कराख रो तो जल भलो: मगर जल से रिश्ता फिर कैसे बने

राजेन्द्र बोड़ा

सदियों से राजस्थान के लोग पानी की कमी का सामना करते रहे हैं। एक तो यहां का गर्म जलवायु, दूसरी तरफ वर्षा की हमेशा कमी और तीसरे कोई बारहमासी नदी नहीं होना। साथ ही बड़ा भू भाग रेगिस्तानी या अर्द्धशुष्क। मगर प्रकृति से मिली ऐसी कठोर परिस्थितियों में भी यहां जो कला, संस्कृति, तथा जीवन शैली पल्लवित हुई और मानवीय मूल्यों का विकास हुआ वह अनोखा है। यहां के लोगों ने प्राकृतिक विपदा में भी अपने जीवन को उत्सव बनाया। अपने अनुभवों से उन्होंने प्रकृति से सहकार करना सीखा और पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अनुभवों से नया ज्ञान पाने और उसे आगे बढाने की परंपरा डाली। जहां वर्षा के देवता इंद्र की मेहरबानी कम होती हो वहां संस्कृति, सामाजिक ढांचा और परंपरा कम पानी में गुजारा करना सिखाते हैं और वैसे ही मानवीय मूल्य प्रतिष्ठित करते हैं। राजस्थान के लोगों ने कभी पानी की कमी का रोना नहीं रोया। जितना प्रकृति ने दिया उसी को प्रसाद मान कर शिरोधार्य किया। हालांकि पानी की कमी से होने वाली मानवीय तकलीफें यहां के लोक गीतों और संगीत में गूंजी मगर वे दुःख के नहीं उत्सव के स्वर थे।

महाभारत युद्ध जब समाप्त सोने को होता है तब का एक प्रसंग लोक कथाओं में आता है। कहते हैं इस रेतीली धरती के लोगों को श्रीकृष्ण ने वरदान दिया कि उनके यहां कभी जल का अकाल नहीं रहेगा। यहां के लोगों ने अपने परिश्रम और बुद्धि से कृष्ण के उस वरदान को झूठा नहीं होने दिया। उन्होंने गांव-गांव, शहर-शहर वर्षा के जल को सहेज कर रखने के खोजे और उन्हें व्यावहारिक स्तर पर अपनी जीवन शैली का अंग बनाया। इसमें सबसे बड़ी खूबी यह थी कि मरू भू-भाग के भिन्न-भिन्न अंचलों में वहां की परिस्थितियों के अनुकूल जल संरक्षण की तकनीकें खोजी गईं और अपनाई गईं। आज जैसा नहीं हुआ कि कोई एक किताबी तकनीक सब जगह प्रचलित कर दी गई हो।

एक लोक कथा मारवाड़ में प्रचलित है जिसमें एक ज्ञानी और एक सरल ग्वाले के बीच संवाद है। ज्ञानी कहता है :

सूरज रो तो तप भलो/नदी रो तो जल भलो
भाई रो तो बल भलो/ गाय रो तो दूध भलो
चारूं बातों भले भाई/ चारूं बातों भले भाई

ज्ञानी रेगिस्तान में नदी की – किताबी ज्ञान – की बात करता है। रेगिस्तान में कभी नदी रही होगी यह किताबी ज्ञान है। उसका मरू प्रदेश के लोगों के जीवन में आज क्या महत्व। उसकी और बातें भी ऐसे ही किताबी है।

सीधा-सरल ग्वाला उत्तर देता है:

आंख रो तो तप भलो/कराख रो तो जल भलो
बाहु रो तो बल भलो/मां रो तो दूध भलो
चारूं बातों भले भाई/ चारूं बातों भले भाई

वह कहता है आंख रो तो तप भलो याने जीवन में अनुभव ही काम आता है। पानी कराख का मतलब कंधे पर लटकी सुराही का, बल अपनी भुजा का ही काम आता है। और दूध तो मां का ही श्रेष्ठ होता है।

मरुस्थल के सीधे सरल लोगों ने अपने अनुभव से जो सीखा उसे परंपराओं ने आगे बढ़ाया कि वर्षा के पानी की एक-एक बूंद कैसे सहेजी जाये और कैसे पानी के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाये। एक छोटा सा उदाहरण इसे प्रमाण देता है। पहले जब जमीन पर बैठ कर भोजन करते थे तो पास में पड़े पानी के लोटे के ठोकर नहीं लग जाये इसकी सीख बार-बार बच्चों को दी जाती थी।

किताबी ज्ञान और अनुभव के तप में क्या फर्क है यह जानने के लिए मरुस्थल की जल संरक्षण की परंपराओं को देखना होगा। हमारा सारा आधुनिक किताबी ज्ञान हमें सबक देता है “बहता पानी निर्मला”। साफ और स्वस्छ पानी वही होता है जो बहता हुआ होता है। ठहरा हुआ पानी गंदा होता है।

मगर मरू समाज का परम्परागत जल संरक्षण का सैकड़ों वर्षों का इतिहास – अनुभव, या कहें आँख का तप, ठहरे पानी का गंदे होने का किताबी ज्ञान झुठला देता है। वर्षा के पानी को – जिसे मरू वासियों ने पालर पानी का नाम दिया – ठहरा कर कुई में, टांके में खडीन में, नाड़ी में सहेज कर अगली वर्षा होने तक अपना काम चलाया।

वैज्ञानिक कहते हैं कि मानव सभ्यता के ऐतिहासिक प्रमाणों की गणना के हजारों वर्ष पहले आज का जो मरू भूभाग है वहां कभी समंदर ठाटे मारता था। अनोखी बात यह है कि उस विशाल जल फैलाव “हाकड़ो” की स्मृति आज भी जन मानस में है। इसका जवाब वैज्ञानिकों के पास नहीं है कि हाकड़ो के सूख जाने के बाद यहां सभ्यता पनपी तो समंदर जन मानस की स्मृति में कैसे आया? डिंगल भाषा में समुद्र या सागर और उनके दर्जनों पर्यायवाची शब्द आते हैं।

सागर की अपनी इस स्मृति का जिक्र यहां की लोक कथाओं या लोक गीतों में विछोह के रूप में नहीं आता है। प्रकृति से शिकायत के तौर पर नहीं आता है। एक ऐसे सपने और विश्वास की तरह आता है कि फिर हाकड़ो का अस्तित्व बनेगा और संपन्नता आएगी :

हक कर बहसे हाकड़ो, बंद तुट से अरोड
सिंघड़ी सूखो जावसी, निर्धनियों रे धन होवसी
उजड़ा खेड़ा फिर बससी, भागियो रे भूत कमावसी
इक दिन ऐसा आवसी।

शोधकर्ता भले ही पिछले सौ बरसों से यह जानने की माथापच्ची करते रहें हों कि हाकड़ो समुद्र था या नदी थी। यदि नदी थी तो सिंधु नदी से या वैदिक सरस्वती नदी से उसका क्या संबंध बनाया जाय। मगर मरुस्थल के वासियों के मनों में हाकड़ो एक ऐसी याद है जिसके सहारे उन्होंने अपनी परिस्थितियों के अनुरूप पानी के संरक्षण की ऐसी जुगत की जो परंपराओं से निखरती गई।

मगर हमारा यह लोक-ज्ञान स्कूल कॉलेजों की किताबों में स्थान नहीं पा सका। देश के आज़ाद होने के बाद भी ‘लोक’ को हिकारत से पिछड़े की तरह देखा गया और नई पीढ़ियों को जो किताबों में पढ़ाया गया उसने हमारी इस लोक परंपरा की इबारत को पोंछ डाला। विकास की आधुनिक पाश्चात्य अवधारणा ने आज़ादी के बाद धीरे-धीरे उन सब परम्परागत जल संरक्षण की व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और मरुस्थल को गरीब बना दिया। किफायत पर लालच हावी हो गया। यहां पर वे सब प्रयास किए गए जो यहां की माटी और प्रकृति के अनुरूप नहीं थे। प्रकृति पर विजय पा लेने के विचार का दंभ था।

वर्ष 1950-51 में पश्चिमी राजस्थान की करीब 78 लाख हेक्टेयर भूमि पर खेती होती थी। इसमें से 363 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में खेती सिंचाई से होती थी जो अधिकतर उसे उत्तरी भाग में नहरों से होती थी। शेष खेती वर्षा पर आधारित थी। खेती के लिए भूमिगत जल का उपयोग बहुत कम था जो क्यों कि तब बिजली या डीजल से चलने वाले पंप नहीं थे।
यह दृश्य पिछली सदी के सत्तर के दशक के शुरू में तब बादल गया जब सरकार ने ग्रामीण विद्युतिकरण को जबर्दस्त बढ़ावा देना शुरू किया। यह वह समय था जब पड़ोसी पंजाब में हरित क्रांति का परचम फैल रहा था। आधुनिक किताबी ज्ञान ने नीति निर्माताओं और निर्वाचित कर्णधारों ने मरू भूमि में भी ऐसी ही हरित क्रांति कर देने का सपना जगाया। वर्ष 1980 के आते राज्य का कृषि क्षेत्र बढ़ कर 10.09 मिलियन हेक्टेयर हो गया जिसमें से 1.39 मिलियन हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र हो गया। वर्ष 2005 तक कुल कृषि क्षेत्र तो मामूली बढ़ कर 10.94 मिलियन हेक्टेयर हुआ मगर सिंचित क्षेत्र बढ़ कर 2.77 मिलियन हो गया। कह सकते हैं कि राजस्थान नहर जो आई। लेकिन राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का 43 प्रतिशत ही नहरी तंत्र से सिंचित होता है जबकि 57 प्रतिशत सिंचाई बिजली और डीजल से चलने वाले ट्यूबवैलों से पानी खींच कर भूगर्भ से होने लगी। इफ़रात की इस सिंचाई पद्धति में अच्छे प्रबंधन पर भी ध्यान देने की जरूरत नीति निर्माताओं ने नहीं समझी। आज राज्य में उपलब्ध पानी का 94 प्रतिशत उपयोग खेती के लिए होता है। पीने के पानी या घरेलू उपयोग के लोए पानी की खपत केवल चार प्रतिशत है।

प्रकृति ने इस धरती को कभी कृषि के लिए उपयोग में लाने की मंशा नहीं जताई। इसके बदले उसने यहां के लोगों के लिए चरागाहों, घनी झाड़ियों और बीच-बीच में ऐसे जंगलों की व्यवस्था की जहां विभिन्न प्रजाति के पेड़ों की सौगात दी जो रेत के धोरों को थामे रख सके। खेजड़ी, बबूल, कैर नीम, जाल, और बोरडी जैसे पेड़ों ने न केवल यहां प्राकृतिक दृश्यों की छटा बढाई बल्कि इंसान और जानवर दोनों के लिए उपयोगी भी बने। यहां प्रकृति ने जो बहुतायत में घास दी वह भरपूर पोषण करने वाली थी। मामूली पांच इंच वर्षा में वह पनप जाती है।

मगर सारे आगोर, चरागाह और घास की भूमि आधुनिक विकास की भेंट चढ़ गई। कृषि के अप्राकृतिक ज़ोर से भूमि के गर्भ के पानी का ऐसा दोहन शुरू हुआ कि आज पीने के पानी की त्राहि-त्राहि मची हुई है। जिस सीमा तक भूगर्भ का जल स्तर नीचे चला गया है। उसका सामान्य वर्षा से पुनर्भरण असंभव है।

आधुनिक विज्ञान के समझदार विशेषज्ञ अपने नए अध्ययनों में इस प्रकृति विरोधी विकास को रेखांकित करते रहे हैं। वे यहां घनी सिंचाई की व्यवस्था को रोकने, भूमि को कृषि से मुक्त करने, उसकी जगह फलों के बगीचे लगाने, पशुपालन को बढ़ावा देने, ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत काम में लेने, और राजस्थान नहर के तंत्र को पीने के पानी के लिए उपयोग में लेने का सुझाव देते हैं। इसी के चलते तत्कालीन राजस्थान नहर मंत्री नरेन्द्र सिंह भाटी ने राजस्थान नहर परियोजना के दूसरे चरण में क्रांतिकारी बदलाव लाने के प्रस्ताव का एक नोट तैयार करके सार्वजनिक तौर पर जारी किया था। भाटी मारवाड़ क्षेत्र के ओसियां से विधानसभा में निर्वाचित सदस्य थे। उनका यह नोट पर आधुनिक किताबी ज्ञान वालों ने तो असहमति का रुख रखा मगर सदन में हुई चर्चा के दौरान मारवाड़ से आए सभी प्रतिनिधियों ने शासन से कहा कि वह इस पर ध्यान दे क्योंकि यही समझदारी का रास्ता है।

जोधपुर में स्थित केन्द्र सरकार के संस्थान एरिड ज़ोन रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक वर्षा के पानी को बड़े पैमाने पर सहेजने के उपाय सुझाते रहे हैं। मगर नीति निर्धारकों को उनकी राय को जानने और उस पर मनन करके काम करने की कभी फुर्सत नहीं मिली। उनके ये सुझाव इस धरती की परंपराओं को ही आगे बढ़ाने वाले है। परंपरा कभी ठहरती नहीं। नए अनुभव और ज्ञान की धाराएं उसमें मिलकर उसे समृद्ध बनाती है। धरती की कोख से जिस निर्ममता से हम पानी निकाल रहे हैं उसकी भरपाई के लिए वैज्ञानिक सुझाते हैं कि वर्षा में धरती पर बरसा पानी जो कैचमेंट एरिया से बह कर चला जाता है उसे सहेजने की जरूरत है। इसके लिए नई यंत्र तकनीकें भी वैज्ञानिकों ने विकसित की है। पता नहीं कब नीति निर्धारकों का ध्यान उधर जाएगा।

एक सच्चाई हमें समझनी होगी कि राजस्थान मूलतः शुष्क और अर्ध शुष्क मौसमी तंत्र का भाग है जहां वर्षा कम होती है और जहां कोई बारहमासी नदी नहीं बहती और थार रेगिस्तान में वर्षा का पानी ही पीने के पानी का प्राथमिक स्रोत है। यह समझ हमें हमारी परंपराओं से मिलती है। परंपराओं से कट कर विकास की अवधारणा ने हमारी बहुत सी समस्याओं को जन्म दिया है। जिस पंजाब को हमने रोल मॉडल माना वहां भी खेती आज संकट में है क्योंकि वहां भी लोग प्रकृति से अपनी रिश्तेदारी का लिहाज भूल गए।

विकास के जिस दौर से गुजर कर हम आज जहां पहुंच गए हैं वहां से कैसे लौटें और इस भूमि यहाँ के जलवायु की प्रकृति के अनुरूप कैसे अपना रास्ता बनायें यही यक्ष प्रश्न है।

('स्वर सरिता' के जुलाई 2011 अंक में प्रकाशित आलेख)

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