लोकतन्त्र शीर्षासन की स्थिति में: बजट कौन बनाता है!

राजेंद्र बोड़ा

गणतन्त्र की संवैधानिक घोषणा के छह दशकों के बाद आज ऐसा लगता है जैसे लोकतन्त्र हमारे देश में शीर्षासन कर रहा हो। संविधान में राज चलाने के लिए दो संस्थाओं को अधिकार दिया गया – विधायिका और कार्यपालिका। दोनों संस्थाएं संविधान और विधि सम्मत तरीके से काम कर रहीं है या नहीं इसका फैसला करने की जिम्मेवारी न्यायपालिका में निहित की गयी। निर्वाचित विधायिका में बहुमत प्राप्त व्यक्ति सरकार का नेतृत्व करता है और सामुहिक जिम्मेवारी वाली मंत्री परिषद बना कर अगले जनादेश तक शासन की बागडोर संभालता है।

संविधान की व्यवस्था यह है की निर्वाचित सरकार विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है और विधायिका जनता के प्रति, जिसके हाथ में सार्वभौम सत्ता है। सरकार का काम विधायिका के प्रति जवाबदेही निभाते हुए ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनाना होता है जिनसे आम जन की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप और संविधान के निर्देशों के अनुसार काम हो। कार्यपालिका का काम उन नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने का होता है। इस प्रकार संविधान में स्पष्ट रूप से काम का बंटवारा किया हुआ है कि सरकार में बैठे निर्वाचित लोग नीतियां और कार्यक्रम बनायेंगे और अफसरशाही उन्हें लागू करेगी। इस व्यवस्था पर निगाह रखने और जवाब मांगने का काम विधायिका का है।

संवैधानिक व्यवस्थाएँ तो वैसी की वैसी ही है मगर सरकार और कार्यपालिका के बीच भूमिका, संविधान की नीयत के विपरीत, बदली हुई नज़र आती है। आज बहुत ही साफ तौर पर देखा जा सकता है कि जिनका काम नीति निर्धारण का है उन्हें क्रियान्वयन के काम में अधिक रुचि है और वे उसी में हमेशा सक्रिय रहते हैं और नीति निर्धारण का काम कार्यपालिका के भरोसे छोड़ दिया गया है।

मंत्रियों की रुचि तबादलों और ठेके देने जैसे कामों में ही अधिक नज़र आती है। दूसरी तरफ नीतियाँ सचिवालय के बंद कमरों में अफसर बनाते हैं और मंत्री गण उन पर केवल मुहर लगाते हैं। इसके चलते राज नेताओं नौकरशाहों और अपराध जगत के लोगों का गठजोड़ जैसा बन गया है। ऐसी स्थिति में सभी को रस आने लगा है। इसी से चुनाव भी प्रपंच वाले बन गए हैं। आम जन की लोकतान्त्रिक भागीदारी चुनाव में वोट देने तक ही सीमित हो गई है। यह प्रतिनिधिक लोकतन्त्र तो है मगर सहभागी लोकतन्त्र नहीं है जिसका सपना संविधान निर्माताओं ने देखा था।

मार्च का महिना शासन तंत्र और विधायिका के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह वित्तीय वर्ष का अंतिम महिना होता है। नया वित्तीय वर्ष अप्रेल से शुरू होता है। इसलिए मार्च के अंत तक अगले वित्तीय वर्ष का लेखा जोखा – बजट – का पारित होना आवश्यक होता है क्योंकि बिना विधायिका की अनुमति के सरकार एक पैसा भी नहीं खर्च कर सकती। वास्तव में बजट वह दस्तावेज़ होता है जिसमें निर्वाचित सरकार अपनी नीतियों और कार्यक्रमों की घोषणा करती है और उनके लिए वित्तीय प्रबंध करती है। क्योंकि यह एक वित्तीय दस्तावेज़ होता है जिसमें करों से राजस्व पाने की व्यवस्था की जाती है इसलिए इसका प्रभाव देश के हर नागरिक पर पड़ता है। मगर क्या इस दस्तावेज़ के निर्माण में आम जन की या उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों की कोई भूमिका होती है? कहा जा सकता है कि बजट पेश करने वाला वित्त मंत्री निर्वाचित प्रतिनिधि होता है। फिर बजट और उसके प्रावधानों पर निर्वाचित सदनों में चर्चा होती है और बहुमत से उसके पास होने पर ही वह लागू होता है। यही लोकतान्त्रिक व्यवस्था है।

हम जानते हैं कि राज्य का बजट कैसे बनाता है। यह एक यांत्रिक प्रक्रिया होती है। सभी विभाग अपने अपने अगले वर्ष के खर्चों के प्रस्ताव बना कर वित्त विभाग को भेजते हैं। ये प्रस्ताव बनाते हुए सभी विभाग अपने आंकड़े अतिरेक करके भेजते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि वे जितने रुपयों के प्रस्ताव बना कर भेजेंगे उनकी वित्त विभाग अनिवार्य रूप से कतर ब्योंत करेगा। आने वाले साल में कौन से काम करने हैं और किस मद में कितना पैसा खर्च करना है इसका हिसाब किताब नौकरशाही बनाती है जो अपने राजनैतिक आकाओं को खुश रखने का अद्भुत कौशल रखती है।

बजट के निर्माण में समूचे मंत्री परिषद की भी कोई भूमिका नहीं होती। कार्यपालिका द्वारा तैयार किया गया बजट दस्तावेज़ क्योकि निर्वाचित व्यक्ति – वित्त मंत्री – प्रस्तुत करता है इसलिए ही वह लोकतान्त्रिक तरीके से तैयार किया हुआ दस्तावेज़ नहीं माना जा सकता।

कहा जा सकता है कि भई इसे पास तो विधानसभा करती है जो समूचे राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। मगर देखें कि क्या सदन को बजट पर कोई समझदारी वाली गहन चर्चा के लिए समय मिलता है? सदन का बजट सत्र अमूमन फरवरी के अंतिम दिनों में शुरू होता है। क्योंकि वह साल का पहला सत्र होता है इसलिए उसकी शुरुआत राज्यपाल के अभिभाषण से होती है। एक हफ्ता इस अभिभाषण पर बहस और उसके पारण में चला जाता है। मार्च के पहले हफ्ते के अंत तक वित्त मंत्री बजट प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार कुल मिला कर बजट पर विचार और उसके पारण के लिए लगभग बीस दिनों का समय मिलता है। कोई यह सवाल नहीं करता कि बजट जैसे गंभीर विषय की चर्चा पर क्यों हमारे प्रतिनिधि अधिक समय नहीं देते? विपक्ष के लोग कहेंगे यह समय तो सरकार तय करती है। मगर इसका क्या जवाब है कि जब वे खुद सत्ता में होते हैं तब भी व्यवस्था यही रहती है।

असली बात यह है कि बजट प्रक्रिया में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका बिलकुल सतही होती है इसलिए उन्हें उसमें कोई रुचि होना संभव भी नहीं है। फिर बजट राज्य का वित्तीय लेखा जोखा होता है जो आर्थिक और वित्तीय मामलों की विशेषज्ञता तो मांगता ही है साथ ही जमीनी स्तर पर लोक से जुड़ाव भी मांगता है। दोनों ही मामलों में शासन और प्रशासन में फिसड्डीपन झलकता है। अफसोस इस बात का है कि राजनैतिक दल सरकार के पिछलग्गू बन चले हैं। सरकार के मुखिया की अपनी पार्टी पर धौंस चलती है। राजनैतिक दल के मुखिया की अपनी ही पार्टी की सरकार में कोई हैसियत नहीं होती। जबकि लोकतन्त्र में हुकम पार्टी का चलना चाहिए। मगर व्यवस्था ऐसी हो चली है कि सरकार का मुखिया ही खुद सम्पूर्ण पार्टी बन जाता है। नहीं तो क्यों नहीं लोगो के जीवन को प्रभावित करने वाला बजट जैसा दस्तावेज़ का प्रारूप पार्टी से बन कर आए।

ऐसा हो सकता है। अगले वित्तीय वर्ष में कौन से काम किए जाने हैं और किन प्राथमिकताओं से किए किए जाने है इसकी सलाह ठेठ नीचे के स्तर से आए। सत्तारूढ राजनैतिक पार्टी का विस्तार सहज रूप से नीचे जड़ों तक होता है। उसके जमीनी कार्यकर्ता और नेता बेहतर तरीके से बता सकते हैं कि उनके इलाकों की जनता की जरूरतें और अपेक्षाएँ क्या है। इस प्रकार नीचे से ऊपर आकर जिला स्तर पर बजट में क्या लिया जाय क्या छोड़ा जाय की चर्चा पार्टी में हो। यह प्रक्रिया हर साल एक अक्तूबर से शुरू हो जाये। सभी जिलों से सलाहें आ जाने के बाद दिसंबर में राज्य स्तर पर उन सब सलाहों पर फिर से गंभीर मंथन हो। सरकार के बाहर आर्थिक और वित्तीय विश्लेषकों की कमी नहीं है। उन सब के साथ बैठ कर पार्टी में बजट प्रस्तावों पर जाम कर खुली चर्चा हो। इस चर्चा में सबकी सहभागिता हो जो उन प्रस्तावों से प्रभावित होने वालें है। इन चर्चाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भी भागीदारी हो मगर विशिष्ट जन की तरह नहीं। और फिर एक सर्वमान्य दस्तावेज़ का प्रारूप बने। वित्त मंत्री को पार्टी मुख्यालय में बुला कर यह दस्तावेज़ सौप दिया जाय। वित्त मंत्री सचिवालय में जाकर वित्त सचिव को वह दस्तावेज़ सौपे ताकि उसे सरकारी भाषा में लिखा जा सके। यह दस्तावेज़ लेकर जब वित्त मंत्री सदन में खड़ा होगा और अपना बजट भाषण पढ़ेगा तब वह वास्तव में लोक की बात कर रहा होगा। फिर उस पर सदन में दो माह से अधिक समय तक चर्चा रखी जाये ताकि अन्य दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की जमीनी समझ का फायदा मिल सके और राज्य का संतुलित विकास की राह प्रशस्त हो सके।

ऐसा होगा तो राज्य के हर काम में जन भागीदारी स्वतः होने लगेगी। आज की तरह मतदाता वोट डालने के बाद निष्क्रिय हो कर नहीं बैठ जाएगा। राजनैतिक दलों में और उनके कार्यकर्ताओं में जबर्दस्त उत्साह आएगा जो लुप्त हो रही राजनैतिक प्रक्रिया को फिर से स्थापित करेगा। ठेठ नीचे तक के कार्यकर्ता की पूछ होगी। सब को लगेगा राज चलाने में उनकी भागीदारी है। कार्यपालिका को उसका सही स्थान बता दिया जाएगा और उसे वास्तविक रूप से जवाबदेह बनाना पड़ेगा।

लेकिन आज लोकतन्त्र की शीर्षआसन जैसी स्थिति है उसमें आश्चर्य नहीं कि नौकरशाह और पुलिस के लोग सेवानिवृत्त होने के बाद या समय से पहले सेवानिवृत्ति लेकर राजनैतिक दलों के प्रत्याशी बन कर जनप्रतिनिधि बन बैठते हैं। दूसरी तरफ सरमायेदार और अपराध जगत के लोग भी जन प्रतिनिधि बन जाते हैं। ऐसे माहौल में जनता के साथ काम करने वाले जमीनी स्तर के लोग ही ठुकराये जाते हैं।

(यह आलेख 'प्रेसवाणी' के मार्च 2012 अंक में छपा)

Comments

Popular posts from this blog

स्मृति शेष: मांगी बाई ने राजस्थानी मांड गायकी को ऊंची पायदान पर बनाये रखा

पत्रकारिता का दायित्व और अभिव्यक्ति की आज़ादी

राजस्थान में सामंतवाद