शिवरतन थानवी: एक संवादप्रिय शिक्षाविद् का चले जाना

राजेंद्र बोड़ा

शिक्षाविद् शिवरतन थानवी के निधन के साथ ही एक युग का अवसान हो गया। एक ऐसे युग का जिसमें संबंधों की ऊष्मा बनाये रखते हुए गहरी बहस की गुंजाइश बनी रहती थी। वे कहते थे "संवाद-प्रियता नहीं हो तो सही शिक्षा और आजीवन शिक्षा संभव ही नहीं है। संवादप्रिय बनना सीखना भी शिक्षा का और आत्म-शिक्षण का एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है। संवाद करना एक कसरत है और कला भी है"। संवाद की यह कला दो पीढ़ियों को उनसे मिली। उन्होंने हमें जीवन के सरोकारों को समझने के लिए लगातार शिक्षित किया।

शिक्षा की दीक्षा-प्रशिक्षा की रूढ़ि पर शिवरतन थानवी हमेशा सवाल खड़े करते रहे हैं। उन्हें हमने हमेशा एक ऐसे शिक्षक की भूमिका में पाया जो दुर्गम रास्तों में हमें भटकने से बचाने के लिए हमारा मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने हमें शिक्षा के प्रति एक समग्र समझ दी। उनका मानना था कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या यह है कि “अब तक न हम सहिष्णु हुए, न उदार हुए, और न ही हम समझदार हुए”। शिक्षा जरिये वे पूरे समाज को जागरूक रखना चाहते थे जिनमें “नागरिक भी शामिल हों और शासक भी”।

वे राजस्थान में शैक्षिक पत्रकारिता के पुरोधा थे। शिक्षा व्यवस्था जगत में एक बड़ा नाम अनिल बोर्दिया के नवोन्मेषों को शासकीय तंत्र में लागू  करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही।  वे मूलत: अंग्रेज़ी के शिक्षक रहे मगर सरकारी शैक्षिक पत्रिकाओं – शिविरा’, नया शिक्षक और टीचर टुडे के सम्पादन का जैसा विलक्षण काम उन्होंने किया वह इतिहास के सुनहरे हर्फों में लिखा जाएगा। 

पढ़ने लिखने के साथ विभिन्न कलाओं – संगीत और फिल्मों के साथ साथ वनस्पतियों में उनकी गहरी गहरी रुचि थी उनके अंत समय तक बनी रही। वे एक ऐसे  स्वाभिमानी व्यक्ति थे जो दूसरों पर अपनी बात थोपते नहीं थे। अपनी शर्तों पर उन्होंने अपना सादा और आडम्बर रहित जीवन जीया।    

वे एक विराट बौद्धिक पुरुष थे। उनके जाने से वैचारिक जगत में एक सूनापन आ गया है जिसे भरा जाना संभव नहीं लगता। उनसे प्रेरणा पाने वाले हम सब सदमे मैं हैं। असंख्य लोग जो उनके संपर्क में आये, भले ही थोड़े समय के लिए, वे शिवरतन जी का चले जाना अपनी निजी क्षति मानेंगे।    

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