं कहता। यह घेरा उन्हें दीवार पर लिखी लिखाई नहीं देखने देता। यह घेरा उनकी सफलताओं के कसीदों की इतनी तेज रोशनी करता है कि उसमें उनकी खुद की आँखे चौंधिया जाती है और उन्हें जमीनी हकीकत के मुकाबले इसी घेरे की दुनिया सच लगने लगती है।

गहलोत के पिछले कार्यकाल में भी ऐसा ही था। तब उनके अपने शिवचरण के अख़बार ‘लोक दशा’ के पहले पन्ने पर एक आलेख ने गहलोत को जगाने का प्रयास करते हुए लिखा था कि वे इस घेरे के बाहर देखें। मगर गहलोत ऐसा नहीं कर पाये और चुनाव परिणामों ने वास्तविक तस्वीर से उन्हें रूबरू करा दिया। उन्हें परास्त कर सत्ता में आई वसुंधरा राजे भी अपनी शाही घेरे की चकाचौंध से व्यामोहित रही और अपने घेरे के बाहर की दुनिया का पता उन्हें चुनाव परिणामों ने ही दिया।

फिर चुनाव जीत कर आए गहलोत से लोगों की जबर्दस्त अपेक्षा थी कि वे अपने पिछले कार्यकाल और काम काज के नतीजों से बहुत कुछ सीख कर आए होंगे और अपने दूसरे कार्यकाल में राजस्थान को मजबूत और कुशल नेतृत्व देंगे। मगर मजबूती की जगह एक ऐसा लाचार राजनेता हमारे सामने आता है जिसकी सारी कोशिशें कुर्सी के लिए होती है। जो अपने प्रशासन को कुशल नहीं बना सकता। वह समझौते करता है। जो आदर्शों की बातें करता है मगर जिसमे उन्हें व्यवहार में लाने की कोई गंभीरता नहीं। गहलोत ऐसे क्यों है इसके लिए वे राजनैतिक परिस्थितियां जिम्मेवार हैं जिसमें उन्होंने सत्ता की सीढ़िया चढ़ी। जब उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया तब राज में से नीतियाँ तिरोहित हो रही थीं और व्यक्तिवाद अपनी नींव पक्की कर रहा था। ऐसे में जोधपुर से अशोक गहलोत के रूप में जो राजनेता प्रदेश के परिदृश्य पर उभरा वह ‘सेल्फ मेड’ था। उसने कांग्रेस की आंतरिक राजनीति को पूरी तरह साध लिया। अब वे अपने ही बुने राजनीति के जाल में घोर अकेले हैं। उनका अकेलेपन का शोर उनके वक्तव्यों में फूट पड़ता है। वे मीडिया के जरिये अपनी छवि को सरल, सौम्य और मिस्टर क्लीन दिखाये रखने में सफल रहते हैं। मगर वे भूल जाते हैं कि मीडिया द्वारा बनाई गई छवि एक हद तक ही बनी रह सकती है। इसमें ख़तरा यह होता है कि मीडिया में बनवाई गई छवि को खुद वह व्यक्ति सच मानने लगता है। राजस्थान पत्रिका में छपा यह लेख गहलोत को ऐसे ही भुलावे में डालता है।

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